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भभभभभभभभभ भभभभभभभभभभ-भभभभ भभभभभभभभभभभभभभ, भभभभभ— 185 भभभभभभभभभभभभभभ गगगगगगगगगगगगग गगगगगगग (गगगगग गगगगगगगगगगग गगगगगगगगगगगगग गगगगगगगगगगगगग गगगग गगग) भभभभभभभ 1

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भगवानश्री कुन्दकुन्द-कहान जैनशास्त्रमाला, पुष्प—185

ॐनमः शुद्धात्मने ।

गुरुदेवश्रीके वचनामृत(पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीके प्रवचनोंमेंसे चुने गये)

प्रकाशक

श्री दिदगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिदर ट्रस्ट,सोनगढ-364250 (सौराष्ट्र)

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देखी मूर्ति"# सीमन्धरजिजननी नेत्र मारां ठरे छे,ने हैयु आ फरी फरी प्रभु! ध्यान "ेनंु धरे छए;आत्मा मारो प्रभु! "ुज कने आववा उल्लसे छे,आपो एवुं बळ हृदयमां माहरी आश ए छे.

अंकुर एक नथी मोह "णो रह्यो ज्यां,अज्ञान-अंश वळी भस्मरूपे थयो ज्यां;आनन्द, ज्ञान, निनज वीय@ अनन्" छे ज्यां,त्यां स्थान मागुं—जिजननां चरणांबुजोमां.

भले सो इन्द्रोना "ुज चरणमां शिशर नम"ां,भले इन्द्राणीना र"नमय स्वस्तिस्"क बन"ा;नथी ए जे्ञयोमां "ुज परिरणनि" सन्मुख जरा,स्वरूपे डूबेला, नमन "ुझने, ओ जिजनवरा !

सुर-असुर-नरपनि"वंद्यने प्रनिवनष्टघानि"कम@ने,प्रणमन करंु हुं धम@क"ा@ "ीथ@ श्री महावीरने.

जिजनके ज्ञानसरोवरमें सव@ निवश्व मात्र कमल "ुल्य भाशिस" हो"ा है ऐसे भू", व"@मान और भावी

जग"शिशरोमणिण "ीथUकर भगवन्"ोंकोनमस्कार

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ॐनमः श्री सद्गरुुदेवाय ।

प्रकाशकीय निनवेदन‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’ नामक यह लघु संकलन अध्यात्मयुगस्रष्टा, वीर-कुन्द-अमृ"प्रणी"

शुद्धात्ममाग@प्रकाशक, स्वानुभूनि"निवभूनि\", परमोपकारी परमपूज्य सद्गरुुदेव श्री कानजीस्वामीके श्री समयसार आदिद अनेक दिदगम्बर जैन शास्त्रों पर दिदय े गय े अध्यात्मरसभरपूर प्रवचनोंमेंसे, पूज्य गुरुदेवश्रीकी पनिवत्र साधनाभूमिम सुवण@पुरीके मध्य ‘पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी स्मारक-योजना’ अन्"ग@" नवनिनर्मिम#" ‘श्री दिदगम्बर जैन पंचमेरु-नन्दीश्वर जिजनालय गुरुदेवश्री कानजीस्वामी वचनामृ" भवन बनिहनश्री चम्पाबनिहन वचनामृ"भवन’—इस नित्रपटी अणिभधायुक्त अनि" भव्य जिजनमजिन्दरकी दीवारोंके संगेमरमर शिशलापटों पर उत्कीण@ कराने ह"ेु चुने गये 287 बोलोंका संग्रह है ।

भार"व\@की धन्य धरा पर निवक्रमकी बीसवीं—इक्कीसवीं श"ाब्दीम ें समयसारकी मनिहमाका जो यह अद्भ"ु उदय हुआ है वह, वास्"वमें अध्यात्मयुगप्रव"@क परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामीका कोई असाधारण परम प्र"ाप है ।

समयसार मान े द्रव्यकम@, भावकम@ "था नोकम@रनिह" त्रैकाशिलक शुद्ध आत्मा । शुद्ध आत्माके स्वरूपका सुन्दर और सचोट प्रनि"पादन करनेवाला, श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचाय@देवप्रणी" परमागम श्री समयसार नामक महान ग्रन्थ निव.सं. 1978 में, निवमिधके निकसी धन्य क्षणमें, पूज्य गुरुदेवश्रीके करकमलमें आया । उसे पढ़" े ही उनके ह\qल्लासका पार नहीं रहा, क्योंनिक व े जिजस दुःखमुशिक्तके यथाथ@ माग@की खोजम ें थ े वह उन्ह ें समयसारमेंस े प्राप्" हो गया । समयसारका गहन अध्ययन करने पर उन्हें अमृ"के सरोवर छलक"े दिदखाई दिदये; एकके बाद एक गाथा पढ़"े हुए उन्होंने अंजुशिल भर-भरकर यह अमृ" निपया । ग्रन्थामिधराज समयसारने पूज्य गुरुदेवश्री पर अपूव@, अलौनिकक, अनुपम उपकार निकया और उनके आत्मानन्दका पार नहीं रहा । समयसारके "लस्पशv अध्ययनसे उनके अं"जvवनमें परम पनिवत्र परिरव"@न हुआ । भटकी हुई परिरणनि" निनज घरकी ओर चली—परिरणनि"का प्रवाह सुखशिसन्धु ज्ञायकदेवकी ओर मुड़ गया । उनकी ज्ञानकला अपूव@ रीनि" एवं असाधारणरूपसे खिखल उठी ।

ग्रन्थामिधराज समयसार जिजनके शुद्धात्मसाधनामय जीवनका जनक हुआ और आजीवन साथी रहा । उन परम कृपालु पूज्य गुरुदेवकी पावन परिरणनि"में समयसारके गहन अवगाहनसे समुत्पन्न जो स्वानुभूनि"जनिन" अ"ीजिन्द्रय आनन्दका उफान वह, निवकल्पकालम ें भव्यजन-भाग्ययोगसे शब्ददेह धारण करके प्रवचनरूपस े प्रवानिह" होन े लगा । गुरुदेवन े अपनी साधनाभू" उज्ज्वल ज्ञानधारामेंसे अपनी जीवनकालम ें समयसार पर उन्नीस बार शुद्धात्म"त्त्वप्रनि"पादनप्रधान, अनेकान्"संग" "था निनश्चय-व्यवहारके सुमेलयुक्त अध्यात्मरसझर" े अनुपम प्रवचन दिदय े । "दुपरां" प्रवचनसार, पंचास्तिस्"कायसंग्रह, निनयमसार आदिद कुन्दकुन्दभार"ी पर "था अन्य दिदगम्बर जैन आचाय~के परमात्मप्रकाश, पुरु\ाथ@शिसजिद्धयुपाय, स्वामिम"कार्ति"#केयानुपे्रक्षा आदिद अनेक ग्रन्थों पर भी अनेकबार मम@स्पशv व्याख्यान दिदये । इसप्रकारह व्याख्यानों द्वारा वी"रागसव@ज्ञप्रणी" शुद्धात्मानुभूनि"रूप सच्चा मोक्षमाग@ मुमुक्षुजग"को ब"लाकर कृपाल ु कहानगुरुदेवन े वास्"वम ें वचना"ी" असाधारण महान—महान उपकार निकया है । इस श"ाब्दीमें स्वानुभूनि"प्रधान मोक्षमाग@की जो मनिहमा प्रव"@मान है उसका सारा श्रेय पूज्य गुरुदेवश्रीको है ।

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पूज्य गुरुदेवश्री अध्यात्मरसझर"ी, स्वानुभवमाग@प्रकाशिशनी यह कल्याणी प्रवचनगंगा जग"के जीवोंको पावन कर"ी हुई जो वही जा रही है उसे यदिद लेखनबद्ध करके स्थायी निकया जाये "ो मुमुक्षुजग"को महान लाभका कारण हो—इस पुनी" भावनाके बलसे श्री दिदगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिदर ट्रस्ट (सोनगढ़) द्वारा, समयसार आदिद अनेक शास्त्रों पर पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा दिदय े गय े प्रवचनोंकी शिलनिपबद्ध कराके, वह मिमथ्यात्व"मोभेदिदनी समन्"भद्रा अनुपम वाणी ‘आत्मधम@’ माशिसक पत्र "था अनेक प्रवचनग्रन्थोंमें प्रकाशिश" की गई । इस प्रकार पूज्य गुरुदेवश्रीके प्रवचनसानिहत्य द्वारा निनजनिह"ाथv मुमुक्षुजग" पर महान उपकार हुआ है ।

अहो ! ऐस े असाधारण परमोपकारी पूज्य गुरुदेवश्रीकी "था उनकी लोकोत्तर अनुभववाणीकी क्या मनिहमा की जाए ! उस सम्बन्धमें अपनी गुरुभशिक्तभीनी हृदयोर्मिम#याँ व्यक्त कर"े हुए प्रशममूर्ति"# भगव"ी पूज्य बनिहनश्री चम्पाबनिहन कह"ी हैं निक—

‘‘गुरुदेवका द्रव्य ही अलौनिकक था, उनकी वाणी भी ऐसी अलौनिकक थी निक भी"र आत्माकी रुशिच जागृ" करे । उनकी वाणीकी गम्भीर"ा एवं झंकार कुछ और ही थे । सुन"े हुए अपूव@"ा लग े और ‘जड़-चै"न्य णिभन्न हैं’ ऐसा भास हो जाये—ऐसी वाणी थी । ‘अर े जीवों ! "ुम देहमें निवराजमान भगवान आत्मा हो निक जो अनन्" गुणोंका महासागर ह ै । उस प्रत्यक्ष अनुभवगोचर भगवानका "ुम अनुभव करो; "ुम्ह ें परमानन्द होगा ।’—ऐसी गुरुदेवकी अनुभवयुक्त बलव"ी वाणी श्रो"ाओंको आश्चय@चनिक" कर"ी थी । बड़ी प्रबल वाणी ! शुद्ध परिरणनि"की "था शुद्ध ज्ञायक आत्माकी लगन लगाये—ऐसी मंगलमय वाणी गुरुदेवकी थी ।

अहो ! देव-शास्त्र-गुरु मंगल हैं, उपकारी हैं । हमें "ो देव-शास्त्र-गुरुका दासत्व चानिहए ।पूज्य कहानगुरुदेवस े "ो मुशिक्तका माग@ मिमला ह ै । उन्होंन े चारों ओरस े मुशिक्तका माग@

प्रकाशिश" निकया है । गुरुदेवका अपार उपकार है । वह उपकार कैसे भूला जाए ? पूज्य गुरुदेवश्रीके चरणकमलकी भशिक्त और उनका दासत्व निनरन्"र हो !’’

पूज्य गुरुदेवश्रीके उस निवशाल प्रवचनसानिहत्यमेंस े चुनकर इस पुस्"क ‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’का उद्भव निकस प्रकार हुआ वह हम देखें :—

पूज्य गुरुदेवश्रीकी साधनाभूमिममें—सुवण@पुरीके—प्रशममूर्ति"# धन्याव"ार पूज्य बनिहनश्री चम्पाबेनकी—रानित्रकालीन मनिहलाशास्त्रसभामें उच्चरिर"—स्वानुभवरस-झर"ी "था देव-गुरु-भशिक्तभीनी अध्यात्मवाणी पूज्य गुरुदेवश्रीकी मंगल उपस्थिस्थनि"में ‘ ֲ बनिहनश्रीके वचनामृ"’रूपम ें निव.सं. 2033 में प्रकाशिश" हुई थी । उसमें समानिवष्ट अध्यात्मके "लस्पशv गहरे रहस्योंसे पूज्य गुरुदेव बहु" ही प्रसन्न एवं प्रभानिव" हुए । उन्होंने अपनी प्रसन्न भावना व्यक्त कर"े हुए ट्रस्टके अध्यक्ष श्री रामजीभाई दोशीसे कहा : ‘‘भाई ! यह ‘वचनामृ"’ पुस्"क इ"नी सरस है निक इसीक एक लाख प्रनि"या ँ छपाना चानिहए ।’’ ‘बनिहनश्रीके वचनामृ"’ पुस्"क सम्बन्धकी पूज्य गुरुदेवश्रीकी एसी असाधारण प्रसन्न"ा एवं अहोभाव देखकर—सुनकर कुछ-एक मुमुकु्षओंको उस े संगेमरमरके शिशलापटों पर उत्कीण@ करानेकी भावना जागृ" हुई । यह बा" प्रस्"ु" होनेपर पूज्य गुरुदेवश्रीन े ऐसी भावना व्यक्त की निक—‘वचनामृ" खुदवाकर बनिहनके (पूज्य बनिहनश्री चम्पाबेनके) नामका एक नया स्व"न्त्र मकान बनाना चानिहए ।’ माननीय श्री रामजीभाईने पूज्य गुरुदेवश्रीकी भावना शिशरोधाय@ करके, निनण@य निकया निक—‘बनिहनश्री चम्पाबबेन वचनामृ"भवन’का निनमा@ण करवाया जाये; जिजसकी शिशलान्यासनिवमिध निव.सं. 2037, कार्ति"#क शुक्ला पंचमीके शुभ दिदन पूज्य गुरुदेवश्रीकी मंगल उपस्थिस्थनि"में हुई थी ।

शिशलान्यासनिवमिध सम्पन्न होनेके पश्चा" ् कुछ दिदनोंम ें (पूज्य गुरुदेवश्रीकी अनुपस्थिस्थनि"में) ट्रस्टीओंने "था मुख्य काय@क"ा@ओंने ‘वचनामृ"भवन’का निवस्"ृ"ीकरण करके उसमें पंचमेरु-नन्दीश्वरकी

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प्रनि"मि�" रचना की जाए और ‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’ भी उत्कीण@ कराए जाए,ँ—ऐसा निनण@य निकया । "दनुसार पूज्य गुरुदेवश्रीके सानिहत्य-समुद्रमेंसे वी"राग माग@को स्पष्ट करनेवाले कुछ-एक बोल चुनकर ‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’का यह संकलन श्री दिदगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिदर ट्रस्टन े "ैयार करवाया और उसका संगमरमरके शिशलापटों पर खुदाई काम भी हुआ; "था पूज्य बनिहश्रीकी मंगल उपस्थिस्थनि"में निव.सं. 2041, फाल्गुन शुक्ला सप्"मीके शुभ दिदन पंचमेरु-नन्दीश्वर जिजनालयकी पंचकल्याणकनिवमिध सनिह" भव्य प्रनि"�ा हुई ।

श्री पंचमेरु-नन्दीश्वर जिजनालयमें उत्कीण@ ‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’ पुस्"काकार (गुजरा"ी) प्रकाशिश" हो "ो हर एकको उसके अध्ययनका लाभ प्राप्" हो—इस हे"ु इसे छपाना ‘ट्रस्ट’की योजना अन्"ग@" था, और पूज्य बनिहनश्री भी, यह पुस्"क शीध्र प्रकाशिश" हो "ो अच्छा—ऐसी अं"रमें गुरुवाणीके प्रनि" उन्हें भशिक्तभीनी "ीव्र भावना होनेसे, कई बार पूछ"ी थीं निक—‘‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’ पुस्"क कब प्रकाशिश" होगी?’’ परन्"ु इस काय@में अकारण ही निवलम्ब हो रहा था । इ"नेमें, जिजन्होंने अपनी देव-गुरुके प्रनि" अपार भशिक्त द्वारा पंचमेरु-नन्दीश्वर जिजनालय आदिद सुवण@पुरी-"ीथ@धामके सव@ जिजनाय"नोंके "था अन्य अन्य नगरोंके अनेक जिजनाय"नोंके निनमा@णकाय@में एवं संस्थआकी गनि"निवमिधमें निवनिवध प्रकारसे अनुपम सेवा दी है उन (पूज्य बनिहनश्री और पं. श्री निहम्म"लालभाईके ज्ये� भ्रा"ा) आत्माराथी मुमुक्षु भाईश्री व्रजलालबाई जेठालाल शाह (इन्जीनिनयर)का स्वग@वास हो जानेसे आदरणीय पस्थि�ड"जी श्री हिह#म"भाई "था माननीय श्री व्रजलालभाईके परिरवारने, यदिद ट्रस्ट ‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’ पुस्"क प्रकाशिश" करनेकी योजना शीघ्र काया@न्विन्व" कर े "ो, अपन े पूज्य अग्रज श्री व्रजलालभाई द्वारा स्वय ं दशा@यी गई भावनानुसार धमा@थ@ घोनि\" एक लाख रूपयेकी रकममेंस े दस हजार रूपये उसके प्रकाशन हे"ु देनेकी अपनी भावना व्यक्त की । ट्रस्टने उनकी भावनाको सम्मनि" दी । इस प्रकार ट्रस्टके निवलम्बम ें पड़ े हुए इस (गुजरा"ी)के प्रकाशन काय@को गनि" मिमली और इन ‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’न े पुस्"काकार धारण निकया, जिजसका निहन्दी भा\ान्"र कराकर इस बहुमूल्य गुरुवाणीको निव.सं. 2049 में निहन्दीभा\ी मुमुकु्षजग"के हाथम ें पहुचाया गया । अब इसकी "ीसरी आवृणित्त प्रकाशिश" कर"े हुए हम अनि" ह\ा@नन्दका अनुभव कर"े हैं ।

अन्"म ें हम ें आशा ह ै निक "त्त्वरशिसक जिजज्ञास ु जीव गुरुदेवश्रीकी स्वानुभवरसपूरिर" ज्ञानधारामेंसे प्रवानिह" इस शुद्धात्म"त्त्वस्पशv ‘वचनामृ"’ द्वारा आत्माथ@को पुष्ट करके, साधनाकी सच्ची दिदशा प्राप्" करके, अपने साधनामाग@को उज्ज्वल एवं सुधास्यन्दी बनाऐंगे ।चैत्र कृष्णा 10, सानिहत्यप्रकाशनसमिमनि"निव.सं. 2051 श्री दिदगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिदर ट्रस्ट,(बनिहनश्री चम्पाबेनकी 63 वीँ सम्यक्त्वजयन्"ी) सोनगढ़ (सौराष्ट्र)

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ॐअध्यात्मयुगस्रष्टा पूज्य गुरुदेव

श्री कानजीस्वामीकी प्रशस्तिस्त(निवक्रम संव" 1946—2037)

मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौ"मो गणी ।मंगलं कुन्दकुन्दायq जैनधमqऽस्"ु मंगलम् ।।अज्ञाननि"मिमरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया ।चक्षुरुन्मीशिल"ं येन "स्मै श्रीगुरुवे नमः ।।

इस भार"व\@की पु�यभूमिममें अव"ार लेकर जिजस महापुरु\ने प्रव"@मान चौबीसीके चरम "ीथUकर देवामिधदेव परमपूज्य 1008 श्री महावीरस्वामी द्वारा प्ररूनिप" "था "दाम्नायानुव"v आचाय@शिशरोमणिण श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचाय@देव द्वारा समयसार आदिद परमागमोंम ें सुसंशिच" शुद्धात्मद्रव्यप्रधान अध्यात्म"त्त्वामृ"का स्वय ं पान करके निवक्रमकी इस वीस—इक्कीसवीं श"ाब्दीम ें आत्मसाधनाके पावन पंथका पुनः समुद्यो" निकया है, रूदि�ग्रस्" साम्प्रदामियक"ामें फँसे हुए जैनजग" पर जिजन्होंने जिजनागम, सम्यक् प्रबल युशिक्त और स्वानुभवसे द्रव्यदृमिष्टप्रधान स्वात्मामुभूनि"मुलक वी"राग जैनधम@को प्रकाशणें लाकर अनुपम, अद्भ"ु और अनन्" उपकार निकये हैं, पै"ालीस व\@के सुदीघ@ काल "क जिजनके निनवास, दिदव्य देशना "था पुनी" प्रभावनायोगने सोनगढ़(सौराष्ट्र)को एक अनुपम ‘अध्यात्म"ीथ@’ बना दिदया है और जिजनकी अनेकान्"मुदिद्र" निनश्चय-व्यवहार-सुमेलसम्बन्धिन्ध" शुद्धात्म"त्त्वप्रधान अध्यात्मरसनिनभ@र चमत्कारी वाणीमेंसे ‘गुरुदेवश्रीके वचनामृ"’ संकशिल" निकए गए हैं—ऐसे सौराष्ट्रके आध्यान्धित्मक युगपुरु\ पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीका पनिवत्र जन्म सौराष्ट्रके (भावनगर जिजलेके) उमराला ग्राममें निव.सं. 1946, वैशाख शुक्ला दूज, रनिववारके शुभ दिदन हुआ था । निप"ा श्री मो"ीचन्दभाई और मा"ा उजमबा जानि"से दशा-श्रीमाली वणिणक "था धम@से स्थानकवासी जैन थे ।

शैशवसे ही बालक ‘कानजी’के मुख पर वैराग्यकी सौम्य"ा और नेत्रोंमें बुजिद्ध "था वीय@की असाधारण प्रनि"भा झलक"ी थी । वे स्कूलमें "था जैन पाठशालामें प्रायः प्रथम श्रेणीमें आ"े थे । स्कूलके लौनिकक ज्ञानसे उनके शिचत्तको सं"ो\ नहीं हो"ा था; उन्हें अपने भी"र ऐसा लग"ा रह"ा था निक ‘जिजस खोजमें मैं हूँ वह यह नहीं है’ । कभी-कभी यह दुःख "ीव्र"ा धारण कर"ा और एक बार "ो, मा"ासे निबछुडे ़हुए बालककी भाँनि" वे बालमहात्मा सत्के निवयोगमें खूब रोये थे ।

युवावस्थामें दूकान पर भी वै वैराग्यप्रेरक और "त्त्वबोधक धार्मिम#क पुस्"कें पढ़"े थे । उनका मन व्यापारमय या संसारमय नहीं हुआ था । उनके अन्"रका झुकाव सदा धम@ और सत्यकी खोजके प्रनि" ही रह"ा था । उनका धार्मिम#क अध्ययन, उदासीन जीवन "था सरल अन्"ःकरण देखकर सगे-सम्बन्धी उन्हें ‘भग"’ कह"े थे । उन्होंने बाईस व\@की कुमारावस्थामें आजीवन ब्रह्मचय@पालनकी प्रनि"ज्ञा ले ली थी । निव.सं. 1970 में मंगशिसर शुक्ला 9, रनिववारके

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दिदन उमरालामें गृहस्थजीवनका त्याग करके निवशाल उत्सवपूव@क स्थानकवासी जैन संप्रदायका दीक्षाजीवन अंगीकार निकया था ।

दीक्षा लेकर "ुरन्" ही गुरुदेवश्रीने शे्व"ाम्बर आगमोंका "ीव्र अध्ययन प्रारंभ कर दिदया । व े सम्प्रदायकी शैलीका चरिरत्र भी बड़ी सख्"ीस े पाल" े थ े । कुछ ही समयम ें उनकी आत्मार्थिथ#"ाकी, ज्ञाननिपपासाकी "था उग्र चारिरत्रकी सुवास स्थानकवासी संप्रदायम ें इ"नी अमिधक फैल गई निक समाज उन्हें ‘कादिठयावाड़के कोनिहनूर’—इस नामसे सम्मानिन" कर"ा था ।

गुरुदेवश्री पहेलसे ही "ीव्र पुरु\ाथv थे । ‘चाहे जैसे कठोर चारिरत्रका पालन निकया जाए "थानिप केवली भगवानने यदिद अनन्" भव देखे होंगे उनमेंसे एक भी भव कम नहीं होगा ’—ऐसी काललस्ति£ एवं भनिव"व्य"ाकी पुरु\ाथ@हीन"ाभरी बा"ें कोई करे "ो वे सहन नहीं कर सक" े थ े और दृढ़"ास े कह" े निक ‘जो पुरु\ाथv ह ै उस े अनन्" भव हो" े ही नहीं, केवली भगवानने भी उसके अनन्" भव देखे ही नहीं, पुरु\ाथvको भवस्थिस्थनि" आदिद कुछ भी बाधक नहीं हो"ा’ । ‘पुरु\ाथ@, पुरु\ाथ@ और पुरु\ाथ@’ वह गुरुदेवश्रीका जीवनमंत्र था ।

दीक्षापया@यके अरसेम ें उन्होंन े शे्व"ाम्बर शास्त्रोंका गहन चिच#"न-मननपूव@क खूब अध्ययन निकया । "थानिप वे जिजसकी खोजमें थे वह उन्हें मिमल गया । गुरुदेवश्रीके अन्"न¥त्रोंने समयसारमें अमृ"के सरोवर छलके" देखे; एकके बाद एक गाथा पढ़"े हुए उन्होंन े घँूट भर-भरकर वह अमृ" निपया । गुरुदेवश्रीने ग्रन्थामिधराज समयसारमें कहे हुए भावोंका गम्भीर मंथन निकया और क्रमशः समयसार द्वारा गुरुदेवश्री पर अपूव@, अलौनिकक, अनुपम उपकार हुआ । गुरुदेवश्रीके आत्मानंदका पार नहीं रहा । उनके अन्"जvवनमें परम पनिवत्र परिरव"@न हुआ । भूली हुई परिरणनि"ने निनजघर देखा । उपयोगका प्रवाह सुधाशिसन्धु ज्ञायकदेवकी ओर मुड़ा । उनकी ज्ञानकला अपूव@ रीनि"से निवकशिस" होने लगी ।

निव.सं. 1991 "क स्थानकवासी सम्प्रदायम ें रहकर पूज्य गुरुदेवश्रीन े सौराष्ट्रके अनेक मुख्य शहरोंमें चा"ुमा@स "था शे\ कालमें सैकडों छोटे-बड़े ग्रामोमें निवहार करके लुप्"प्राय अध्यात्मधम@का खूब उद्यो" निकया । उनके प्रवचनोंमें ऐसे अलौनिकक आध्यान्धित्मक न्याय आ"े निक दो अन्यत्र कही सुननेको नहीं मिमले हों । प्रत्येक प्रवचनमें वे भवान्"कारी कल्याणमूर्ति"# सम्यग्दश@न पर अत्यन्" अत्यन्" भार दे"े थे । वे कह"े थे । ‘‘शरीरकी खाल उ"ारकर नमक शिछड़कनेवाले पर भी क्रोध नहीं निकया—ऐसे व्यवहारचारिरत्र इस जीवने अनन्"बार पाले हैं, परन्"ु सम्यग्दश@न एक बार भी प्राप्" नहीं निकया ।....लाखों जीवोंकी हिह#साके पापकी अपेक्षा मिमथ्यादश@नका पाप अनन्"गुना ह ै ।....सम्यक्त्व आसान नहीं है, लाखों—करोड़ोंम ें निकसी निवरले जीवको ही वह हो"ा है । सम्यक्त्वी जीव अपने सम्यक्त्वका निनण@य स्वयं ही कर सक"ा है । सम्यक्त्वी समस्" ब्रह्मांडके भावोंको पी गया हो"ा ह ै । सम्यक्त्व वह कोई अलग ही वस्"ु ह ै । सम्यक्त्व रनिह" निक्रयाए ँएक रनिह" शून्योंके समान हैं ।.....जानपना वह ज्ञान नहीं है; सम्यक्त्व सनिह" जानपना ही ज्ञान है । ग्यारह अंग क�ठाग्र हों परन्"ु सम्यक्त्व न हो "ो अज्ञान है ।.....सम्यक्त्वीको "ो मोक्षके अनन्" अ"ीजिन्द्रय सुखका अंश प्राप्" हुआ हो"ा है । वह अंश मोक्षसुखके अनन्"वें भाग होने पर भी अनन्" है ।’’ इस प्रकार सम्यग्दश@नका अद्भ"ु माहात्म्य अनेक सम्यक् युशिक्तयोंसे, अनेक प्रमाणोंसे और अनेक सचोट दृष्टां"ों द्वारा वे लोगोंके गले उ"ार"े थे । उनका निप्रय एवं मुख्य निव\य सम्यग्दश@न था ।

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गुरुदेवश्रीको समयसारप्ररूनिप" यथाथ@ वस्"ुस्वभाव और स्वानुभूनि"प्रधान सच्चा दिदगम्बर निनग्रUथमाग@ दीघ@ कालसे अन्"रमें सत्य लग"ा था और बाह्यमें वेश "था आचार णिभन्न थे,—यह निव\म स्थिस्थनि" उन्ह ें खटक"ी थी; इसशिलए उन्होंन े सोनगढ़म ें योग्य समय पर—निव.सं. 1991 के चैत्र शुक्ला 13 (महावीरजयन्"ी)के दिदन—‘परिरव"@न’ निकया, स्थानकवासी सम्प्रदायका त्याग निकया, ‘अबसे म ैं आत्मसाधक दिदगम्बर जैनमागा@नुयायी ब्रह्मचारी हँू’ ऐसा घोनि\" निकया । ‘परिरव"@न’के कारण प्रच�ड निवरोध हुआ, "थानिप उन निनडर और निनसृ्पह महात्मान े उसकी कोई परवाह नहीं की । हजारोंकी मानवमेदनीमें गज@"ा वह अध्यात्मकेसरी सत्के शिलए जग"से निन"ान्" निनरपेक्ष होकर सोनगढ़के एकान्" स्थानमें जा बैठा । प्रारम्भमें "ो खलबली मची; परन्" ु गुरुदेवश्री कादिठयावाड़के स्थानकवासी जैनोंके हृदयम ें बस गय े थे, गुरुदेवश्रीके प्रनि" वे सब मुग्ध हो गये थे, इसशिलए ‘गुरुदेवने जो निकया होगा वह समझकर ही निकया होगा’ ऐसा निवचारकर धीरे-धीरे लोगोंका प्रवाह सोनगढ़की ओर बहने लगा । सोनगढ़की ओऱ बह"ा हुआ सत्संगाथvजनोंका प्रवाह दिदन-प्रनि"दिदन वेगपूव@क बढ़"ा ही गया ।

समयसार, प्रवचनसार, निनयमसारादिद शास्त्रों पर प्रवचन दे"े हुए गुरुदेवश्रीने प्रत्येक शब्दमें बड़ी गहन"ा, सूक्ष्म"ा और नवीन"ा निनकल"ी थी । जो अनन्" ज्ञान एवं आनन्दमय पूण@ दशा प्राप्" करके "ीथUकरदेवन े दिदव्यध्वनिन द्वारा वस्"ुस्वरूपका निनरूपण निकया, उस परम पनिवत्रदशाका सुधास्यन्दी स्वानुभूनि"स्वरूप पनिवत्र अंश अपने आत्मामें प्रगट करके सद्गरुुदेवने अपनी निवकशिस" ज्ञानपया@य द्वारा शास्त्रोंमें निवद्यमान गूढ़ रहस्य समझाकर मुमुक्षुओं पर महान-महान उपकार निकया ।

गुरुदेवश्रीकी वाणी सुनकर सैकड़ों शास्त्रोंके अभ्यासी निवद्वान भी आश्चय@चनिक" हो जा"े थे और उल्लशिस" होकर कह"े थे : ‘गुरुदेव ! आपके प्रवचन अपूव@ हैं; उनका श्रवण कर"े हुए हमें "ृन्विप्" नहीं हो"ी । आप कोई भी बा" समझाओ उसमेंसे हमें नया नया ही जाननेको मिमल"ा है । नव "त्वका स्वरूप या सम्यक्त्वका स्वरूप, निनश्चय-व्यवहारका स्वरूप या व्र"-"प-निनयमका स्वरूप, उपादान-निनमिमत्तका स्वरूप या साध्य-साधनका स्वरूप, द्रव्यानुयोगका स्वरूप या चरणानुयोगका स्वरूप, मुनिनदशाका स्वरूप या केवलज्ञानका स्वरूप—जिजस जिजस निव\यका स्पष्टीकरण आपके श्रीमुखसे हम सुन"े ह ैं उसमें हमें अपूव@ भाव दृमिष्टगोचर हो"े ह ैं । आपके प्रत्येक शब्दमें वी"रागदेवका हृदय प्रगट हो"ा है ।’

गुरुदेव बारम्बार कह"े थे : ‘समयसार सवqत्तम शास्त्र है ।’ समयसारकी बा" कर"े हुए उन्हें अनि" उल्लास आ जा"ा था । समयसारकी प्रत्येक गाथा मोक्ष देनेवाली है ऐसा वे कह"े थ े । भगवान कुन्दकुन्दाचाय@देवके सव@ शास्त्रों पर उन्ह ें अपार प्रेम था । ‘भगवान कुन्दकुन्दाचाय@देवका हम पर महान उपकार है, हम उनके दासानुदास हैं’—ऐसा वे अनेकों बार भशिक्तभीन े अन्"रस े कह" े थ े । भगवान कुन्दकुन्दाचाय@देव महानिवदेहक्षेत्रम ें सव@ज्ञवी"राग श्री सीमन्धरभगवानके समवसरणम ें गय े थ े और वहा ँ आठ दिदन रह े थे, उस निव\यम ें गुरुदेवको रंचमात्र भी शंका नहीं थी । श्री कुन्दकुन्दाचाय@देवके निवदेहगमनके सम्बन्धम ें व े अत्यन्" दृढ़"ापूव@क कई बार भशिक्तभीने हृदयसे पुकारकर कह"े थे निक—‘कल्पना म" करना, इन्कार म" करना, यह बा" ऐसी ही है; मानो "ब भी ऐसी है, नहीं मानों "ब भी ऐसी ही है; यथा"थ्य है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणशिसद्ध है’ । श्री सीमन्धरप्रभुके प्रनि" गुरुदेवको अनि"शय भशिक्तभाव था

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। कभी-कभी "ो सीमन्धरनाथके निवरहमें परम भशिक्तवं" गुरुदेवके नेत्रोंसे अश्रुधारा बह जा"ी थी ।

पूज्य गुरुदेव द्वारा अन्"रस े खोजा हुआ स्वानुभवप्रधान अध्यात्ममाग@—दिदगम्बर जैनधम@ ज्यों-ज्यों प्रशिसद्ध हो"ा गया त्यों-त्यों अमिधकामिधक जिजज्ञासु आकर्ति\#" हुए । गाँव-गाँवमें ‘दिदगम्बर जैन मुमुक्षुमंडल’ स्थानिप" हुए । सम्प्रदायत्यागसे उठा निवरोध-झंझावा" शान्" हो गया । हजारों स्थानकवासी श्वे"ाम्बर जैन "था सैकड़ों अजैन भी स्वानुभूनि"प्रधान वी"राग दिदगम्बर जैनधम@के श्रद्धालु हो गये । हजारों दिदगम्बर जैन रूदिढ़ग" बनिहल@क्षी प्रथा छोड़कर पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रवानिह" शुद्धात्म"त्त्वप्रधान अनेकान्"-सुसंग" अध्यात्म-प्रवाहम ें श्रद्धा-भशिक्त सनिह" सन्धिम्मशिल" हो गये । पूज्य गुरुदेवश्रीका प्रभावना उदय दिदन-प्रनि"दिदन अमिधकामिधक वृजिद्धग" हो"ा गया ।

गुरुदेवके मंगल प्र"ापसे सोनगढ़ धीरे-धीर े अध्यात्मनिवद्याका एक अनुपम केन्द्र—"ीथ@धाम बन गया । बाहरसे हजारों मुमुक्षु "था अनेक दिदगम्बर जैन, पस्थि�ड", त्यागी, ब्रह्मचारी पूज्य गुरुदेवश्रीका उपदेश लाभ लेन े हे" ु आन े लग े । "दुपरां", सोनगढ़म ें बहुमुखी धम@प्रभावनाके निवनिवध साधन यथावसर अस्तिस्"त्वम ें आ" े गय े :—निव.सं. 1994 म ें श्री जैन स्वाध्यायमंदिदर, 1997 म ें श्री सीमन्धरस्वामीका दिदगम्बर जिजनमजिन्दर, 1998 म ें श्री समवसरणमजिन्दर, 2003 म ें श्री कुन्दकुन्दप्रवचनमंडप, 2009 म ें श्री महावीर-कुन्दकुन्द दिदगम्बर जैन परमागममजिन्दर आदिद भव्य धमा@य"न निनर्मिम#" हुए । देश-निवदेशमें निनवास करनेवाले जिजज्ञासु पूज्य गुरुदेवश्रीके अध्यात्म"त्त्वोपदेशसे लाभान्विन्व" हो सकें इस हे"ु गुजरा"ी "था निहन्दी ‘आत्मधम@’ माशिसक पत्रका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । इसी बीच कुछ व\~ "क ‘सद्गरुुप्रवचनप्रसाद’ नामक दैनिनक प्रवचन-पत्र भी प्रकाशिश" हो"ा था । "दुपरां" समयसार, प्रवचनसार आदिद अनेक मूल शास्त्र "था निवनिवध प्रवचनग्रन्थ इत्यादिद अध्यात्मसानिहत्यका निवपुलमात्रामें—लाखोंकी संख्यामें—प्रकाशन हुआ । हजारों प्रवचन टेपरिरकाड@ निकये गये । इसप्रकार पूज्य गुरुदेवश्रीका अध्यात्म-उपदेश मुमुक्षुओंके घर-घरमें गूँजने लगा । प्रनि" व\@ ग्रीष्मावकाशमें निवद्याथvयोंके शिलए और श्रावणमासमें प्रौढ़ गृहस्थोंके शिलये धार्मिम#क शिशक्षणवग@ चलाये जा"े थे और आज भी चलाये जा"े हैं इसप्रकार सोनगढ़ पूज्य गुरुदेवश्रीके परम प्र"ापसे बहुमुखी धम@प्रभावनाका पनिवत्र केन्द्र बन गया ।

पूज्य गुरुदेवश्रीके पुनिन" प्रभावसे सौराष्ट्र-गुजरा" "था भार"व\@के अन्य प्रान्"ोंमें स्वानुभूनि"प्रधान वी"राग दिदगम्बर जैनधम@के प्रचारका एक अद्भ"ु अमिमट आन्दोलन फैल गया । जो मंगलकाय@ भगवान कुन्दकुन्दाचाय@देवने निगरनार पर वाद प्रसंग पर निकया था उसी प्रकारका, स्वानुभवप्रधान दिदगम्बर जैनधम@की सना"न सत्य"ाकी प्रशिसजिद्धका गौरवपूण@ महान काय@ अहा ! पूज्य गुरुदेवश्रीने श्वे"ाम्बरबहुल प्रदेशमें रहकर, अपने स्वानुभवमुदिद्र" सम्यक्त्वप्रधान सदुपदेश द्वारा हजारों स्थानकवासी शे्व"ाम्बरोंमें श्रद्धाका परिरव"@न लाकर, सहज"ासे "थानिप चमत्कारिरक प्रकारस े निकया । सौराष्ट्रम ें नामशे\ हो गय े आत्मानुभूनि"मूलक दिदगम्बर जैनधम@के—पूज्य गुरुदेवके प्रभावनायोगस े जगह-जगह हुए दिदगम्बर जैन मजिन्दर, उनकी मंगल प्रनि"�ाए ँ"था आध्यान्धित्मक प्रवचनों द्वारा हुए—पुनरुद्धारका युग आचाय@वर श्री नेमिमचन्द्र शिसद्धान्"चक्रव"vके मजिन्दरनिनमा@ण-युगकी याद दिदला"ा है । अहा ! कैसा अद्भ"ु आचाय@"ुल्य उत्तम प्रभावनायोग !

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सचमुच पूज्य गुरुदेव द्वारा इस युगमें एक समथ@ प्रभावक आचाय@ समान जिजनशासनोन्ननि"कर अद्भ"ु अनुपम काय@ हुए हैं ।

पूज्य गुरुदेवश्रीने दो—दो बार सहस्त्रामिधक निवशाल मुमुक्षु संध सनिह" पूव@, उत्तर, मध्य और दणिक्षण भार"के जैन "ीथ~की पावन यात्रा करके, भार"के अनेक छोटे-बड़े नगरोंमें प्रवचन दिदय े और नाइरोबी (अनि©का)का, नवनिनर्मिम#" दिदगम्बर जिजनमंदिदरकी प्रनि"�ाके निनमिमत्त प्रवास निकया—जिजसके द्वारा समग्र भार"में "था निवदेशोंमें शुद्धात्मदृमिष्टप्रधान अध्यात्मनिवद्याका खूब प्रचार हुआ ।

यह असाधारण धमqद्यो" स्वयमेव निबना—प्रयत्नके साहजिजक रीनि"स े हुआ । गुरुदेवश्रीन े धम@प्रभावनाके शिलए कभी निकसी योजनाका निवचार नहीं निकया था । वह उनकी प्रकृनि"म ें नहीं था । उनका समग्र जीवन निनजकल्याणसाधनाको समर्तिप#" था । उन्होंन े जो सुधाझर"ी आत्मानुभूनि" प्राप्" की थी, जिजन कल्याणकारी "थ्योंको आत्मसा"् निकया था, उनकी अणिभव्यशिक्त उनसे ‘वाह ! ऐसी वस्"ुस्थिस्थनि" !’ ऐसे निवनिवध प्रकारसे सहजभावसे उल्लासपूव@क हो जा"ी थी, जिजसका गहरा आत्माथ@प्रेरक प्रभाव श्रो"ाओंके हृदय पर पड़"ा था । मुख्य"ः इस प्रकार उनके द्वारा सहजरूपसे धमqद्यो" हो गया था । ऐसी प्रबल बाह्य प्रभावना होने पर भी प्ूज्य गुरुदेवश्रीको बाहरकी हिक#शिचत्मात्र रुशिच नहीं थी; उनका जीवन "ो आत्माणिभमुख था ।

पूज्य गुरुदेवश्रीका अन्"र सदा ‘ज्ञायक....ज्ञायक....ज्ञायक, भगवान आत्मा, धु्रव....धु्रव...धु्रव, शुद्ध...शुद्ध...शुद्ध, परम पारिरणामिमकभाव’ इस प्रकार तै्रकाशिलक ज्ञायकके आलम्बनभावस े निनरन्"र—जागृनि"म ें या निनद्रामें—परिरणमिम" हो रहा था । प्रवचनोंम ें और "त्त्वचचा@में वे ज्ञायकके स्वरूपका "था उसकी अनुपम मनिहमाका मधुर संगी" गा"े ही रह"े थे । अहो ! वे स्व"न्त्र"ाके और ज्ञायकके उपासक गुरुदेव ! उन्होंने मोक्षार्थिथ#योंको मुशिक्तका सच्चा माग@ ब"लाया !

अहा ! गुरुदेवश्रीकी मनिहमाका वण@न कहा ँ "क कर ें ! उनका "ो द्रव्य ही कोई अलौनिकक था । इस पंचमकालम ें उस महापुरु\का—आश्चय@कारी अद्भ"ु आत्माका—यहाँ अव"ार हुआ वह कोई महाभाग्यकी बा" है । उन्होंने स्वानुभूनि"की अपूव@ बा" प्रगट करके सारे भार"के जीवोंको जगाया ह ै । गुरुदेवश्रीका द्रव्य ‘"ीथUकरका द्रव्य’ था । इस भर"क्षेत्रमें पधारकर उन्होंने महान महान उपकार निकया है ।

आज भी पूज्य गुरुदेवश्रीके सानि"शय प्र"ापसे सोनगढ़का सौम्य शी"ल वा"ावरण आत्मार्थिथ#योंकी आत्मसाधनालक्षी आध्यान्धित्मक प्रवृणित्तओंके मधुर सौरभसे महक रहा है । पूज्य गुरुदेवश्रीके चरणकमलके स्पश@स े अनेक व\~ "क पावन हुआ ऐसा यह अध्यात्म"ीथ@धाम सोनगढ़—आत्मसाधना एव ं बहुमुखी धम@प्रभावनाका निनके"न—सदैव आत्मार्थिथ#योंके जीवन-पथको आलोनिक" कर"ा रहेगा ।

ह े परमपूज्य परमोपकारी कहानगुरुदेव ! आपके पुनी" चरणोंमें—आपकी मंगलकारी पनिवत्र"ाको, पुरु\ाथ@प्रेरक ध्येयनिन� जीवनको, स्वानुभूनि"मूलक सन्माग@दश@क उपदेशोंको और "थानिवध अनेकानेक उपकारोंको हृदयमें रखकर—अत्यन्" भशिक्तपूव@क हमारी भावभीनी वंदना हो ! आपके द्वारा प्रकाशिश" वीर-कुन्दप्ररूनिप" स्वानुभूनि"का पावन पथ जग"में सदा जयवन्" व"q ! जयवन्" व"q !

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अहो ! उपकार जिजनवरका, कुन्दका, ध्वनिन दिदव्यका;जिजनकेस कुन्दके ध्वनिनके दा"ा श्री कहानगुरुदेवका ।

फाल्गुन शुक्ला 7, श्री दिदगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिदर ट्रस्ट,निव.सं. 2041 सोनगढ़ (सौराष्ट्र)दिद. 27-2-1985

जब "क सामान्य "त्त्व—ध्रुव "त्त्व—ख्यालमें न आये, "ब "क अन्"रमें माग@ कहाँसे सूझे और कहाँस े प्रकट हो ? इसशिलए सामान्य "त्त्वको ख्यालम ें लेकर उसका आश्रय करना चानिहए । साधकको आश्रय "ो प्रारम्भसे पूण@"ा "क एक ज्ञायकका ही—द्रव्य-सामान्यका ही—ध्रुव "त्त्वका ही हो"ा है । ज्ञायकका—‘ध्रुव’का जोर एक क्षण भी नहीं हट"ा । दृमिष्ट ज्ञायकके शिसवा निकसीको स्वीकार नहीं कर"ा—ध्रुवके शिसवा निकसी पर ध्यान नहीं दे"ी; अशुद्ध पया@य पर नहीं, शुद्ध पया@य पर नहीं, गुणभेद पर नहीं । यद्यनिप साथ व"@"ा हुआ ज्ञान सबका निववेक कर"ा है, "थानिप दृमिष्टका निव\य "ो सदा एक ध्रुव ज्ञायक ही है, वह कभी छूट"ा नहीं है ।

पूज्य गुरदेवश्रीका ऐसा ही उपदेश है, शास्त्र, भी ऐसा ही कह"े हैं, वस्"ुस्थिस्थनि" भी ऐसी ही है ।

—बनिहनश्री चम्पाबनिहन

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कहानगुरु-मनिहमाद्रव्य सकळनी स्व"ंत्र"ा जगमांही गजावनहारा,वीरकशिथ" स्वात्मानुभूनि"नो पंथ प्रकाशनहारा;

—गुरुजी जन्म "मारो रे,जग"ने आनंद करनारो.

पावन-मधुर-अद्भ"ु अहो ! गुरुवदनथी अमृ" झया@,श्रवणो मळ्यां सद्भाग्यथी निनत्ये अहो ! शिचद्रसभया@;गुरुदेव "ारणहारथी आत्माथv भवसागर "या@,गुणमूर्ति"#ना गुणगण "णां स्मरणो हृदयमां रमी रह्यां.

स्वण@पुरे धमा@य"नो सौ गुरुगुणकी"@न गा"ां,स्खळ-स्थळमां ‘भगवान आत्म’ना भणकारा संभळा"ा;

–कण कण पुरु\ारथ प्रेरे,गुरुजी आ"म अजवाळे.

—बनिहनश्री चम्पाबेन

नमः श्री सद्गरुवे ।अहो ! देव-शास्त्र-गुरु मंगल हैं, उपकारी हैं । हमें "ो देव-शास्त्र-गुरुका दासत्व चानिहए ।पूज्य कहानगुरुदेवस े "ो मुशिक्तका माग@ मिमला ह ै । उन्होंन े चारों ओरस े मुशिक्तका माग@

प्रकाशिश" निकया है । गुरुदेवका अपार उपकार है । वह उपकार कैसे भूला जाय ?गुरुदेवका द्रव्य "ो अलौनिकक है । उनका श्रु"ज्ञान और वाणी आश्चय@कारी है ।परम-उपकारी गुरुदेवका द्रव्य मंगल है, उनकी अमृ"मयी वाणी मंगल है । वे मंगलमूर्ति"# हैं,

भवोदमिध"ारणहार हैं, मनिहमावन्" गुणोंसे भरपूर हैं ।पूज्य गुरुदेवके चरणकमलकी भशिक्त और उनका दासत्व निनरन्"र हो ।

—बनिहनश्री चम्पाबबनिहन

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ॐनमः परमात्मने

गुरुदेवश्रीके वचनामृत(पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीके प्रवचनोंमेंसे चुने गये)

नंदीश्वर जिजनालयमें उत्कीर्ण6

ॐ सहज शिचदानंद ।1।

निनश्चयदृमिष्टसे प्रत्येक जीव परमात्मस्वरूप ही है । जिजनवर और जीवमें अन्"र नहीं है । भले ही वह एकेजिन्द्रयका जीव हो या स्वग@का जीव हो । वह सब "ो पया@यमें है । आत्मवस्"ु स्वरूपसे "ो परमात्मा ही है । पया@यके ऊपरसे हटकर जिजसकी दृमिष्ट स्वरूपके ऊपर गई है वह "ो अपनेको भी परमात्मस्वरूप ही देख"ा है और प्रत्येक जीवको भी परमात्मस्वरूप देख"ा है । सम्यग्दृमिष्ट सव@ जीवोंको जिजनेश्वर जान"ा है और जिजनवरको जीव जान"ा है । अहा ! निक"नी निवशाल दृमिष्ट! अरे, यह बा" बैठ जाये "ो कल्याण हो जाये; परन्"ु ऐसी स्वीकृनि"को रोकनेवाले मिमथ्या मान्य"ारूपी गढ़ोंका पार नहीं है । यहाँ "ो कह" े ह ैं निक बारह अंगका सार यह ह ै निक आत्माको जिजनवर समान दृमिष्टम ें लेना, क्योंनिक आत्माका स्वरूप परमात्मा जैसा ही है । 2 ।

मैं एक अख�ड ज्ञायकमूर्ति"# हूँ, निवकल्पका एक अंश भी मेरा नहीं है—ऐसा

स्वाश्रयभाव रहे वह मुशिक्तका कारण है; और निवकल्पका एक अंश भी मुझे आश्रयरूप है—ऐसा पराश्रयभाव रहे वह बन्धका कारण है ।3।

*दश@नशुजिद्धसे ही आत्मशिसजिद्ध है ।4।

भवभ्रमणका अन्" लानेका सच्चा उपाय क्या? `द्रव्यसंयमसे ग्रीवक पायो,

निफर पीछो पटक्यो’, वहाँ क्या करना शे\ रहा?—माग@ कोई अलग ही है; आजकल "ो उलटेसे ही शुरूआ" की जा"ी है । यह निक्रयाका�ड मोक्षमाग@ नहीं है, परन्"ु पारमार्थिथ#क आत्मा "था सम्यग्दश@नादिदके स्वरूपका निनण@य करके स्वानुभव करना वह माग@ है;

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अनुभवम ें निवशे\ लीन"ा वह श्रावकमाग@ ह ै और उसम ें भी निवशे\ स्वरूपरमण"ा वह मुनिनमाग@ ह ै । साथम ें व"@" े बाह्य व्र"-निनयम "ो अपूण@"ाकी—कचासकी प्रगट"ा ह ै । अरेरे! मोक्षमाग@की मूल बा"में इ"ना बडा अन्"र पड गया है ।5।

पूण@"ाके लक्ष्यसे शुरूआ" ही सच्ची शुरूआ" है ।6।

समस्" शिसद्धान्"ोंके सारका सार "ो बनिहमु@ख"ा छोड़कर अन्"मु@ख होना है ।

श्रीमद ्न े कहा ह ै न!— उपजे मोह निवकल्पसे समस्" यह संसार, अं"मु@ख अवलोक"ें निवलय हो" नहिह # वार । ज्ञानीके एक वचनम ें अनन्" गम्भीर"ा भरी ह ै । अहो ! जो भाग्यशाली होगी उसे इस "त्त्वका रस आयेगा और "त्त्वके संस्कार गहरे उ"रेंगे ।7।

निनमिमत्तकी अपेक्षा ली जाये "ो बन्ध-मोक्ष दो पक्ष पड़"े हैं और उसकी अपेक्षा

न लेकर अकेला निनरपेक्ष "त्त्व ही लक्षमें शिलया जाये "ो स्वपया@य प्रकट हो"ी है ।8।

चमड़ा उ"ारकर जू"े बनवा दें "थानिप जिजस उपकारका बदला न दिदया जा सके ऐसा उपकार गुरु आदिदका हो"ा ह ै । उसके बदले उनके उपकारका लोप कर े वह "ो अनन्" संसारी है । निकसके पास श्रवण निकया जाये इसका भी जिजसे निववेक नहीं है वह आत्माको समझनेके योग्य नहीं है— पात्र नहीं ह ै । जिजनके लौनिकक न्याय-नीनि"का भी दिठकाना नहीं है ऐसे जीव शास्त्रोंका प्रवचन करें और जो सुनने जायें वे श्रो"ा भी पात्र नहीं हैं ।9।

भगवान आत्मा केवलज्ञानकी मूर्ति"# है और यह शरीर "ो जड़ धूल-मिमट्टी है; उसे

आत्माका स्पश@ ही कहा ँ है?—क्योंनिक सव@ पदाथ@ अपने द्रव्यमें अन्"म@ग्न अपने अनन्" धम~के चक्रको चूम"े हैं—स्पश@ कर"े हैं "थानिप वे परस्पर एक-दूसरेका स्पश@ नहीं कर"े । अहा! भगवान आत्मा अपनी शशिक्तयोंको "था पया@योंको स्पश@"ा ह ै परन्" ु परमाणु आदिदको या उसकी पया@योंको स्पश@ नहीं कर"ा । ज्ञायक आत्मा अपन े अनन्" गुणस्वभावोंको और उनकी निनम@ल पया@योंको चूम"ा है, स्पश@"ा है, परन्"ु उनके शिसवा शरीर, मन, वाणी, कम@ या स्त्री-पुत्र-परिरवार इत्यादिद निकन्हीं बाह्य पदाथ@ओंका कभी स्पश@ नहीं निकया है, स्पश@ कर"ा भी नहीं है । परसे निबलकुल णिभन्न ऐसे इस भगवान आत्मामें जिजसने अपनी दृमिष्ट स्थानिप" की है वह धमा@त्मा पुरु\ निनरन्"र निनःशंक व"@"ा हुआ एक ज्ञानस्वरूप निनज आत्माको ही अनुभव"ा है ।10।

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अख�ड द्रव्य और पया@य दोनोंका ज्ञान होनेपर भी अख�ड स्वभावकी ओर लक्ष रखना, उपयोगकी डोर अख�ड द्रव्यकी ओर ल े जाना, वह अन्"रम ें समभावको प्रकट कर"ा है । स्वाश्रय द्वारा बन्घका नाश करनेवाली जो निनम@ल पया@य प्रकट हुई उसे भगवान मोक्षमाग@ अथा@"् धम@ कह"े हैं ।11।

भशिक्त अथा@"् भजना । निकसे भजना? अपने स्वरूपको भजना । मेरा स्वरूप

निनम@ल एव ं निनर्तिव#कारी—शिसद्ध जैसा—है उसकी यथाथ@ प्र"ीनि" करके उस े भजना वही निनश्चय भशिक्त है, और वही परमाथ@ स्"ुनि" है । निनचली भूमिमकामें देव-शास्त्र-गुरुकी भशिक्तका भाव आये वह व्यवहार है, शुभराग है । कोई कहेगा निक यह बा" कदिठन लग"ी है । निकन्"ु भाई ! अनन्" धमा@त्मा क्षणम ें णिभन्न "त्त्वोंकी प्र"ीनि" करके स्वरूपम ें स्थिस्थर होकर—स्वरूपकी निनश्चय भशिक्त करके—मोक्ष गये हैं, व"@मानमें कुछ जा रह े ह ै और भनिवष्यमें अनन्" जीव उसी प्रकार जायेंगे । 12।

जिजसके ध्येयमें, रुशिचमें "था प्रेममें ज्ञायकभाव ही पड़ा है उसे शुभ निवकल्पमें या

अन्यत्र कहीं अटकना अच्छा नहीं लग"ा । अहा! अन्"र ज्ञायक स्वभावम ें जाननेकी उत्क�ठा ह ै । जिजस े बाहरका—आत्मस्वभावम ें नहीं ह ैं ऐस े जो पु�य-पापके भाव आत्मस्वभावमें नहीं हैं ऐसे जो पु�य-पापके भाव और उसका फलका—रस और प्रेम है उसे ज्ञायकस्वभावका पे्रम नहीं है और जिजसे आत्माके ज्ञायकभावका प्रेम लगा उसे पु�यके परिरणामसे लेकर सारा जग" प्रेमका निव\य नहीं है । अहा! ऐसे ज्ञायकभावका जिजसे रस है उसे उसकी प्रान्विप्"की निनरन्"र रुशिच एवं भावना रह"ी है । जिजसे बाहरका पे्रम है निक दुनिनया मुझए कैसे माने, दुनिनयामें कैसे मेरी प्रशिसजिद्ध हो, मुझमें अच्छा जानपना हो "ो दुनिनया मुझे बड़ा माने, उसे ज्ञायकस्वभावके प्रनि" रुशिच और पे्रम नहीं है । 13।

दो द्रव्यकी निक्रया णिभन्न ही है । जड़की निक्रया चे"न नहीं कर"ा, चे"नकी निक्रया

जड़ नहीं कर"ा । जो पुरु\ एक द्रव्यको दो निक्रयाए ँकर"ा माने वह मिमथ्यादृमिष्ट है, क्योंनिक दो द्रव्योंकी निक्रया एक द्रव्य कर"ा है ऐसा मानना वह जिजनका म" नहीं है इस जग"में वस्"ु है वह अपने स्वभावमात्र ही है । प्रत्येक वस्"ु द्रव्यसे, गुणसे "था पया@यसे परिरपूण@ स्व"ंत्र है । ऐसा होनेसे आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसशिलए वह स्वभावदशामें ज्ञानका ही क"ा@ है और निवभावदशामें अज्ञान, राग-दे्व\का क"ा@ है; परन्"ु परका क"ा@ "ो कभी भी नहीं हो"ा । परभाव (रागादिद निवकारी भाव) भी कोई अन्य द्रव्य नहीं करा"ा, क्योंनिक एक द्रव्यकी दूसरे द्रव्यमें नास्तिस्" है; "थानिप पया@यमें निवकार हो"ा है वह पुरु\ाथ@की निवपरी""ा अथवा निनब@ल"ास े हो"ा है, परन्" ु स्वभावम ें वह नहीं ह ै ऐसा ज्ञान होन े पर (क्रमशः) निवकारका नाश हो"ा है ।14।

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भगवानन े कहा ह ै निक पया@यदृमिष्टका फल संसार ह ै और द्रव्यदृमिष्टका फल वी"राग"ा—मोक्ष है । 15।

* साधक जीवकी दृनि9 *

अध्यात्ममें सदा निनश्चयनय ही मुख्य है; उसीके आश्रयसे धम@ हो"ा है । शास्त्रोंमें जहाँ निवकारी पया@योंका व्यवहारनयसे कथन निकया जाये वहाँ भी निनश्चयनयको ही मुख्य और व्यवहारनयको गौण करनेका आशय है—ऐसा समझना; क्योंनिक पुरु\ाथ@ द्वारा अपनेमें शुद्धपया@य प्रकट करने अथा@" ् निवकारी पया@य टालनेके शिलये सदा निनश्चयनय ही आदरणीय है; उस समय दोनों नयोंका ज्ञान हो"ा है परन्"ु धम@ प्रकट करनेके शिलए दोनों नय कभी आदरणीय नहीं है । व्यवहारनयके आश्रयसे कभी धम@ अंश"ः भी नहीं हो"ा, परन्"ु उसके आश्रयसे "ो राग-दे्व\के निवकल्प ही उठ"े हैं ।

छहों द्रव्य, उनके गुण और उनकी पया@योंके स्वरूपका ज्ञान करनेके शिलए कभी निनश्चयनयकी मुख्य"ा और व्यवहारनयकी गौण"ा रखकर कथन निकया जा"ा है, और व्यवहारनयको मुख्य करके "था निनश्चयनयको गौण रखकर कथन निकया जा"ा है; स्वयं निवचार करे उसमें भी कभी निनश्चय-नयकी मुख्य"ा और कभी व्यवहारनयकी मुख्य"ा की जा"ी है; अध्यात्मशास्त्रमें भी जीवकी निवकारी पया@य जीवका अनन्य परिरणाम है—ऐसा व्यवहारनयसे कहनेमें–समझनेम ें आ"ा है; परन्" ु वहा ँ प्रत्येक समय निनश्चयनय एक ही मुख्य "था आदरणीय है ऐसा ज्ञानिनयोंका कथन है । शुद्ध"ा प्रकट करनेके शिलए कभी निनश्चयनय आदरणीय है और कभी व्यवहारनय आदरणीय है—ऐसा मानना वह भूल है । "ीनों काल अकेले निनश्चयनयके आश्रयसे ही धम@ प्रगट हो"ा है ऐसा समझना ।

साधक जीव प्रारम्भस े अन्" "क निनश्चयकी ही मुख्य"ा रखकर व्यवहारको गौण ही कर" े जा" े हैं, इसशिलए साधकदशाम ें निनश्चयकी मुख्य"ाके बलस े साधकको शुद्ध"ाकी वृजिद्ध ही हो"ी जा"ी है और अशुद्ध"ा टल"ी ही जा"ी है । इस प्रकार निनश्चयकी मुख्य"ाके बलसे पूण@ केवलज्ञान होने पर वहाँ मुख्य-गौणपणा नहीं हो"ा और नय भी नहीं हो"े । 16।

अनन्" गुणस्वरूप आत्मा, उसके एकरूप स्वरूपको दृमिष्टम ें लेकर, उसे

(आत्माको) एकको ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र"ाका प्रयत्न करना ही सव@ प्रथम शान्विन्"–सुखका उपाय है । 17।

समयसारम ें श्री कुन्दकुन्दाचाय@देवन े मात्र अध्यात्मरस भरा ह ै । उन्हींकी

परम्परास े इन योगसार "था परमात्मप्रकाश आदिद अध्यात्मशास्त्रोंकी रचना हुई ह ै । समयसारादिदकी टीका द्वारा अध्यात्मके रहस्य खोलकर अमृ"के स्रो" प्रवानिह" करनेवाले

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श्री अमृ"चंद्रसूरिर पुरु\ाथ@शिसजिद्धयुपायम ें कह" े ह ैं निक आत्माका निनश्चय सो सम्यग्दश@न, आत्माका ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान और आत्मामें निनश्चलस्थिस्थनि" सो सम्यक्चारिरत्र—ऐसे रत्नत्रय वह मोक्षमाग@ है और वह आत्माका स्वभाव ही है, उससे बन्धन नहीं हो"ा । बन्धन "ो रागसे हो"ा है; रत्नत्रय "ो रागरनिह" हैं, उनसे कम@बन्ध नहीं हो"ा, वे "ो मोक्षके ही कारण हैं, इसशिलय े मुमुक्षुजन अं"मु@ख होकर ऐसे मोक्षमाग@का सेवन करो और परमानन्दरूप परिरणमो । आज ही आत्मा अनन्"गुणधाम ऐसे स्वयंका अनुभव करो । 18।

सम्यग्दश@न प्रगट करनेके शिलए—आत्माका अनुभव करनेके शिलए प्रथम क्या

करें? प्रथम श्रु"ज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव निनज आत्माका निनण@य करना ।प्रत्येक जीव सुखकी इच्छा रख"ा है; "ो पूण@ सुख निकसने प्रगट निकया है, वह

पुरु\ कौन है, उसकी पनिहचान करना और उस पूण@ पुरु\ने सुखका स्वरूप क्या कहा है उसे जानना । उस सव@ज्ञपुरु\की कही हुई वाणी वह आगम है । इसशिलए प्रथम आगममें आत्माके सुखका स्वरूप क्या कहा है वह गुरुगमसे बराबर जानकर, उसका अवलम्बन करके ज्ञानस्वभाव आत्माका निनण@य करना । निनण@य वह पात्र"ा है और आत्माका अनुभव वह उसका फल है । ऐसा निनण@य करनेकी जहाँ रुशिच हुई वहाँ अन्"रमें क\ायका रस मन्द पड़ ही जा"ा है । क\ायका रस मन्द पडे़ निबना इस निनण@यमें नहीं पहुँचा जा सक"ा ।

प्रथम श्रु"ज्ञानका अवलम्बन करना—उसमें सच्चे आगम कौनसे ह ैं ? उसका कथन करनेवाला पुरु\ कौन ह ै ? इत्यादिद सब निनण@य करना आ जा"ा है । ज्ञानस्वरूप आत्माका निनण@य करनेमें सच्चे देव-शास्त्र-गुरुका निनण@य करना आदिद सब साथ आ जा"ा है ।19।

भर" चक्रव"v जैस े धमा@त्मा भी भोजनके समय रास्" े पर आकर निकन्हीं

मुनिनराजके आगमनकी प्र"ीक्षा कर" े थे, और मुनिनराज पधारन े पर परम भशिक्तसे आहारदान दे"े थे । अहा ! मानों आंगनमें कल्पवृक्ष फला हो, उससे भी निवश\े आनन्द धमा@त्माको मोक्षमाग@साधक मुनिनराजको अपन े आँगनम ें देखकरहो"ा ह ै । स्वयंको रागरनिह" चै"न्यस्वभावकी दृमिष्ट है और सव@संगत्याग"की भावना है वहाँ साधक गृहस्थको ऐसे शुभभाव आ"े हैं । उस शुभरागकी जिज"नी मया@दा है उ"नी वह जान"ा है । अन्"रका मोक्षमाग@ "ो रागसे पार चै"न्यस्वभावके आश्रयसे परिरणम"ा है । श्रावकके व्र"ोंमें मात्र शुभरागकी बा" नहीं है । जो शुभराग है उसे "ो जैन शासनमें पु�य कहा है और उस समय श्रावकको स्वभावके आश्रयसे जिज"नी शुद्ध"ा व"@"ी है उ"ना धम@ है; वह परमाथ@व्र" है और वह मोक्षका साधन है—ऐसा जानना । 20।

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वस्"ुस्थिस्थनि"की अचशिल" मया@दाको "ोड़ना अशक्य होनेके कारण वस्"ु द्रव्यान्"र या गुणान्"ररूपसे संक्रमणको प्राप्" नहीं हो"ी; गुणान्"रमें पया@य भी आ गई । वस्"ु अपने आप स्व"न्त्र पलटे, अपनी शशिक्तसे पलटे, "ब स्व"न्त्ररूपसे उसकी पया@य खिखल"ी है । कोई जबरन् पलट नहीं सक"ा या कोई जबरन् समझाकर उसकी पया@यको खिखला नहीं सक"ा । यदिद निकसीको जबरन ् समझाया जा सक"ा हो "ो नित्रलोकनाथ "ीथUकरदेव सबको मोक्षमें न ले जायें ! परं"ु "ीथUकरदेव निकसीको मोक्षमें नहीं ले जा"े । स्वयं समझे "ब अपनी मोक्षपया@य खिखल"ी है ।21।

स्वरूपमें लीन"ाके समय पया@यमें भी शान्विन्" और वस्"ुमें भी शान्विन्", आत्माके

आनन्दरसमें शान्विन्", शान्विन्" और शान्विन्"; वस्"ु और पया@यमें ओ"प्रो" शान्विन्" । रागमिमणिश्र" निवचार था वह खेद छूटकर पया@यम ें और वस्"ुम ें सम"ा, सम"ा और सम"ा; व"@मान पया@यमें भी सम"ा और त्रैकाशिलक वस्"ुमें भी सम"ा । आत्माका आनन्दरस बाहर और भी"र सव@ प्रकार प्रसु्फदिट" हो जा"ा है; आत्मा निवकल्पके जालको लाँघकर आनन्दरसरूप ऐसे अपने स्वरूपको प्राप्" हो"ा है । 22।

पैसा रहना या नहीं रहना वह अपने हाथकी बा" नहीं है । जब पु�य पलट"ा है

"ब दुकान जल जा"ी है, बीमा कम्पनी टूट जा"ी है, पुत्री निवधवा हो जा"ी है आदिद सब सुनिवधाए ँएकसाथ पलट जा"ी हैं । कोई कहे निक ऐसा "ो कभी-कभी हो"ा है न ? अरे ! पु�य पलटे "ो सव@ प्रसंग पलटनेमें देर नहीं लग"ी । परद्रव्यको कैसे रहना वह "ेरे हाथकी बा" ही नहीं है न । इसशिलए सदा-स्थायी सुखनिनधान निनज आत्माकी पनिहचान करके उसमें स्थिस्थर हो जा । 23 ।

अहा ! सन्" आत्माका सुन्दर एकत्व-निवभक्त स्वरूप ब"ला"े हैं । अपूव@ प्रीनि"

लाकर वह श्रवण करने योग्य ह । जग"का परिरचय छोड़कर, पे्रमसे आत्माका परिरचय करके भी"र उसका अनुभव करने योग्य है । ऐसे अनुभवमें परम शान्विन्" प्रकट हो"ी है और अनादिदकी अशान्विन्" मिमट जा"ी है । आत्माके ऐसे स्वभावका श्रवण-परिरचय-अनुभव दुल@भ है, परन्"ु व"@मानमें उसकी प्रान्विप्"का सुलभ अवसर आया है । इसशिलए हे जीव ! दूसरा सब भूलकर "ू अपने शुद्धस्वरूपको लक्ष्यमें ले और उसमें निनवास कर । यही करने योग्य है । 24।

श्री कुन्दकुन्दाचाय@देव जैसे वी"रागी सन्"के स्वानुभवके आनन्दमय प्रसादरूप

यह ‘समयसार’ शास्त्र है; इसकी मनिहमा अद्भ"ु, अशिचन्त्य और अलौनिकक है । अहो ! यह समयसार "ो अशरीरीभाव ब"लानेवाला शास्त्र है; इसके भाव समझनेस े अशरीरी शिसद्धपदकी प्रान्विप्" हो"ी है । कुन्दकुन्दप्रभुकी "ो क्या बा" ! परन्"ु अमृ"चन्द्रआचाय@देवने

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भी टीकामें आत्माकी अनुभूनि"के अगाध गम्भीरभाव खोलकर जग" पर महान उपकार निकया है । मोक्षका मूलमाग@ इन सन्"ोंने जग"समक्ष प्रशिसद्ध निकया है ।....चै"न्यके कपाट खोल दिदये हैं । 25।

दयाधम@ माने क्या ? आत्मा शुद्ध ज्ञानानन्द स्वभावी, नित्रकाल वी"रागस्वभावी

—दयास्वभावी प्रभु है; उसमें अन्"दृ@मिष्ट करनेसे, पया@यम ें रागादिदकी उत्पणित्त न होकर, चै"न्यकी निनम@ल परिरणनि"—वी"राग परिरणनि"—उत्पन्न होना सो दयाधम@ ह ै । वह आत्मरूप है, आत्माके स्वभावरूप है । ऐसा दयाधम@ सम्यग्दृमिष्टको हो"ा है, अज्ञानीको नहीं हो"ा ।

निवकल्पके कालमें सम्यग्दृमिष्टको परकी रक्षा करनेका निवकल्प कदाशिच"् हो"ा है, "थानिप उस निवकल्पमें ‘म ैं परकी रक्षा करनेवाला हूँ’—ऐसा जान"ा ह ै निक पर जीवका जीवन "ो उसकी योग्य"ासे उसकी आयुके कारण है, उसमें मेरा कुछ भी क"@व्य नहीं है; मैं "ो निनमिमत्तमात्र हूँ । अहा ! धमv पुरु\ "ो परके जीवनसमयमें अपनेको जो परदयाका निवकल्प हुआ और योगकी निक्रया हुई उसका भी मात्र ज्ञा"ा रह"ा है, क"ा@ नहीं हो"ा, "ो निफर परके जीवनका क"ा@ वह कैसे होगा ? भाई ! मैं परकी दया पाल सक"ा हँू—ऐसी मान्य"ा मिमथ्यात्व एवं अज्ञानभाव है, वह दीघ@ संसारका कारण है । भाई ! वी"रागमाग@की ऐसी बा" सव@ज्ञ परमेश्वरके शासनके शिसवा अन्यत्र कही नहीं है । 26।

जग"में जो कुछ सुन्दर"ा हो, जो कुछ पनिवत्र"ा हो, वह सब आत्मामें भरी है ।

श्री कुन्दकुन्दाचाय@देवने समयसारमें कहा है :—एकत्व-निनश्चयगत समय सव6त्र सुन्दर लोकमें ।उससे बने बन्धनकथा जु निवरोधिधनी एकत्वमें ।।

—ऐसे सुन्दर आत्माको अनुभवम ें लेनेस े उसके सव@ गुणोंकी सुन्दर"ा और पनिवत्र"ा एकसाथ प्रकट हो"ी है । प्रत्येक समयकी पया@यमें अनन्" गुणोंका स्वाद एकसाथ है; वे अनुभवमें एकसाथ समा"े हैं; परन्"ु निवकल्प करके एक-एक गुणकी निगन"ी द्वारा आत्माके अनन्"गुणोंको पकड़ना चाह े "ो अनन्"कालमें भी पकड़में नहीं आयेंगे । एक आत्माम ें उपयोग लगानेस े उसम ें उसके अनन्"गुणोंकी पया@य ें निनम@लरूपस े अवश्य अनुभवमें आ"ी हैं । हे भाई ! एसे अनुभवकी अणिभला\ा और उत्साह कर । बाहरकी "था निवकल्पकी अणिभला\ा छोड दे, क्योंनिक उसस े चै"न्यके गुण पकड़म ें नहीं आ" े । उपयोगको—रुशिचको बाहरसे समेटकर निनश्चलरूपसे अन्"रमें लगा, जिजससे "ुझे "त्क्षण निवकल्प टूटकर अ"ीजिन्द्रय आनन्द सनिह" अनन्"गुणस्वरूप निनज आत्माका अनुभव होगा । 27 ।

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रागके निवकल्पसे खस्थि�ड" हो"ा था वह जीव स्वरूपका निनण@य करके भी"र स्वरूपमें स्थिस्थर हुआ वहाँ जो ख�ड हो"ा था वह रुक गया और अकेला आत्मा अनन्" गुणोंसे भरपूर आनन्दस्वरूप रह गया । मैं शुद्ध हँू, मैं अशुद्ध हँू, मैं बद्ध हँू, मैं अबद्ध हूँ—ऐसे निवकल्प थे वे छूट गये और जो अकेला आत्म"त्त्व रह गया उसका नाम सम्यग्दश@न, सम्यग्ज्ञान "था वही समयसार है । समयसार सो यह पन्ने नहीं, अक्षर नहीं, वे "ो जड़ हैं । आत्माके आनन्दमें लीन"ा ही समयसार है । आत्मस्वरूपका बराबर निनण@य करके निवकल्प छूट जायें, पश्चा" ् अनन्"गुणसामथ्य@स े भरपूर अकेला रहा जो निनज शुद्धात्म"त्त्व वही समयसार है ।28।

संसारमें पु�यकी प्रधान"ा है और धम@में गुणकी प्रधान"ा है । इसशिलए ज्ञानी

पु�यसे दूर रहकर उसमें स्वामिमत्वरूपसे एकमेक न होकर निनसृ्पहरूपसे जान"ा है, और अज्ञानी उसमें "ल्लीन हो"ा है । पु�य एक "त्व है, परन्"ु उससे ज्ञानी नहीं हुआ जा"ा, उससे आत्माका निह" नहीं हो"ा । जो जीव पु�यवैभव, यशःकीर्ति"# पर देख"ा ह ै वह, जीव-अजीवके लक्षणकी णिभन्न"ा नहीं समझनेसे अज्ञानी है ।

प्रवचनसारम ें कहा ह ै निक पु�य और पाप दोनों, आत्माके धम@ नहीं होनेसे, निनश्चयसे समान ही हैं—

र्ण निह मण्र्णदिद जो एवं र्णस्तिC निवसेसो धिD पुण्र्णपावार्णं ।हिहंडदिद घोरमपारं संसारं मोहसंछण्र्णो ।।ननिह मानतो ए रीत पुण्ये पापमां न निवशेष छे,ते मोहथी आच्छन्न घोर अपार संसारे भमे.

जिजसप्रकार सुवण@की बेड़ी और लोहेकी बेड़ी दोनों अनिवश\ेरूपसे बाँधनेका ही काय@ कर"ी हैं, उसीप्रकार पु�य और पाप दोनों अनिवशे\रूपसे बन्धन ही हैं । जो जीव पु�य और पापका अनिवशे\पना (–समानपना) कभी नहीं मान"ा, उसको इस भयंकर संसारमें परिरभ्रमणका कभी अन्" नहीं आ"ा ।

ज्ञानीको निह"-अनिह"का यथाथ@ निववेक होनेसे, जो भी पु�य-पापके संयोग हैं उनका वह मात्र ज्ञा"ा रह"ा है । चाहे जैसे संयोग हों परन्"ु ज्ञानी निनदq\रूपसे उन्हें जान"ा रह"ा है । 29।

शुद्ध चै"न्य ज्ञायकप्रभुकी दृमिष्ट, ज्ञान "था अनुभव वह साधकदशा है । उससे

पूण@ साध्यदशा प्रकट होगी । साधकदशा है "ो निनम@ल ज्ञानधारा, परन्"ु वह भी आत्माका मूल स्वभाव नहीं है; क्योंनिक वह साधनामय अपूण@ पया@य है । प्रभु ! "ू पूणा@नन्दका नाथ—सस्थिच्चदानंद प्रभु—आत्मा ह ै न ? पया@यमें रागादिद भले हों, परन्"ु वस्"ु मूलस्वरूपसे

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ऐसी नहीं ह ै । उस निनज पूणा@नन्द प्रभुकी साधना—परमानन्दरूपम ें एकाग्र"ारूप साधकदशाकी साधना—ऐसी कर निक जिजससे "ेरा साध्य—मोक्ष—पूण@ हो जाए । 30।

इच्छाका निनरोध करके स्वरूप—स्वभावकी स्थिस्थर"ाको भगवान ‘"प’ कह"े हैं

। स्वरूपमें निवश्रान्विन्"रूप चै"न्यका—ज्ञायकका निनस्"रंग प्र"पन होना, दैदीप्यमान होना वह "प ह ै । सम्यग्दश@न होनेके पश्चा" ् अक\ाय स्वभावके बलस े आहारादिदकी इच्छा टूटकर स्वरूपमें स्थिस्थर"ा हो वह "प है । भी"र जहाँ ऐसी स्थिस्थनि" हो वहाँ, बीचमें अशुभमें न जानेके शिलये, अनशनादिद बारह प्रकारके शुभभावोंको "प कहा है वह उपचारसे ह ै । उसमें जो शुभराग रहा है वह गुणकारी—निनज@राका कारण—नहीं है । पु�य-पाप रनिह" स्वभावके बलसे शुद्ध"ाकी वृजिद्ध और थोडी़-थोडी ़ रागकी हीन"ा होना वह निनज@रा ह ै । ‘"पसा निनज@रा च’ ऐसा श्री उमास्वामी-आचाय@देवने "त्त्वाथ@सूत्रमें कहा है; उसका अथ@ भोजनका त्याग सो "पश्चया@ नहीं है, परन्"ु स्वभावमें रमण"ा होनेपर भोजन सहज ही छूट जाए वह "प है । ऐसा "प जीवने अनादिद कालमें पहले कभी निकया नहीं है ।

‘मैं अख�डानंद परिरपूण@ ज्ञायक"त्त्व हूँ’ इसप्रकार स्वभावके लक्ष्यसे स्थिस्थर हुआ वहाँ राग छूटनेसे, रागमें निनमिमत्त जो शरीर उसके ऊपरका लक्ष्य सहज ही छूट जा"ा है और शरीरका लक्ष्य छूटनेसे आहारादिद भी छूट जा"े हैं । इसीप्रकार स्वभावके भान सनिह" भी"र शान्विन्"पूव@क स्थिस्थर हुआ वही "पश्चया@ ह ै । स्वभावके भान निबना ‘इच्छाको रोकँू, त्याग करँू, ऐसा कहे, निकन्" ु भान निबना वह निकसके आधारस े त्याग करेगा? निकसमें जाकर स्थिस्थर होगा ? वस्"ुस्वरूप "ो यथाथ@रूपसे समझा नहीं है ।

आत्माम ें रोटी आदिद निकन्हीं भी जड़पदाथ~का ग्रहण-त्याग नहीं है, परका निकसीप्रकार पकड़ना-छोड़ना नहीं हैं । मैं निनरालम्बी ज्ञायकस्वभावी हूँ ऐसी श्रद्धाके बलसे भी"र स्वरूपमें एकाग्र होनेपर आहारादिदका निवकल्प छूट जाए सो "प है और अन्"रकी लीन"ामें जो आनन्द वह "पश्चया@का फल है । 31।

प्रवचनसार और समयसारम ें भगवान श्री कुन्दकुन्दाचाय@देव "था श्री

अमृ"चंद्राचाय@देवका अन्"ना@द है निक हम जैसा कह"े हैं वैसा ही वस्"ुका स्वरूप है और वह सव@ज्ञके घरकी बा" हम स्वकीय अनुभवसे कह"े हैं । इस स्वरूपके समझने, श्रद्धा करनेसे एक-दो भवमें अवश्य मोक्ष हो"ा है—इसप्रकार अप्रनि"ह" भावकी बा" की है; निगर जानेकी बा" नहीं है । जो स्वरूप असीम है, अनन्" है, स्वाधीन है, उसका भी"रसे यथाथ@ निनण@य होनेके बाद निफर क्यों निगरेगा? जिजसभावसे पूण@की श्रद्धा की है वही भाव (स्वानुभव) समू्पण@ निनम@ल आत्मपद प्रदान कर"ा है । 32।

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जग"में अमिधक"र ऐसी भ्रामक मान्य"ाए ँप्रचशिल" ह ैं निक क"ा@के निबना यह जग" नहीं बन सक"ा, एक आत्मा दूसरेके जीवन-मरण, सुख-दुःख, उपकार-अपकार कर सक"ा है, आत्माकी पे्ररणासे शरीर चल-निफर, बोल सक"ा है, कम@ आत्माको हैरान कर"े हैं, निकसीके आशीवा@दसे दूसरेका कल्याण हो"ा है और श्रापसे अकल्याण हो"ा है, देव-गुरुकी कृपासे मोक्षकी प्रान्विप्" हो जा"ी है, हम बराबर सम्भाल रखें "ो शरीर अच्छा रह सक"ा है और बराबर ध्यान न रखें "ो शरीर निबगड़ जा"ा है, कुम्हार घड़ा बना सक"ा है, स्वण@कार गहने बना सक"ा है आदिद । परन्"ु ‘अन्य जीवोंका निह"ानिह" मैं ही कर"ा हूँ’ ऐसा जो मान"ा ह ै वह अपनेको अन्य जीवरूप मानका है, "था ‘पौद्गशिलक पदाथ~की निक्रयाको मैं ही कर"ा हूँ’ ऐसा जो मान"ा है वह अपनेको पुद्गलद्रव्यस्वरूप मान"ा है । इसशिलए ऐसी भ्रामक मान्य"ाए ँछोड़नेयोग्य हैं । ‘क"ा@ एक द्रव्य हो और उसका कम@ दूसरे द्रव्यकी पया@य हो’ ऐसा कदानिप नहीं हो सक"ा, क्योंनिक ‘जो परिरणमे वह क"ा@, परिरणाम वह कम@ और परिरणनि" वह निक्रया—यह "ीनों एक ही द्रव्यकी अणिभन्न अवस्थाए ँहैं’ । "था ‘एक द्रव्यका क"ा@ अन्य द्रव्य हो "ो दोनों द्रव्य एक हो जाय ें क्योंनिक क"ा@-कम@पना अथवा परिरणाम-परिरणामीपना एक द्रव्यमें ही हो सक"ा है । यदिद एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप हो जाये "ो उस द्रव्यका ही नाश हो जायेगा यह महान दो\ आयेगा । इसशिलए एक द्रव्यको अन्य द्रव्यका क"ा@ कहना उशिच" नहीं है’ । "था ‘वस्"ुकी शशिक्तया ँ परकी अपेक्षा नहीं रख"ीं’ । वस्"ुकी उस-उस समयकी जो-जो अवस्था (अव=निनश्चय+स्था=स्थिस्थनि" अथा@"् निनश्चयसे अपनेम ें अपनी स्थिस्थनि") वही उसकी व्यवस्था ह ै । इसशिलए उसकी व्यववस्था करनेके शिलए निकसी भी परपदाथ@की जरूर" नहीं पड़"ी । ऐसी जिजसकी मान्य"ा हो"ी है वह प्रत्येक वस्"ुको स्व"न्त्र "था परिरपूण@ स्वीकार कर"ा है । परद्रव्यके परिरणमनमें मेरे हाथ नहीं है और मेरे परिरणमनमें निकसी अन्य द्रव्यका हाथ नहीं है । ऐसा माननेसे परके क"ृ@त्वका अणिभमान सहज ही टल जा"ा है इसशिलए अज्ञानभावसे जो अनन्" वीय@ परमें रुका रह"ा था वह स्वोन्मुख हुआ वही अनन्" पुरु\ाथ@ है और उसीमें अनन्" शान्विन्" है ।—यह दृमिष्ट वही द्रव्यदृमिष्ट हुई और वही सम्यग्दृमिष्ट हुई । 33।

जो जीव पापकाय~में "ो उत्साहपूव@क धन लगा"ा है और धम@काय~में कंजूसी

कर"ा है उसे धम@का सच्चा पे्रम नहीं है । धम@पे्रमी गृहस्थ संसारकी अपेक्षा धम@काय~में अमिधक उत्साहसे व"@"ा है । 34।

ज्ञान एवं आनन्दादिद अनन्" पूण@ शशिक्तके भ�डार ऐसे सत्स्वरूप भगवान निनज

ज्ञायक आत्माके आश्रयम ें जानेपर निनर्तिव#कल्प सम्यग्दश@न हो"ा ह ै "ब उसके अनन्" गुणोंका अंश—आंशिशक शुद्ध परिरणमन—प्रकट हो"ा है और सव@ गुणोंकी पया@योंका वेदन हो"ा है । उसे श्रीमद ्राजचन्द्र ‘सव@गुणांश सो सम्यक्त्व’ और पं. टोडरमलजी रहस्यपूण@ शिचट्ठीमें ‘च"ुथ@ गुणस्थानमें आत्माके ज्ञानादिदक गुण एकदेश प्रकट हुए हैं’—ऐसा कह"े हैं

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। वह बा" बनिहनके बोलम ें (बनिहनश्री चम्पाबनिहनके वचनामृ"में) इस प्रकार आयी ह ै :—‘‘निनर्तिव#कल्प स्वानुभूनि"की दशाम ें आनन्दगुणकी आश्चय@कारी पया@य प्रकट होनेसे आत्माके सव@ गुणोंका (यथासम्भव) आंशिशक शुद्ध परिरणमन प्रगट हो"ा ह ै और सव@ गुणोंकी पया@योंका वेदन हो"ा है ।’’

भी"र आत्मा पूणा@नन्दका नाथ है उसकी जिजसे दृमिष्ट हुई है उसे ‘वस्"ु अन्"रमें परिरपूण@ है’ ऐसा अनुभव—वेदन होनेसे, अनन्" गुणोंका अंश"ः यथासम्भव व्यक्तपना होनेसे, वह सम्यक्त्वी है । 35।

भगवान सव@ज्ञके मुखारनिवन्दसे निनकली हुई वी"राग वाणी परम्परासे गणधरों

"था मुनिनयोंस े चली आ"ी ह ै । उस वी"रागी वाणीम ें कह े हुए "त्त्वोंका स्वरूप निवपरी"ाणिभनिनवे\ रनिह" जिजसे बैठ गया है उस भव्य जीवके भव नष्ट हो जा"े हैं । उसे भव रह"े ही नहीं । भगवानकी वाणी भवका घा" करनेवाली है; वह जिजसे बैठ जाए उस जीवकी काललस्ति£ भी पक गई है ।36।

भगवान श्री कुन्दकुन्दाचाय@देव समयप्राभृ"में कह"े ह ैं निक—मैं जो यह भाव

कहना चाह"ा हू ँ उस े अन्"रके आत्मसाक्षीके प्रमाण द्वारा प्रमाण करना; क्योंनिक यह अनुभवप्रधान शास्त्र है, उसम ें मेर े व"@" े हुए स्वात्मवैभव द्वारा कहा जा"ा ह ै । ऐसा कहकर छठवीं गाथा प्रारम्भ कर"े हुए आचाय@ भगवान कह"े हैं निक, ‘आत्मद्रव्य अप्रमत्त नहीं है और प्रमत्त नहीं है अथा@"् इन दो अवस्थाओंका निन\ेध कर"ा हुआ मैं एक अख�ड ज्ञा"ा हँू—यह अपनी व"@मान व"@"ी दशासे कह"ा हूँ’ । मुनिनपनेकी दशा अप्रमत्त और प्रमत्त इन दो भूमिमकाओंमें हजारों बार आ-जा कर"ी है, उस भूमिमकामें व"@"े महामुनिनका यह कथन है ।

समयप्राभृ" अथा@"् समयसाररूपी भेट । जैसे राजाको मिमलनेके शिलए भेट देनी पड़"ी है उसीप्रकार अपनी परम उत्कृष्ट आत्मदशास्वरूप परमात्मदशा प्रगट करनेके शिलए समयसार जो सम्यग्दश@न-ज्ञान-चारिरत्रस्वरूप आत्मा उसकी परिरणनि"रूप भेट देनेसे परमात्मदशा—शिसद्धदशा—प्रकट हो"ी है ।

इस शब्दब्रह्मरूप परमागमस े दशा@य े हुए एकत्वनिवभक्त आत्माको प्रमाण करना, स्वीकार ही करना, कल्पना नहीं करना । इसका बहुमान करनेवाला भी महाभाग्यशाली है । 37।

सत्समागमस े आत्माकी पनिहचान करके आत्मानुभव करो । आत्मानुभवका

ऐसा माहात्म्य है निक परिर\ह आनेपर भी जीवकी ज्ञानधारा निवचशिल" नहीं हो"ी । "ीनकाल और "ीनलोककी प्रनि"कूल"ाके �ेर एकसाथ सामने आकर खड़े हो जाय ें "थानिप मात्र

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ज्ञा"ारूप रहकर वह सब सहन करनेकी शशिक्त आत्माके ज्ञायकस्वभावकी एक समयकी पया@यम ें निवद्यमान ह ै । शरीरादिद एव ं रागादिदसे णिभन्नरूप जिजसने आत्माको जाना उसे वे परिर\होंके �ेर निकस्थि±च"् भी असर नहीं कर सक"े—चै"न्य अपनी ज्ञा"ृधारासे जरा भी निवचशिल" न हो और स्वरूपस्थिस्थर"ापूव@क दो घड़ी स्वरूपमें लीन"ा हो "ो पूण@ केवलज्ञान प्रकट करे, जीवन्मुक्तदशा हो और मोक्षदशा हो । 38।

अज्ञानी मान"ा है निक भगवान मुझे "ार देंगे—उबार देंगे; इसका "ो यह अथ@

हुआ निक मुझमें कुछ नहीं है, मैं "ो निबलकुल सत्त्वहीन हू ँ । इसप्रकार पराधीन होकर, साक्षा"् भगवानके सामने या उनकी वी"राग प्रनि"माके सामने रंक होकर, कह"ा है निक—भगवान ! मुझे भवबन्धनसे छुड़ा लेना, मुझे मुशिक्त देने । ‘दीन भयो प्रभुपद जपै, मुशिक्त कहाँसे होय ?’ रंक होकर कह"ा है निक हे प्रभ ु ! मुझे मुशिक्त दो; परन्"ु भगवानके पास कहाँ "ेरी मुशिक्त है ? "ेरी मुशिक्त "ो "ुझमें ही है । भगवान "ुझसे कह"े हैं निक प्रत्येक आत्मा स्व"ंत्र है, मैं भी स्व"न्त्र हूँ और "ू भी स्व"न्त्र है, "ेरी मुशिक्त "ुझमें ही है;—ऐसी पनिहचान कर । पनिहचान द्वारा नि"रनेका उपाय अपनेमें जाना "ब भगवानमें आरोप लगाकर निवनयसे कहा जा"ा है निक ‘भगवाने मुझे "ार दिदया’; वह शुभभाव है और वह व्यवहारसे स्"ुनि" है ।

शरीरादिद सो मैं हूँ, पु�य-पाप भाव भी मैं हँू—ऐसे मिमथ्या भाव छूटकर ‘मैं एक चै"न्यस्वभावसे अनन्"गुणकी मूर्ति"# हँू’ ऐसी प्र"ीनि"पूव@क भगवानकी ओरका जो शुभभाव हो वह व्यवहारसे स्"ुनि" है और ऐसी प्र"ीनि"पूव@क साथ व"@"ी हुई शुभभावसे णिभन्न जो स्वरूपावलम्बी शुजिद्ध है वह परमाथ@से स्"ुनि" है ।39।

शास्त्रमें व्यवहार और परमाथ@ दोनों प्रकारस े बा" आ"ी ह ै । शास्त्रम ें एक

जगह ऐसा कहा हो निक आत्मामें कभी कहीं राग-दे्व\ नहीं है; वहाँ ऐसा समझना निक वह कथन स्वभावकी अपेक्षासे द्रव्यदृमिष्टसे है । "था उसी शास्त्रमें दूसरी जगह ऐसा कहा हो निक राग-दे्व\ आत्मामें हो"े हैं; वहाँ ऐसा समझना निक वह कथन व"@मान अशुद्धदशाकी अपेक्षासे पया@यदृमिष्टसे ह ै । इसप्रकार वह कथन जैसे ह ै वैसा समझना, परन्"ु दोनोंकी खिखचड़ी करके समझना नहीं ।

"था शास्त्रमें ‘आत्मा निनत्य है’ ऐसा जो कथन है वह द्रव्यदृमिष्टकी अपेक्षासे है और आत्मा अनिनत्य है’ ऐसा जो कथन है वह पया@य-अपेक्षासे अवस्थादृमिष्टसे है । वे दोनों कथन जिजस अपेक्षापूव@क हैं उसे न जाने और आत्माको सव@था निनत्य या सव@था अनिनत्य मान ले "ो वह अज्ञानी है, एकान्"दृमिष्ट है । दोनों पक्षोंको जैसे हैं वैसे बराबर समझकर, शिचदानन्दस्वरूप भगवान आत्मा पर "था निवभावसे णिभन्न शुद्ध ज्ञायक है ऐसी जो दृमिष्ट वह परमाथ@दृमिष्ट—ध्रौव्यदृमिष्ट ह ै । क्षण-क्षण बदल"ी जो अवस्था उसपर दृमिष्ट लगाना वह व्यवहारदृमिष्ट—भंगदृमिष्ट—भेददृमिष्ट है । 40।

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यह समयसार शास्त्र आगमोंका भी आगम है; लाखों शास्त्रोंका निनचोड़ इसमें भरा बै; जैनशासनका यह स्"ंभ है; साधककी यह कामधेनु है; कल्पवृक्ष है; चौदह पूव@का रहस्य इसमें समाया हुआ है । इसकी प्रत्येक गाथा छठवें-सा"वें गुणस्थानमें झूल"े हुए महामुनिनके आत्म-अनुभवमेंसे निनकली है । 41।

आत्मा क"ा@ और जड़कम@की अवस्था उसका काय@—ऐसा कैसे हो सक"ा है ?

"था जड़कम@ क"ा@ और जीवके निवकारी परिरणाम उसका काय@—ऐसा भी कैसे हो सक"ा है ? नहीं हो सक"ा । कई लोगोंको बड़ा भ्रम है निक कम@के कारण निवकार हो"ा है, निकन्"ु ऐसा है ही नहीं । निनमिमत्तसे निवकार हो"ा है ऐसा शास्त्रमें जो कथन आ"ा है उसका अथ@ ‘निनमिमत्तसे आश्रय करनेसे निवकार हो"ा है’ ऐसा है । यदिद जीव पुद्गलमें नहीं है और पुद्गल जीवमें नहीं है, "ो निफर उनमें क"ा@कम@भाव कैसे हो सक"ा है ? इसशिलए जीव "ो ज्ञा"ा है वह ज्ञा"ा ही है, पुद्गलकम@का क"ा@ नहीं है; और पुद्गलकम@ है वह पुद्गल ही है, ज्ञा"ाका कम@ नहीं है । इसप्रकार प्रकट णिभन्न द्रव्य हैं "थानिप ‘मैं क"ा@ हूँ और यह पुद्गल मेरा कम@ है’ ऐसा अज्ञानिनयोंका यह मोह (–अज्ञान) क्यों नाच"ा है ? 42

‘मुझे बाहरका कुछ चानिहये’ ऐसा माननेवाला णिभखारी है । ‘मुझे "ो अपना

एक आत्मा ही चानिहए, दूसरा कुछ नहीं’ ऐसा माननेवाला बादशाह है । आत्मा अशिचन्त्य शशिक्तयोंका स्वामी है । जिजस क्षण जागे उसी क्षण आनन्दस्वरूप जागृ" ज्योनि" अनुभवमें आ सक"ी है । 43।

अन्"रके भावमेंसे—गहराईमेंसे भावना उठे "ो माग@ सरल हो । आत्मा भी"र

शुद्धचै"न्य है । अन्"रकी रुशिचसे उसकी भावना उठे और वस्"ुके लक्ष्य सनिह" पठन-मनन करे "ो माग@ मिमल"ा है । श्री मोक्षमाग@प्रकाशकमें आ"ा है निक, पठन सच्चा हो "थानिप जो मान और बड़ाईके शिलए पढ़"ा है उसका ज्ञान मिमथ्या है । उसका हे"ु जग"को सं"ुष्ट करने "था अपनी निवशे\"ा—बड़प्पन पो\ने हो "ो उसका सब पठन-शिचन्"न अज्ञान है । 44।

स्याद्वाद "ो सना"न जैनदश@न है; उसे जैसा है वैसा समझना चानिहए । वस्"ु

त्रेकाशिलक धु्रव है; उसकी अपेक्षासे एक समयकी शुद्ध पया@यको भी भले ही हेय कह"े है; परन्"ु दूसरी ओर शुभराग आ"ा है—हो"ा है; उसके निनमिमत्त देव-शास्त्र-गुरुकी श्रद्धाका शुभ राग हो"ा है । भगवानकी प्रनि"मा हो"ी है; उसे जो न माने वह भी मिमथ्यादृमिष्ट है । भले ही उससे धम@ नहीं हो"ा, परन्"ु उसका उत्थापन करे "ो मिमथ्यादृमिष्ट है । शुभराग हेय है, दुःखरूप है, परन्"ु वह भाव हो"ा है; उसके निनमिमत्त भगवानकी प्रनि"मा आदिद हो"े है; उनका निन\ेध करे "ो वह जैनदश@नको नहीं समझा है, इसशिलए वह मिमथ्यादृमिष्ट है । 45।

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परमात्माकी प्रनि"माको पूजनेका भाव आये, परन्"ु वह धम@ नहीं है । भूमिमकामें

अभी साधकपना है इसशिलए ऐसे भाव "ो आयेंगे न ? शिसद्धपना नहीं है उ"ना बाधकपना है इसशिलए ऐसे शुभभाव आ"े हैं; परन्"ु व े हेयरूपसे आ"े हैं, जाननेके शिलए आ"े हैं; ज्ञानी "ो उनका मात्र ज्ञा"ा ही है । समयसार-नाटकमें आ"ा है निक—

‘‘कहत बनारसी अलप भवधिथनित जाकी,सोई जिजनप्रनितमा प्रवाँनै जिजन सारखी ।’’

जिजनेन्द्रदेवकी मूर्ति"# साक्षा" ् जिजनेन्द्र"ुल्य वी"रागभाववाही हो"ी ह ै । जिजस अपेक्षासे कहा हो वह अपेक्षा जाननी चानिहए । जिजनप्रनि"मा है, उसकी पूजा, भशिक्त सब है । जब स्वरूपमें स्थिस्थर नहीं हो सक"ा "ब, अशुभसे बचनेके शिलए, ऐसा शुभभाव आये निबना नहीं रह"ा । ‘ऐसा भाव आ"ा ही नहीं’—ऐसा जो माने उसे वस्"ुस्वरूपकी खबर नहीं है; और आयें इसशिलए ‘उत्तम धम@ है’—ऐसा माने "ब भी वह बराबर नहीं है; वह शुभराग बन्धका कारण है ।

जब "क अबन्ध परिरणाम पूण@ प्रगट नहीं हुए हैं, "ब "क अपूण@दशामें ऐसे बन्धके परिरणाम हो"े हैं । हो"े हैं इसशिलए वे आदरणीय हैं—ऐसा भी नहीं है ।

निनज परमात्म"त्त्वको ही ग्रहण कर, उसीमें लीन हो, एक परमाणुमात्रकी भी आसशिक्त छोड़ दे । जिजसे निनजपरमात्मस्वभावका आश्रय करना ह ै उसे रजकणको "था रागके अंशको भी छोड़ देना पडे़गा । उसमें अपनत्वका अणिभप्राय छोड़ दिदया इसशिलए सम्यग्दश@न हुआ, निफर भी ऐसा शुभभाव आ"ा है । आये वह जाननेयोग्य है, उस काल जाना हुआ प्रयोजनवान है । 46।

क्रोधादिद होनेके कालमें, कोई भी जीव अपने अस्तिस्"त्व निबना ‘यह क्रोधादिद हैं’

ऐसा जान ही नहीं सक"ा । अपनी निवद्यमान"ामें ही वे क्रोधादिद ज्ञा" हो"े हैं । रागादिदको जान"े हुए भी ‘ज्ञान....ज्ञान...ज्ञान’ ऐसा मुख्यरूपसे ज्ञा" होनेपर भी ‘ज्ञान सो मैं’ ऐसा न मानकर, ज्ञानमें ज्ञा" होनेवाले ‘रागादिद सो मैं’ ऐसा, रागमें एक"ाबुजिद्धसे जान"ा है—मान"ा है; इसशिलए वह मिमथ्यादृमिष्ट है । 47।

चै"न्यपरिरणनि"का वेग बाहर—निनमिमत्तकी ओर—�ल े वह बन्धनभाव है,

चै"न्यपरिरणनि"का वेग भी"र—स्वकी ओर—�ल े वह अबन्धभाव ह ै । स्वाश्रयभावसे बन्धन और पराश्रयभावसे मुशिक्त "ीनों कालमें नहीं है ।

निवकल्पका एक अंश भी मेरा नहीं है, मैं "ो निनर्तिव#कल्प शिचदानन्दमूर्ति"# हूँ ऐसा स्वाश्रयभाव रहे वह मुशिक्तका कारण है; निवकल्पका एक अंश भी मुझे आश्रयरूप है ऐसा पराश्रयभाव रहे वह बन्धका कारण है ।

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पराश्रयभावमें—भल े ही देव-शास्त्र-गुरुकी भशिक्तका या व्र"-"प-दया-दानादिदका जो शुभभाव हो उसमें—बन्धका एक अंश भी अभाव करनेकी शशिक्त नहीं है और म ैं अख�ड ज्ञायकमूर्ति"# हू ँ ऐसी स्वसन्मुख प्र"ीनि"के बलम ें बन्धका एक अंश भी होनेकी शशिक्त नहीं है ।

पराश्रयभावम ें मोक्षमाग@की और मोक्षपया@यकी उत्पणित्त नहीं हो"ी और स्वाश्रयभावम ें मोक्षमाग@ "था मोक्षपया@य दोनोंकी उत्पणित्त हो"ी ह ै । ध्रौव्य "ो एकरूप परिरपूण@ है; मोक्षपया@यका उत्पाद "था संसारपया@यका व्यय हो"ा है ।

स्वभावकी शुजिद्धको रोकनेवाला वह बन्धनभाव है; स्वभावका निवकास रुक जाना और निवकारमें लग जाना वह बन्धभाव है । 48।

भगवान आत्मा आनन्दस्वरूप और राग आकुल"ास्वरूप—इसप्रकार ज्ञानीको

दोनों णिभन्न भास"े ह ैं । त्रैकाशिलक निनत्यानंद चै"न्यप्रभु पर दृमिष्ट जानेसे साथमें जो ज्ञान हो"ा है वह, चै"न्य और रागको अत्यन्" णिभन्न जान"ा है । जिजसे "त्त्वकी दृमिष्ट हुई है उसे सम्यग्ज्ञान हो"ा है; जिजसे दृमिष्ट नहीं हुई उसे चै"न्य और रागको णिभन्न जाननेकी शशिक्त नहीं है । 49।

सहज ज्ञान और आनन्दादिद अनन्" गुणसमृजिद्धसे भरपूर जो निनज ज्ञायक "त्त्व

है उसे अपूण@, निवकारी एवं पूण@ पया@यकी अपेक्षा निबना लक्षमें लेना सो द्रव्यदृमिष्ट है, वही यथाथ@ दृमिष्ट है । श्रु"ज्ञानके बल द्वारा प्रथम ज्ञानस्वभाव आत्माका बराबर निनण@य करके मनि"ज्ञान एवं श्रु"ज्ञानके व्यापारको आत्मसन्मुख निकया वह व्यवहार है,—प्रयत्न करना वह व्यवहार ह ै । इजिन्द्रयों और मनकी ओर रुकनेवाला "था अल्प निवकासवाले ज्ञानके व्यापारको स्वोन्मुख करना वह व्यवहार ह ै । सहज शुद्ध-पारिरणामिमकभाव "ो परिरपूण@ एकरूप है; पया@यम ें अपूण@"ा है, निवकार है, इसशिलए प्रयास करनेका रह"ा ह ै । पया@यदृमिष्टस े निवकार और अपूण@"ा है; उसे "त्त्वदृमिष्टके बलपूव@क हटाकर साधक जीव अनुक्रमसे पूण@ निनम@ल"ा प्रकट कर"ा ह ै । यथाथ@दृमिष्ट होनेके पश्चा"् साधकदशा बीचमें आय े निबना नहीं रह"ी । आत्माका भान करके स्वभावम ें एकाग्र हो"ा ह ै "भी परमात्मस्वरूप समयसारका अनुभव कर"ा है, आत्माके अपूव@ एवं अनुपम आनन्दका अनुभव कर"ा है, आनन्दके झरने झर"े हैं । 50।

भगवान कुन्दकुन्दाचाय@देवका हमार े ऊपर बहु" उपकार है, हम उनके

दासानुदास ह ैं ।....श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचाय@देव महानिवदेहक्षेत्रम ें सव@ज्ञ वी"राग श्री सीमंधर भगवानके समवसरणम ें गय े थ े और वहा ँ व े आठ दिदन रह े थ े इस सम्बन्धमें अणुमात्र भी शंका नहीं है । यह बा" ऐसे ही है; कल्पना म" करना, नकार म" करना;

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मानो "ब भी ऐसे ही है, न मानों "ब भी ऐसे ही है । यथा"थ्य बा" है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणशिसद्ध है । 51।

जिजसे पु�यकी रुशिच है उसे जड़की रुशिच है, उसे आत्माके धम@की रुशिच नहीं है ।

52।

जाननेमें अटकना हो"ा नहीं, परन्"ु जो जीव निनमिमत्ताणिश्र" बुजिद्ध करके अटके हैं वे जीव मात्र बा"े कर"े है, अन्"मु@ख ज्ञायकस्वभावका पुरु\ाथ@ करनेकी बुजिद्ध नहीं कर"े । ‘भगवानने् देखा होगा वैसा होगा, उनके ज्ञानमें जिज"ने भव देखे होंगे उ"ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवभ्रमण हुए निबना मोक्ष नहीं होगा, जिजस समय काललस्ति£ पकेगी उस समय सम्यग्दश@न होगा’—इसप्रकार भावमें और कथनमें निनःसत्त्व होकर, निनमिमत्तामिधन"ा रखकर पुरु\ाथ@को उड़ा" े ह ैं । पुरु\ाथ@ रनिह" होकर द्रव्यानुयोगकी बा" ें कर े "ो वह निनश्चयाभासी है । जिजसे केवलज्ञानीका निवश्वास हुआ उसको चारों ओरसे समान—अनिवरोध प्र"ीनि" होना चानिहए, और उसीने ‘केवलज्ञानीने देखा’ उसका सच्चा स्वीकार निकया है । जिजसने केवलज्ञानीको माना उसे रागकी रुशिच, क"ा@पनेरूप अज्ञान नहीं हो"ा; उसे ऐसी निवपरी" श्रद्धा भी नहीं हो"ी निक ‘केवली भगवानन े मेर े भव देखे ह ैं इसशिलए अब, मैं पुरु\ाथ@ नहीं करँूगा—कर नहीं सकँूगा, पुरु\ाथ@ अपने आप जाग्र" होगा’ ।—ऐसा माने "ो वह मिमथ्यादृमिष्ट है, उसके अन्"रमें केवलीकी श्रद्धा बैठी ही नहीं हैं । श्रीमद ्राजचन्द्रने कहा है न !—‘जो इच्छो परमाथ@ "ो करो सत्य पुरु\ाथ@; भवस्थिस्थनि" आदिद नाम लई छेदो ननिह आत्माथ@’ । 53।

आत्मद्रव्य सव@ज्ञस्वभावी है । जिजसने सव@ज्ञको अपनी पया@यमें स्थानिप" निकया उसके सव@ज्ञ होनेका निनण@य आ गया । बस, वह ‘ज्ञ’ स्वभावमें निवशे\ स्थिस्थर हो"े-हो"े पया@यमें सव@ज्ञ हो जायेगा । 54।

प्रश्न :–मोक्षके शिलए पु�य पहली सी�ी़ "ो है न ?उत्तर :–नहीं, पु�य "ो निवभाव है—परभाव है, मोक्षसे निवरुद्ध भाव है, उसमें

कहीं आत्माका आनन्द या ज्ञान नहीं ह ै । इसशिलए वह मोक्षकी पहली सी�ी ़ नहीं ह ै । अनन्"बार पु�य कर चुका "थानिप मोक्ष "ो हाथ नहीं आया, मोक्षकी ओर एक डग भी नहीं भरा गया; मोक्षकी प्रथम सी�ी़ "ो सम्यग्दश@न है और वह "ो पु�य-पाप दोनोंसे पार ह ै । भेदज्ञान द्वारा आत्माको पु�य-पाप दोनोंस े णिभन्न जान े "ब निनज शुद्ध आत्माका सम्यग्दश@न और अनुभव हो"ा ह ै । निनज शुद्ध आत्माके अनुभव द्वारा ही "ीथUकर भगवानके माग@का—मोक्षमाग@का मंगल प्रारम्भ हो"ा है; इसशिलए वह मोक्षमहलकी प्रथम सीढ़ी है । पं. दौल"रामजीने छह�ालामें कहा है निक—

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मोक्षमहलकी परथम सीढी़, या निबन ज्ञान चरिरत्रा,सम्यक्ता न लहै सो दश6न धारो भव्य पनिवत्रा ।‘दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै,यह नरभव नि\र मिमलन कदि^न है, जो सम्यक् नहीं होवै ।।

मोक्षमाग@की वृजिद्ध और पूण@"ा भी उसीप्रकार हो"ी है, पु�य द्वारा नहीं हो"ी । पु�य छोड़नेसे मोक्ष हो"ा है, रखनेसे नहीं । पु�य द्वारा लक्ष्मी आदिद धूलके �ेर मिमल"े हैं, परमात्मपना नहीं मिमल"ा । परमात्मपना "ो समू्पण@ वी"रागभावसे ही मिमल"ा ह ै । इस प्रकार वी"राग"ा ही धम@ है, वही भगवानका माग@ है और वही सव@ शास्त्रोंका सार है । 55।

ज्ञान और रागको लक्षणभेदसे सव@था णिभन्न करो "भी सव@ज्ञस्वभावी शुद्ध जीव

लक्ष्यमें आ सक"ा है । जैसे—जो सम्पूण@ वी"राग हो वही सव@ज्ञ हो सक"ा है, उसीप्रकार जो सव@ प्रकारके रागसे ज्ञायककी णिभन्न"ा समझे वही सव@ज्ञस्वभावी आत्माको पनिहचान—अनुभव कर सक"ा है । ऐसी सानुभव पनिहचान करनेवाले जीव निवरले ही हैं । जिजस प्रकार पापभाव शुद्धात्माकी स्वानुभूनि"से बाहर हैं, उसीप्रकार पु�यभाव भी बाहर ही रह"े हैं, स्वानुभूनि"में प्रवेश नहीं कर"े; और इसीसे उन्हें ‘अभू"ाथ@’ कहा है । पु�य-पाप रनिह" निनज शुद्ध आत्माकी—भू"ाथ@ ज्ञायकस्वभावकी—अन्"रमें दृमिष्ट होने पर स्वानुभूनि" प्रकट हो"ी है, और वही सम्यग्दश@न "था सम्यग्ज्ञान है । 56।

रागमें शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद भले करो, उनका निववेक भले करो, निकन्"ु

वे दोनों भाव आस्रव हैं और उनका बन्धमाग@में समावेश हो"ा है, स्वर-निनज@रामें नहीं; वह एक भी भेद मोक्षमें या मोक्षके कारणमें नहीं आ"ा । मोक्षका माग@ और मोक्ष—संवर, निनज@रा और मोक्ष—"ो उन दोनोंसे णिभन्न जानि"के ही हैं । शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके रागमें क\ायका स्वाद, निनराकुल"ा उन दोनोंमेंसे निकसीमें नहीं है । पंचास्तिस्"कायसंग्रहमें श्री कुन्दकुन्दाचाय@देवने कहा है :—

तम्हा णिर्णव्वुदिदकामो रागं सव्वC कुर्णदु मा हिकंधिच ।सो तेर्ण वीदरागो भनिवओ भवसायरं तरदिद ।।तेथी न करवो राग जरीये क्यांय पर्ण मोक्षेचु्छए,वीतराग थईने जे रीते ते भव्य भवसागर तरे.

यह जानकर क्या कर ें ? "ो कह" े ह ैं निक—सव@ प्रकारके राग रनिह" अपने शिचदानन्द"त्त्वको बराबर लक्ष्यमें लेकर उसीको ध्याना । शुभाशुभ रागको अथा@" ् पु�य-पापको मोक्ष या मोक्षमाग@म ें सहायकारी नहीं जानना निकन्" ु निवघ्नहारी लुटेर े समझना । अहा, वी"राग होनेकी वी"राग परमात्माकी यह बा" कायर जीव नहीं झेल सक"े; पु�यसे

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धम@ नहीं हो"ा—यह बा" सुन"े ही चौंक उठ"े हैं—उनके कलेजे काँप उठ"े हैं . ज्ञानी "ो मोक्षके हे" ु एक शुद्धोपयोगको ही मान्य रख" े हैं, रागके निकसी कणको उसम ें नहीं मिमला"े; शुभ और अशुभ दोनोंस े निवरक्त होकर वी"रागी शुद्धोपयोगको ही मोक्षके साधनरूपसे स्वीकार कर"े हैं । 57।

हाथीके दाँ" दिदखानेके अलग और चबानेके अलग । दिदखानेके दाँ" बड़े हो"े हैं

और वे शिचत्रकारीमें "था शोभा ब�ा़नेमें काम आ"े हैं; चबानेके दाँ" छोटे हैं और वे खानेके काम आ"े हैं । शास्त्र "ो ‘दादाजी’की शिचट्ठी जैसे हैं, उनका आशय समझनेकी कुशल"ा प्राप्" करनी चानिहए । शास्त्रमें व्यवहारके कथन अनेक हो"े ह ैं परन्"ु जिज"ने व्यवहारके और निनमिमत्तके कथन हैं वे अपने गुणमें काम नहीं आ"े निकन्"ु परमाथ@को समझानेमें काम आ"े हैं । आत्मा परमाथ@"ः परसे णिभन्न है उसकी श्रद्धा करके, उसमें लीन हो "ो आत्माको मस्"ी च�े । जो परमाथ@ है वह व्यवहारमें—समझानेमें काम नहीं आ"ा, निकन्"ु उसके द्वारा आत्माको शान्विन्" हो"ी है । ऐसा यह प्रकट नयनिवभाग है । 58।

राग-दे्व\ और पु�य-पापस े पार आत्मानुभूनि"स्वरूप शुद्ध माग@को ज्ञानी ही

जान"े हैं, अज्ञानी "ो पु�यको ही धम@ मानकर रागमें ही अटक जा"े हैं । पाप वह अधम@ है और पु�य वह धम@—इ"ना ही लौनिककजन समझ"े हैं, निकन्"ु पु�य और पाप—ये दोनों अधम@ हैं और धम@ "ो उन दोनोंसे पार ऐसे वी"रागी चै"न्यभावरूप है । यह बा" मात्र जैनधम@में ही है और निवरले ज्ञानीजन ही उसे समझ"े हैं "था कह"े हैं ।

जिजस प्रकार लोहेकी या सोनेकी बेड़ी बाँध"ी ही है उसीप्रकार, पु�यको भले ही सोनेकी कहो "थानिप वह बेड़ी जीवको संसारम ें बाँध"ी है, मोक्ष नहीं होन े दे"ी; वह पु�यकी बेड़ी भी "ोड़कर मोक्ष हो"ा है । अज्ञानीको पु�यकी बा" मीठी लग"ी है, परन्"ु चै"न्यकी राग रनिह" मीठासको वह नहीं जान"ा । चै"न्यका मीठा वी"रागी स्वाद चखनेवालेको पु�यका क\ाय भी कड़वा लग"ा है ।—ऐसे ज्ञानी ही मोक्षको साध"े हैं । 59।

ज्ञानीकी दृमिष्ट अख�ड धु्रवस्वभाव पर है, अज्ञानीकी दृमिष्ट निनमिमत्त पर ह ै ।

निनमिमत्तकी ओर दृमिष्ट है वह पराश्रयदृमिष्ट है । ‘निनमिमत्त’ कोई वस्"ु नहीं है—ऐसा नहीं है, निनमिमत्त वस्"ु है अवश्य; यदिद निनमिमत्त कोई वस्"ु न हो "ो बन्ध और मोक्ष ऐसी दो अवस्थाएँ हो नहीं सक"ी । निनमिमत्त है ऐसा जानना, वह सब व्यवहारनय है । व्यवहारको जाननेसे अपूण@दशाका ख्याल रह"ा है, व्यवहारको जाननेसे कही व्यवहारका आश्रय आ जाए—ऐसा नहीं ह ै । निनश्चयनयका निव\य जो अख�ड ज्ञायकवस्" ु ह ै उसका आश्रय करनेसे मुनिनवर मोक्ष प्राप्" कर"े हैं । 60।

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अपने पीछे निवकराल शेर झपटे्ट मार"ा हुआ दौड़"ा आ रहा हो "ो वहाँ कैसी दौड़ लगा"ा ह ै ? क्या वहाँ थकान उ"ारनेके शिलये खड़ा रहेगा ? उसीप्रकार अर े ! यह काल झपटे्ट मार"ा हुआ चला आ रहा है और भी"र काम बहु"से करना हैं ऐसा अपनेको अन्"रमें लगना चानिहए । 61।

सम्यग्दश@न कोई अपूव@ वस्"ु है । शरीरकी खाल उ"ारकर नमक शिछड़कनेवाले

पर भी क्रोध नहीं निकया—ऐस े व्यवहारचारिरत्र इस जीवन े अनन्"बार पाल े हैं, परन्"ु सम्यग्दश@न एक बार भी प्राप्" नहीं निकया । लाखों जीवोंकी हिह#साके पापकी अपेक्षा मिमथ्यादश@नका पाप अनन्"गुना है । सम्यक्त्व सरल नहीं है, लाखों करोड़ोंमें निकसी निवरले जीवको ही वह हो"ा ह ै । सम्यक्त्वी समस्" ब्रह्मांडके भावोंको पी गया हो"ा है ।....सम्यक्त्व कोई अलग ही वस्"ु है । सम्यक्त्व रनिह" निक्रयाए ँइकाई निबना शून्यके समान ह ैं । सम्यक्त्वका स्वरूप अत्यन्" ही सूक्ष्म ह ै ।....हीरेका मूल्य हजारों रुपया हो"ा है, उसके पहल पड़नेस े खिखरी हुई रजका मूल्य भी सैकड़ो रुपया हो"ा है; उसी प्रकार सम्यक्तव-हीरेका मूल्य "ो अमूल्य है, वह यदिद मिमल गया "ब "ो कल्याण हो जायेगा परन्"ु वह नहीं मिमला "ब भी ‘सम्यक्त्व कुछ अलग ही वस्"ु है’—इसप्रकार उसका माहात्म्य समझकर उसे प्राप्" करनेकी उत्क�ठारूप रज भी महान लाभ दे"ी है ।

जानपना वह ज्ञान नहीं है । सम्यक्त्व सनिह" जानपना ही ज्ञान है । ग्यारह अंग क�ठाग्र हों परन्"ु न हो "ो वह अज्ञान है । आजकल "ो सब अपने-अपने घरका सम्यक्त्व मान बैठे हैं । सम्यक्त्वीको "ो मोक्षके अनन्" अ"ीजिन्द्रय सुखका नमूना प्राप्" हो गया है । वह नमूना मोक्षसुखके अनन्"वें भाग बराबर होने पर भी अनन्" है । 62।

जैनदश@नम ें मात्र बाह्य निक्रयाका ही प्रनि"पादन नहीं ह ै परन्" ु उसम ें सूक्ष्म

"त्त्वज्ञान भरपूर भरा है । इस महँगे मनुष्यभवमें यदिद जीवने शरीर, वाणी और मनसे पर ऐसे परम "त्त्वका भान नहीं निकया, उसकी रुशिच भी नहीं की "ो यह मनुष्यभव निनष्फल है । 63।

मुनिनदशा होनेपर सहज ही निनग्रUथ दिदगम्बर दशा हो जा"ी ह ै । मुनिनकी दशा

"ीनों काल नग्न दिदगंबर हो"ी है । यह कोई पक्ष या निफरका नहीं है निकन्"ु अनादिद सत्य वस्"ुस्थिस्थनि" है ।

शंका :—मुनिनदशामें वस्त्र हों "ो आपणित्त क्या है ? वस्त्र "ो परवस्"ु हैं, वे कहाँ आत्माको बाधक हो"े हैं ?

समाधान :–वस्त्र "ो परवस्"ु हैं और वे कहीं आत्माको बाधक नहीं है यह बा" भी सच है; परन्" ु वस्त्र ग्रहण करनेकी जो बुजिद्ध ह ै वह रागमय बुजिद्ध ही मुनिनदशाको

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रोकनेवाली है । अन्"रंग रमण"ा कर"े-कर"े मुनिनयोंको इ"नी उदासीन दशा सहज ही हो जा"ी है निक वस्त्र ग्रहण करनेका निवकल्प ही नहीं उठ"ा । 64।

परके निनमिमत्तसे "था अपनी योग्य"ाके कारण जीव पया@यमें भूल करे "ो जो

राग-दे्व\रूप धुआँ उठ"ा है वह अशुद्ध उपादानसे हुई जीवकी—जीवके वी"रागस्वभाव नामक चारिरत्रगुणकी—अरूपी निवकाररूप निवपरी" दशा है । उस क्षणिणक निवकारीदशाका चै"न्यस्वभावमें प्रवेश नहीं है । यदिद कम@ आदिद परनिनमिमत्तके निबना ही निवकार हो "ो वह स्वभाव हो जाए और स्वभाव "ो कभी टल"ा नहीं है । परन्"ु यह भूल "ो क्षणिणक अवस्था जिज"नी है और वह त्रैकाशिलक परिरपूण@ स्वभावके भान द्वारा टल जा"ी है । जो टल जायें वह स्वभावके घरका कैसे कहा जायेगा ? जो नित्रकाल साथ रहे वही अपना माना जा"ा है । 65।

स्त्री-पुत्र-परिरवार वह कहीं संसार नहीं ह ै । अपनी पया@यम ें जो मोह-राग-

दे्व\रूप निवभाव भाव हैं वहीं संसार है । यदिद स्त्री-पुत्रादिद संसार हो "ो मृत्यु होनेपर यह शरीर, स्त्री, पुत्रादिद सब यहीं पडे़ रह जायेंगे, "ो क्या "ेरा संसार मिमट जाएगा और मोक्ष हो जाएगा ? भाई ! स्त्री-पुत्रादिद "ो संसार हैं ही नहीं । अपने ज्ञानस्वरूपकी मनिहमासे च्यु" होकर जो परके क"ृ@त्वका भाव "था मिमथ्यात्व सनिह" अथवा अस्थिस्थर"ा सनिह" राग-दे्व\रूप भाव वही संसार है । 66.

शे्व" वस्त्र परके निनमिमत्तसे मशिलन दिदखाई दे"ा है, परन्"ु उसे व"@मानमें स्वभावसे

स्वच्छ देखा जा सक"ा है । दृष्टां"में "ो देखनेवाला दूसरा है निकन्"ु आत्मामें "ो स्वयं ही द्रष्टा है । आत्मामें जो व"@मान मशिलन दशा है वह उसका मूल स्वभाव नहीं है; इसशिलए व"@मानमें मशिलनदशावाला जीव भी अपना निनम@ल स्वभाव देख सक"ा है, उसकी प्र"ीनि" कर सक"ा है ।67।

अनन्" ज्ञानिनयोंका एक ही आशय हो"ा ह ै । सव@ज्ञ वी"राग भगवन्"ों द्वारा

कशिथ" जो आत्मप्रान्विप्"का माग@—मोक्षमाग@ वह "ीनों काल एक ही है । जिजसे वह प्राप्" करनेकी रुशिच है, सद्गरुुके समागमकी "ीव्र छटपटी है, उसे वह प्राप्" हुए निबना नहीं रह"ा । कदाशिच"् सद्गरुुका योग न बने "ो अन्"रसे, पूव@के संस्कारसे स्वयं आत्मज्ञान हो"ा है, अथवा "ो प्रत्यक्ष गुरुका योग मिमल जाये और अन्"रमें वही पूण@ परमाथ@की लगन हो उसे ऐसा माग@ मिमल ही जा"ा है । 68।

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जो सहज आत्मस्वरूपमें गुप्" होकर रह"ा है, स्वसन्मुख होकर स्वरूपमें स्थिस्थर हो"ा है वह बद्ध-अबद्धके पक्षमें रागमें नहीं खड़ा रह"ा; रागकी जालोंको हटाकर जिजसका शिचत्त शान्" हुआ है वह निनज आत्माके आनन्दामृ"-स्वभावका स्वाद ले"ा है, आकुल"ाका अभाव होकर निनराकुल निनज शान्"रसका स्वाद ले"ा है, नयपक्षके त्यागकी भावनाको नचाकर आत्माके अमृ"का पान कर"ा है । 69 ।

"ालाबकी ऊपरी स"ह बाहरस े एक-सी लग"ी है, परन्" ु भी"र उ"रकर

उसकी गहराईका माप करने पर निकनारे और मध्यकी गहराईमें निक"ना अन्"र है वह ज्ञा" हो"ा है; उसीप्रकार ज्ञानी और अज्ञानीके वचन ऊपर-ऊपरसे देखनेमें समान लग"े हैं, निकन्"ु अन्"रका गम्भीर रहस्य देखने पर उनके आशयमें निक"ना अन्"र है वह समझमें आ"ा है । 70।

परिरणाम परिरणामीस े (द्रव्यसे) णिभन्न नहीं है, क्योंनिक परिरणाम और परिरणामी

अणिभन्न वस्"ु है—णिभन्न-णिभन्न दो नहीं है । पया@य जिजसमेंसे हो उससे वह णिभन्न वस्"ु नहीं हो सक"ी । सोना और सोनेका गहना दोनों अलग हो सक"े हैं ? कदानिप नहीं हो"े । सोनेमें अँगूठीकी अवस्था हुई, वहाँ अंगूठीरूप अवस्था कहीं रह गई और सोना अन्यत्र कहीं रह गया ऐसा हो सक"ा है ? कभी नहीं हो"ा । कोई कहे निक—अंगूठी "ो सोनारने बनाई है, परन्"ु सोनारने अँगूठी नहीं बनाई, अँगूठी बनानेकी इच्छा सोनारने की है । इच्छाका क"ा@ सोनार है परन्"ु अँगूठीका क"ा@ सोनार नहीं है, सोनार "ो मात्र निनमिमत्त है, उसने अँगूठी नहीं बनाई है । अँगूठीका क"ा@ सोना है, सोनेमेंसे ही अँगूठी हुई है; उसीप्रकार चै"न्यकी जो भी अवस्था हो"ी ह ै वह चै"न्यद्रव्यसे अणिभन्न होनेस े उसका कत्ता@ चै"न्य ह ै और जड़की जो भी अवस्था हो वह जड़-द्रव्यसे अणिभन्न होनेके कारण उसका कत्ता@ जड़ है इसशिलए ऐसा शिसद्ध हुआ निक जो भी निक्रयाए ँहैं वे सभी निक्रयावान अथा@"् द्रव्यसे णिभन्न नहीं हैं । वस्"ुके निबना अवस्था नहीं हो"ी और अवस्थाके निबना वस्"ु नहीं हो सक"ी । 71।

जिजस क्षण निवकारी भाव निकया उसी क्षण जीव उसका भोक्ता है, कम@ निफर

उदयमें आयेगा और निफर भोगा जायेगा ऐसा कहना वह व्यवहार है । अज्ञानी परद्रव्यको कर-भोग नहीं सक"ा परन्" ु मान"ा ह ै निक ‘म ैं परद्रव्यको कर"ा-भोग"ा हँू’ । ज्ञानी परद्रव्यकी जो अवस्था हो उसका ज्ञा"ा रह"ा है, इसशिलए उसकी ज्ञानपया@य बढ़"ी जा"ी है । ज्ञानी ज्ञानका क"ा@ हो"ा है, निकन्"ु परद्रव्यकी अवस्थाका कत्ता@ नहीं हो"ा । अज्ञानी परद्रव्यकी अवस्था कर नहीं सक"ा निकन्" ु कत्ता@पना मान ले"ा ह ै । अज्ञानी अपने शुभाशुभभावको कर"ा ह ै परन्" ु जड़कम@का कत्ता@ कदानिप नहीं है, अथा@" ् अज्ञानी भावकम@का कत्ता@ ह ै परन्"ु पुद्गल-द्रव्यस्वरूप द्रव्यकम@ "था नोकम@का कत्ता@ "ो कदानिप नहीं है । 72।

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जिजस घर न जाना हो उसे भी जानना "ो चानिहए निक यह घर अपना नहीं परन्"ु

दूसरेका है । उसीप्रकार पया@यका आश्रय नहीं करना है इसशिलए उसका ज्ञान भी नहीं करे "ो एकान्" हो जाएगा, प्रमाणज्ञान नहीं होगा । पया@यका आश्रय छोड़नेयोग्य होनेपर भी उसका जिजसप्रकार है उस प्रकार ज्ञान "ो करना पडेग़ा, "भी निनश्चयनयका ज्ञान सच्चा होगा । 73।

ह े भव्य ! " ू भावश्रु"ज्ञानरूपी अमृ"का पान कर । सम्यक् श्रु"ज्ञान द्वारा

आत्माका अनुभव करके निनर्तिव#कल्प आनन्दरसका पान कर, जिजसस े "ेरी अनादिद मोह"ृ\ाका दाह मिमट जाए । "ूने चै"न्यरसके प्याले कभी नहीं निपये हैं, अज्ञानसे "ूने मोह-राग-दे्व\रूप निव\के प्याले निपये हैं । भाई ! अब "ो वी"रागके वचनामृ" प्राप्" करके अपने आत्माके चै"न्यरसका पान कर; जिजससे "ेरी आकुल"ा मिमटकर शिसद्धपदकी प्रान्विप्" हो । आत्माको भूलकर बाह्य भावोंका अनुभव वह "ो निव\का पान करने जैसा है; भले ही शुभराग हो, परन्"ु उसके स्वादमें भी कहीं अमृ" नहीं है, निव\ ही है । इसशिलए उससे भी णिभन्न ज्ञानानन्दस्वरूप आत्माको श्रद्धामें लेकर उसके स्वानुभवरूपी अमृ"का पान कर । अहा ! श्रीगुरु वत्सल"ास े चै"न्यका पे्रमरसका प्याला निपला" े ह ैं । वी"रागकी वाणी आत्माका परमशान्"रस दिदखानेवाली है । ऐसे वी"रागी शान्" चै"न्यरसका अनुभव वह भावशुजिद्ध है । उसीके द्वारा "ीनलोकमें सवqत्तम परम-आनन्दस्वरूप शिसद्धपदकी प्रान्विप्" हो"ी है । 74।

अहो, धन्य वह मुनिनदशा ! मुनिनराज कह"े ह ैं निक हम "ो शिचदानन्दस्वभावमें

झूलनेवाले हैं; हम इस संसारके भोगके शिलये अव"रिर" नहीं हुए हैं । हम "ो अब अपने आत्मस्वभावकी ओर झुक"े ह ैं । अब हमारा स्वरूपस्थिस्थ" होनेका समय आ गया ह ै । अन्"रके आनन्दस्वभावकी श्रद्धा सनिह" उसमें रमण"ा करने हे"ु जागृ" हुए उस भावमें अब भंग नहीं पडे़गा । अनन्" "ीथUकर जिजस पथ पर निवचरे उसी पथके हम पशिथक हैं । 75 ।

ज्ञानीका आन्"रिरक जीवन समझनेके शिलए अं"रकी पात्र"ा चानिहए ।

पूव@प्रार£के योगसे बाह्य संयोगोंमें खड़े होनेपर भी धमा@त्माकी परिरणनि" अं"रमें कुछ और ही काय@ कर"ी है । संयोगदृमिष्टसे देखे उसे स्वभाव समझमें नहीं आयेगा । धमा@त्माकी दृमिष्ट संयोग पर नहीं निकन्"ु आत्माका स्वपर-प्रकाशक स्वभाव क्या है उस पर हो"ी है । ऐसी दृमिष्टवाले धमा@त्माका आन्"रिरक जीवन अन्"रकी दृमिष्टसे समझमें आ"ा है, बाह्य संयोगों परसे उसका माप नहीं हो"ा । 76।

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ज्ञायकस्वभाव लक्ष्यम ें आय े "ब क्रमबद्ध पया@य यथाथ@रूपस े समझम ें आ सक"ी है । जो जीव पात्र होकर अपने आत्मनिह"के शिलये समझना चाह"ा है उसे यह बा" यथाथ@ समझमें आ जा"ी ह ै । जिजसे ज्ञायककी श्रद्धा नहीं है, सव@ज्ञकी श्रद्धा नहीं है, सव@ज्ञकी प्र"ीनि" नहीं है, अन्"रमें वैराग्य नहीं है और क\ायकी मन्द"ा भी नहीं है ऐसा जीव "ो ज्ञायकस्वभावके निनण@यका पुरु\ाथ@ छोड़कर क्रमबद्धके नामस े स्वचं्छद"ाका पो\ण कर"ा है । जो जीव क्रमबद्ध पया@यको यथाथ@रूपसे समझ"ा है उसे स्वच्छन्द"ा हो ही नही सक"ी । क्रमबद्धको यथाथ@ समझे वह जीव "ो ज्ञायक हो जा"ा है, उसको क"ृ@त्वके उछाल े शमिम" हो जा" े ह ैं और वह परद्रव्यका "था रागका अक"ा@ होकर ज्ञायकमें एकाग्र हो"ा जा"ा है । 77।

मृत्युका समय आयेगा वह कहीं पूछकर नहीं आयेगा निक लो अब "ुम्हारा

मरनेका समय आ गया ह ै । अर े ! यह संसार "ो स्वप्न जैसा है; निकसका कुटुम्ब और निकसके धन-दौल" ! यह शरीर भी एकदम क्षणभरमें छूट जायेगा । कुटुम्ब, कीर्ति"# और मकान सब यहीं पडे़ रहेंगे । ज्ञायक भगवानको अन्"रसे पृथक् निकया होगा "ो मरणकालमें वह पृथक् रहेगा । यदिद शरीरसे णिभन्न"ा नहीं की होगी "ो मरणके समय वह उसकी चपेटमें दब जायेगा । इसशिलए अवसर है "ब शरीरसे णिभन्न"ा कर लेना योग्य है । 78।

देव, मनुष्य, नि"य@±च और नरक—य े चारों गनि"या ँ सदा ही हैं, जीवोंके

परिरणामका फल हैं, कस्थिल्प" नहीं है । जिजसे, अपनी सुनिवधा साधनेमें बीचमें असुनिवधा करनेवाले निक"ने जीवोंको मार डालना "था निक"ने काल "क ऐसी कू्रर"ा करना उसकी कोई सीमा नहीं है उसे उन अनि"शय कू्रर परिरणामोंके फलरूप जहाँ अपार दुःख भोगना पड़"ा है उस स्थानका नाम नरक है । लाखों खून करनेवालेको लाख बार फाँसी मिमले ऐसा "ो इस लोकमें नहीं हो"ा । उसे अपने कू्रर भावोंका जहाँ पूरा फल मिमल"ा है उस अनन्" दुःख भोगनेके के्षत्रको नरक कहा जा"ा है । उस नरकगनि"के स्थान मध्यलोकके नीचे हैं और शाश्व" हैं । उसे युशिक्त एवं न्यायसे बराबर सानिब" निकया जा सक"ा है ।79।

यदिद चै"न्यसामथ्य@का निवश्वास कर े "ो उसके आश्रयसे रत्नत्रयधम@की अनेक

शाखाए-ँउपशाखाए ँप्रकट होकर मोक्षफल सनिह" निवशाल वृक्ष उगे । भनिवष्यमें होनेवाले मोक्षवृक्षकी शशिक्त व"@मानमें ही "ेरे चै"न्यबीजमें निवद्यमान है । सूक्ष्म दृमिष्टसे उसे निवचारमें लेकर अनुभव करनेसे "ेरा अपूव@ कल्याण होगा । 80 ।

ज्ञानी धमा@त्माको भगवानकी पूजा-भशिक्त आदिदके भाव आ"े हैं परन्"ु उसकी

दृमिष्ट रागरनिह" ज्ञायक आत्मा पर पड़ी है; उसे आत्माका भान है; उस भानमें उसे स"" धम@ व"@ रहा ह ै । सत्य समझे उसे वी"राग देव-शास्त्र-गुरुके प्रनि" भशिक्तका प्रशस्" राग

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आय े निबना नहीं रहेगा । मुनिनराजको भी ऐस े भशिक्तके भाव आ" े हैं, जिजनेन्द्रप्रभुके नामस्मरणसे भी शिचत्त भशिक्तभावसे उछल जा"ा है । अन्"रमें वी"रागी आत्माका लक्ष हो और बाह्यमें "ीव्र राग दूर न हो यह कैसे हो सक"ा है ? भगवानकी भशिक्तके भावका निन\ेध करके जो खान-पानादिदके अशुभ रागमें लगा रह"ा है वह "ो मरकर दुग@नि"में जायेगा । मेरा स्वरूप ज्ञान है, राग मेरा स्वरूप नहीं है,—इसप्रकार जो सत्यको जान"ा है उसको लक्ष्मी आदिद परपदाथ~का ममत्व सहज ही कम हो जा"ा है, और भगवानकी भशिक्त, प्रभावनादिदके भाव उछल"े हैं । "थानिप वहाँ वह जान"ा है निक यह राग है, यह कोई धम@ नहीं ह ै । अन्"रमें शुद्ध शिचदान्दस्वरूपको जानकर उसे प्रगट निकये निबना जन्म-मरणका अन्" नहीं आयेगा । 81।

धम@ भी ज्ञानीको हो"ा है और उच्च पु�य भी ज्ञानीको ही बँध"ा है । अज्ञानीको

आत्माके स्वभावकी खबर न होनेसे उसे धम@ भी नहीं ह ै और उच्च पु�य भी नहीं ह ै । "ीथUकरपद, चक्रव"vपद, बलदेवपद वे सब पद सम्यग्दृमिष्ट जीवोंको ही बँध"े हैं; क्योंनिक ज्ञानीको ऐसा भान है निक—अपना एक निनम@ल आत्मस्वभाव ही आदरणीय है उसके शिसवा रागका एक अंश या पुद्गलका एक रजकण भी आदरणीय नहीं है ।—ऐसी प्र"ीनि" होनेपर अभी समू्पण@ वी"राग नहीं हुआ है इसशिलए रागका भाग आ"ा है । उसमें उच्च जानि"का प्रशस्" राग आनेसे "ीथUकर, चक्रव"v आदिद उच्च पदनिवयाँ बँध"ी हैं । 82।

अन्"रकी गहराईसे रुशिच और लगन लगना चानिहए । यदिद आत्माके लक्ष्यसे छह

मास यथाथ@ धुन लगे "ो आत्माका अनुभव हुए निबना रहेगा ही नहीं । 83।

शरीर शरीरका काय@ कर"ा है और आत्मा आत्माका । दोनों णिभन्न-णिभन्न स्व"न्त्र ह ैं । शरीरका परिरणमन जिजस प्रकार होना हो वह उसके अपनेस े ही हो"ा है, उसमें मनुष्यके हाथकी बा" कहाँ ह ै ? आत्मामें भी राग और ज्ञानके परिरणाम हो"े ह ैं उनको आत्मा स्वयं कर"ा ह ै । जहा ँ अपना-अपना काय@ करनेम ें दोनों पदाथ@ स्व"न्त्र हैं, वहाँ निक"न े बाहरी काम व्यवस्थिस्थ" निकये, इ"न े कर दिदय े और इ"न े करना बाकी हैं—इस बा"को स्थान ही कहाँ हैं ? 84 ।

हिह#सा, झूठ, चोरी आदिद "ो पापभाव हैं, परन्" ु दया-दान-पूजा-भशिक्त आदिद

शुभ राग भी परमाथ@"ः पाप हैं; क्योंनिक स्वरूपमेंसे पनि"" कर"े हैं । अरे! पापको "ो सब पाप कह"े हैं परन्"ु अनुभवी ज्ञानी जीव "ो पु�यको भी पाप कह"े हैं । श्री योगीन्द्रदेवने कहा है न—

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जो पाउ निव सो पाउ मुणिर्ण सव्वु इ को निव मुर्णेइ ।जो पुण्रु्ण निव पाउ निव भर्णइ सो बुह को निव हवेइ ।।

बड़ी सूक्ष्म बा" है, अन्"रसे समझे "ो समझमें आये ऐसी है । 85।

ज्ञानदश@नस्वभावमात्र अभेद निनज "त्त्वकी दृमिष्ट करने पर उसमें नव"त्त्वरूप परिरणमन "ो ह ै नहीं । चे"नास्वभावमात्र ज्ञायकवस्"ुम ें गुणभेद भी नहीं ह ैं । इसशिलए गुणभेद या पया@यभेदको अभू"ाथ@—असत्य कह दिदया है । पया@य पया@यके रूपमें सत्य है, परन्"ु लक्ष्य—आश्रय करनेके शिलए असत्य है । दया-दानादिदके भाव "ो राग है, वह लक्ष्य करन े योग्य नहीं है, परन्" ु संवर-निनज@रारूप वी"राग निनम@ल पया@य भी लक्ष्य—आश्रय करने योग्य नहीं है; आश्रय करनेयोग्य—आलम्बन लेन े योग्य "ो एकमात्र नित्रकालशुद्ध ज्ञायकभाव है । 86।

लोग कुलदेव"ाको साक्षा" ् रक्षा करनेवाला मान" े हैं, परन्" ु भी"र "ू

सामथ्य@वाला है या नहीं? त्रैकाशिलक स्वाधीन स्वभावके लक्ष्यसे अन्"रमें "ो देख! नित्रकाल स्व"न्त्ररूपसे स्थायी भगवान ज्ञायक आत्मा जोनिक ज्ञा"ास्वरूपसे अख�ड जागृ" है वही साक्षा"् देव है । उसीकी श्रद्धा कर, परका आश्रय छोड़, परसे पृथक्त्व दरशानेवाले निनम@ल ज्ञानका निववेक कर, स्वभावके बलसे एकाग्र"ा कर; श्रद्धा, ज्ञान और स्थिस्थर"ाको एकरूप स्वभावमें लगा । वही मोक्षमाग@ है । 87।

भाई ! "ूने प±चमकालमें भर"क्षेत्रमें और निनध@न घरमें जन्म शिलया है इसशिलए

‘हम आजीनिवका आदिदके शिलये क्या करें’ ऐसा न देख ! "ू व"@मानमें और जब देख "ब शिसद्ध समान ही है, जिजस क्षेत्रमें "था जिजस कालमें जब देख "ब "ू शिसद्ध समान ही है । क्या मुनिनराजको खबर हीं होगी निक ये सब जीव संसारी है ? भाई ! संसारी और शिसद्ध "ो पया@यकी अपेक्षासे हैं । स्वभावसे "ो वे संसारी जीव भी शिसद्ध समान शुद्ध ही हैं । 88।

म ैं ज्ञायक हँू....ज्ञायक हँू....ज्ञायक हँू—इसप्रकार अन्"रम ें घोट" े रहना,

ज्ञायकके सन्मुख झुकना, ज्ञायकके सन्मुख एकाग्र"ा करना । अहाहा ! पया@यको ज्ञायकोन्मुख करना बहु" कदिठन है, उसमें अनन्" पुरु\ाथ@ चानिहए । ज्ञायक"लमें पया@य पहुँची, अहाहा ! उसकी क्या बा" ! ऐसा पूणा@नन्दका नाथ प्रभु उसकी प्र"ीनि"में, उसके निवश्वासमें—भरोसेमें आना चानिहए निक अहो ! एक समयकी पया@यके पीछे इ"ना महान भगवान वह मैं ही हूँ । 89।

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शरीरके एक-एक "सुम ें 96-96 रोग हैं; वह शरीर क्षणमें दगा देगा, क्षणमें छूट जायेगा । कुछ सुनिवधा हो वहाँ घुस जा"ा है, निकन्"ु भाई ! "ुझे एकबार कहीं जाना है वहाँ निकसका महेमान होगा ? कौन "ेरा परिरशिच" होगा ? उसका निवचार करके अपना "ो कुछ कर ल े ! शरीर स्वस्थ हो "ब"क आँख नहीं खुल"ी और क्षणम ें देह छूटन े पर अनजान स्थलमें चला जायेगा ! छोटी-छोटी सी उम्रके लोग भी चले जा"े हैं, इसशिलए अपना कुछ कर ले ! शास्त्रमें कहा है निक जब"क वृद्धावस्था न आये, शरीरमें व्यामिधका जब"क प्रवेश न हो और इजिन्द्रयाँ जब"क शिशशिथल न हो जायें "ब"क आत्मनिह" कर लेना । 90 ।

धम@ माने क्या ? धमv जीव निकसे कहना ? लोग कह"े हैं निक हमें धम@ करना है । "ो धम@ कहाँसे होगा ? शरीर, वाणी, रुपया-पैसादिदसे धम@ नहीं हो"ा; क्योंनिक वे सब "ो आत्मासे णिभन्न अचे"न परद्रव्य हैं, उनमें आत्माका धम@ निवद्यमान नहीं है । "था मिमथ्यात्व, हिह#सा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचया@दिद पापभाव या दया, दान, पूजा, भशिक्त आदिद पु�यभावसे भी धम@ नहीं हो"ा; क्योंनिक वे दोनों निवकारीभाव हैं । आत्माकी निनर्तिव#कारी शुद्ध दशा ही धम@ है । उसका क"ा@ आत्मा स्वयं ही है । वह धम@ वी"राग देव-शास्त्र-गुरु या जिजनप्रनि"मा आदिद कहीं बाहरसे नहीं आ"ा निकन्"ु निनज शुद्ध ज्ञायक आत्माके ही आश्रयसे प्रकट हो"ा ह ै । आत्मा ज्ञान "था आनन्दादिद निनम@ल गुणोंका शाश्व" खदान है; सत्समागमसे श्रवण-मनन द्वारा उसकी यथाथ@ पनिहचान करनेपर आत्मामेंसे जो अ"ीजिन्द्रय आनन्दयुक्त निनम@ल अंश प्रकट हो वह धम@ है । अनादिद-अनन्" एकरूप चै"न्यमूर्ति"# भगवान आत्मा वह अंशी है, धमv है "था उसके आश्रयसे जो निनम@ल"ा प्रगट हो"ी है वह अंश है, धम@ है । साधक जीवको आश्रय अंशीका हो"ा है, अंशका नहीं और वेदन अंशका हो"ा है परन्"ु उसका आलम्बन नहीं हो"ा—उस पर जोर नहीं हो"ा । आलम्बन "ो सदैव शुद्ध अख�ड एक परमपारिरणामिमकभावस्वरूप निनज आत्मद्रव्यका ही हो"ा ह ै । उसीके आधारसे धम@ कहो या शान्विन्" कहो—सब हो"ा हैं । 91।

जिजस े भवकी थकान लगी हो, जिजस े आत्मा कैसा ह ै वह समझनेकी सच्ची

जिजज्ञासा अन्"रमें जागृ" हुई हो, उसे सचे्च गुरु मिमल"े ही है । 92।

जिजस भूमिममें क्षार हो उसमें अनाज बोनेसे उग"ा नहीं है । अनाज उगानेके शिलये जैस े उत्तम भूमिम चानिहये, उसीप्रकार निनम@ल "त्त्वका स्पष्ट उपदेश पचानेके शिलए उत्तम पात्र"ा चानिहए । 93।

प्रत्येक जीव अपने भावको कर"ा-भोग"ा है, परवस्"ुको कर"ा-भोग"ा नहीं है

। मुँहम ें लड्डडुका टुकड़ा जाये, उस समय वह जड़-लड्डडुको नहीं भोग"ा निकन्"ु उसके

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होनेवाले रागको भोग"ा है । शरीरमें "ीव्र रोग हुआ हो उस समय जीव जड़-रोगको नहीं भोग"ा निकन्"ु उसके लक्ष्यसे होनेवाले दे्व\को भोग"ा है । शुद्धात्माके अनुभवमें धमv जीव मुख्यरूपसे राग-दे्व\के क"ा@ या भोक्ता नही है, निकन्"ु स्वभावदृमिष्टमें निनम@ल पया@यको कर"े हैं और उससे आनन्दको भोग"े हैं । 94।

कोई "ीव्र प्रनि"कूल"ा आ पडे़, कोई उग्र कठोर मम@चे्छदक वचन कहे, "ो शीघ्र

ही शरीरस्थिस्थ" परमानन्दस्वरूप परमात्माका ध्यान करके शरीरका लक्ष्य छोड़ देना, सम"ाभाव करना । 95।

प्रश्न :–द्रव्यमें पया@य नहीं है "ो निफर पया@यको क्यों गौण कराया जा"ा है ?उत्तर :–द्रव्यम ें अथा@" ् उसके ध्रौव्यांशम ें पया@य नहीं है, परन्" ु उसका जो

व"@मान प्रकट परिरणमनेवाला अंश उस अपेक्षासे "ो उसमें पया@य है । पया@य सव@था है ही नहीं—ऐसा नहीं है । पया@य है, परन्"ु उसकी उपेक्षा करके, गौण करके ‘नहीं है’ ऐसा कहकर उसका लक्ष्य छुड़ाकर, द्रव्यका—ध्रुव स्वभावका—लक्ष्य "था दृमिष्ट करानेका प्रयोजन है । इसशिलए द्रव्यको—धु्रव स्वभावको मुख्य करके, भू"ाथ@ कहकर उसकी दृमिष्ट कराई है; और पया@यकी अपेक्षा करके, गौण करके, ‘पया@य नहीं है, असत्याथ@ है’ ऐसा कहकर उसका लक्ष्य छुड़ाया है । यदिद पया@य सव@था ही न हो "ो गौण करना भी कहाँ रह"ा ह ै ? द्रव्य (ध्रौव्य) और पया@य दो मिमलकर समू्पण@ द्रव्य (वस्"ु) वह प्रमाणज्ञानका निव\य है । 96।

भाई ! एकबार ह\@ "ो ला निक अहो ! मेरा आत्मा ऐसा परमात्मस्वरूप है,

ज्ञानानन्दकी शशिक्तसे भरपूर है; मेरे आत्माकी शशिक्तका घा" नहीं हो गया है । ‘अरेरे ! मैं हीन हो गया, निवकारी हो गया, अब मेरा क्या होगा ?’ ऐसे डर म", उलझनमें न पड़, ह"ाश न हो । एक बार स्वभावका उत्साह ला । स्वभावकी मनिहमा लाकर अपनी शशिक्तको उछाल । 97।

शरीर "ो "ुझे छोडेग़ा ही, परन्"ु "ू शरीरको (दृमिष्टमें) छोड़ उसकी बशिलहारी है

। यह "ो शूरवीरके खेल हैं । 98।

अहाहा ! सारी दुनिनयाका निवस्मरण हो जाये ऐसा "ेरा परमात्म"त्त्व है । अरेरे ! "ीन लोकका नाथ होकर रागमें मैला हो गया ! रागमें "ो दुःखकी ज्वाला जल"ी है, वहाँसे दृमिष्टको हटा ले ! और जहाँ सुखका सागर भरा है वहाँ अपनी दृमिष्टको लगा दे ! रागको "ू भूल जा ! "ेर े परमात्म"त्त्वको पया@य स्वीकार"ी है, परन्"ु उस पया@यरूप मैं हूँ यह भी

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भूल जा ! अनिवनाशी भगवानके पास क्षणिणक पया@यका क्या मूल्य ? पया@यको भूलनेकी बा" है वहाँ राग और शरीरकी बा" कहाँ रही ? अहाहा ! एक बार "ो मुरदे भी खड़े हो जायें ऐसी यह बा" है, अथा@"् सुन"े ही उछलकर अन्"रमें जाये ऐसी बा" है । 99।

वास्"वमें "ो एक स्वयं ही है और दूसरी वस्"ु है ही नहीं । मैं ही एक हूँ, मेरे

निहसाबसे दूसरी वस्"ु है ही नहीं । केवली हों, शिसद्ध हों । वे उनके निहसाबसे भले हों, परन्"ु मेर े निहसाबसे वे नहीं है । स्वभावकी अपेक्षासे राग भी अपना नहीं है । शरीर-धन-स्त्री-पुत्रादिद "ो मेरे है ही नहीं, परन्"ु राग भी मेरा नहीं है । ज्ञानस्वरूप अकेला मैं ही हूँ—ऐसा जोर आना चानिहए ।

प्रश्न :—मैं ज्ञा"ा ही हूँ ऐसा जोर नहीं आ"ा वह कैसे आये ?उत्तर :—जोर स्वय ं नहीं लगा"ा इसशिलए नहीं आ"ा । बाहरके—संसारके

प्रसंगोंमें निक"नी रुशिच और उत्साह आ"ा ह ै ? उसीप्रकार अन्"रमें अपने स्वभावकी रुशिच "था उत्साह आना चानिहए । 100।

जो जीव धम@ करना चाह"ा है उसे धम@ करके अपनेमें स्थिस्थर रखना है, स्वयं

जहाँ रहे वहाँ धम@ भी साथ ही रहे ऐसा धम@ करना है । धम@ यदिद बाह्य पदाथ~से हो"ा हो "ो वे बाह्य पदाथ@ चले जाने पर धम@ भी चला जायेगा । इसशिलए धम@ ऐसा नहीं हो"ा । धम@ "ो अन्"रमें आत्माके ही आश्रयसे हो"ा है, आत्माके शिसवा निकसी बाह्य पदाथ@के आश्रयसे आत्माका धम@ नहीं हो"ा । लोग भगवानके दश@न करने जा"े हैं वहाँ ऐसा मान ले"े हैं निक ‘हम धम@ कर आये’; मानों भगवानके पास उनका धम@ हो ! अरे भाई ! यदिद बाह्यमें भगवानके दश@न करेगा उ"ने समय "क धम@ रहेगा और वहाँसे चले जाने पर "ेरा धम@ भी चला जायेगा, अथा@"् मजिन्दरके शिसवा घरमें "ो निकसीको धम@ होगा ही नहीं ! जैसे भगवान वी"राग है वैसा ही स्वभाव"ः मैं भगवान हँू—ऐसी प्र"ीनि" करके अन्"रमें चै"न्यमूर्ति"# निनज भगवानका सम्यग्दश@न कर े "ो उस अपन े भगवानके दश@नस े धम@ हो"ा है, और वह भगवान "ो स्वयं जहाँ-जहाँ जायेगा वहाँ साथ ही है इसशिलए वह धम@ भी सदैव बना ही रह"ा है । यदिद एकबार भी ऐसे भगवानके दश@न करे "ो जन्म-मरणका अन्" आ जाए । 101।

सम्यग्दश@न निकसीके कहने या देनेसे नहीं मिमल"ा । आत्मा स्वयं अनन्"गुणोंका

निप�ड—सव@ज्ञ भगवानने जैसा कहा वैसा—है उसे सव@ज्ञके न्यायानुसार सत्समागम द्वारा बराबर पनिहचान े और अन्"रम ें अख�ड ध्रुव ज्ञायकस्वभावका अभेद निनश्चय कर े वही सम्यग्दश@न—आत्मसाक्षात्कार ह ै । उसम ें निकसी परवस्"ुकी आवश्यक"ा नहीं हो"ी । इ"ना पु�य करँु, शुभराग करँू, उससे धीरे-धीरे सम्यग्दश@न होगा—यह बा" मिमथ्या है ।

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कोई बाह्य निक्रया करे, जाप करे, हठयोग करे, "ो उससे उसे कदानिप सहज चै"न्यमय शुद्धात्मस्वभाव प्रकट नहीं होगा, धम@ नहीं होगा; धम@ "ो आत्माका सहज सुखदायक स्वभाव है । 102।

अहो ! अडोल दिदगम्बरवृणित्तको धारण करनेवाले, वनम ें बसनेवाल े और

शिचदानन्दस्वरूप आत्मामें डोलनेवाले मुनिनवर, जो निक छठवें-सा"वें गुणस्थानमें आत्माके अमृ"कु�डम ें निनमग्न हुए झूल" े हैं, उनका अव"ार सफल ह ै । ऐस े सन्"-मुनिनवर भी वैराग्यकी बारह भावनाए ँभा"े हुए वस्"ुस्वरूपका चिच#"वन कर"े हैं । अहा ! "ीथUकर भी दीक्षासे पूव@ जिजनका चिच#"वन कर"े हैं ऐसी वैराग्यरसभरी यह बारह भावनाए ँभा"े हुए निकस भव्यको आनन्द नहीं होगा ? और निकस भव्यको मोक्षमाग@का उत्साह नहीं जागेगा ? 103 ।

श्री अरिरहन्"देव और उनके शास्त्र ऐसा कह"े हैं निक—प्रभ ु ! "ू ज्ञानमात्र है,

वहाँ प्रीनि" कर और हमारे प्रनि" भी प्रीनि" छोड़ दे । "ेरा भगवान "ो भी"र शी"ल-शी"ल चै"न्यचन्द्र, जिजनचन्द्र है; वहाँ प्रीनि" कर । आकाशमें जो चन्द्र है वह शी"ल हो"ा है निकन्"ु वह "ो जड़की शी"ल"ा जडरूप है । इस शान्"-शान्"-शान्" चै"न्यचन्द्रकी शी"ल"ा "ो अ"ीजिन्द्रय शान्विन्"मय है, वह एकमात्र शान्विन्"का निप�ड है । उसे शान्विन्"का निप�ड कहो या ज्ञानका निप�ड कहो—दोनों एक ही है । इसशिलए जिज"ना यह ज्ञान ह ै उ"ना ही परमाथ@ आत्मा है ऐसा निनश्चय करके उसीमें प्रीनि"वन्" बन । 104।

अहो ! यह "ो वी"रागशासन है । रागसे धम@ हो"ा है और व्यवहार कर"े-कर"े

निनश्चय प्रकट हो"ा है यह सब वी"रागमाग@ नहीं है । भगवान आत्मा वी"रागस्वरूप है और उसके आश्रयसे जो वी"राग दशा हो"ी है वही धम@ ह ै . शुभराग हो या अशुभ—दोनों परके आश्रयसे हो"े हैं, स्वयं अपनिवत्र और दुःखरूप हैं; इसशिलए वे धम@ नहीं है । रागसे णिभन्न होन े पर "ो भी"र आत्मामें प्रवेश हो"ा है, "ो निफर उससे लाभ हो यह कैसे हो सक"ा ह ै ? भाई ! माग@ कदिठन है । व्यवहारसे निनश्चय कदानिप नहीं हो"ा और निनमिमत्तसे उपादानमें कदानिप काय@ नहीं हो"ा । ऐसा ही वस्"ुस्वरूप है । 105।

दृमिष्टका निव\य द्रव्यस्वभाव है, उसम ें "ो अशुद्ध"ाकी उत्पणित्त ह ै ही नहीं ।

सम्यक्त्वीको एक भी अपेक्षासे अनन्" संसारका कारण ऐसे मिमथ्यात्व एवं अनन्"ानुबंधी क\ायका बन्ध नहीं है; परन्"ु उस परसे कोई ऐसा ही मान ले निक उसको हिक#शिच"् भी निवभाव "था बन्ध नहीं है, "ो वह एकान्" है । अन्"रमें शुद्ध स्वरूपकी दृमिष्ट "था अनुभव होने पर भी अभी आसशिक्त है वह दुःखरूप लग"ी है । रुशिच एवं दृमिष्ट-अपेक्षासे भगवान

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आत्मा "ो अमृ"स्वरूप आनन्दरा सागर है, उसके आंशिशक वेदनके पास शुभ और अशुभ दोनों राग दुःखरूप लग"े हैं, अणिभप्रायमें निव\ और काले नाग जैसे लग"े हैं । 106।

जीव अकेला आया है, अकेला रह"ा है और अकेला जा"ा है; वह अकेला ही

है, उसे जगत्के साथ क्या सम्बन्ध ह ै ? भाई ! इस शरीरके रजकण यहीँ पड़े रहेंगे और यह महल-मकान भी सब पड़े रहेंगे इनमेंकी कोई वस्"ु "ेरे स्वरूपमें नहीं है, वे सब जीव स्वरूपसे णिभन्न हैं । प्रभ ु ! "ू उनके मोहपाशमेंसे छूट जा । अब लूटा जाना रहने दे । "ू अपने एकत्वनिवभक्तपनेको प्राप्" करके अकेला निनजानन्दका उपभोग कर । 107 ।

जैनधम@की महत्ता यह ह ै निक मोक्षके कारणभू" सम्यग्दश@न-ज्ञान-चारिरत्रादिद

शुद्ध भावकी प्रान्विप्" उसीमें हो"ी है । उसीमें जैनधम@की श्रे�"ा है इसशिलए हे जीव ! ऐसे शुद्धभाव द्वारा ही जैनधम@की मनिहमा जानकर " ू उस े अंगीकार कर, और रागको—पु�यको धम@ न मान । जैनधम@में "ो सव@ज्ञ भगवानने ऐसा कहा है निक जो पु�यको धम@ मान"ा ह ै वह मात्र भोगकी ही इच्छा रख"ा है, क्योंनिक पु�यके फलम ें "ो स्वगा@दिदके भोगोंकी ही प्रान्विप्" हो"ी हैं; इसशिलए जिजसे पु�यकी भावना ह ै उस े भोगकी ही अथा@"् संसारकी ही भावना है, निकन्"ु मोक्षकी भावना नहीं है । 108।

जिजसने पया@यदृमिष्ट हटा दी और द्रव्यदृमिष्ट प्रगट की वह दूसरेको भी द्रव्यदृमिष्टसे

पूणा@नन्द प्रभ ु ही देख"ा ह ै । पया@यका ज्ञान करे, परन्" ु आदरणीयरूपमें—दृमिष्टके आश्रयरूपमें—"ो उसको त्रैकाशिलक धु्रव शुद्ध द्रव्य ही है । 109 ।

परमपारिरणामिमक भाव हूँ, कारणपरमात्मा हूँ, कारणजीव हँू, शुद्धोपयोगोऽहं,

निनर्तिव#कल्पोऽहं । 110।

एक ओर निवकारकी धारा अनादिदसे है और दूसरी ओर स्वभावसामथ्य@की धारा भी अनादिदसे साथ ही चल रही है; निवकारकी धाराके समय स्वभावसामथ्य@की धारा कहीं टूट नहीं गई, स्वभावसामथ्य@का कहीं अभाव नहीं हुआ । परिरणनि" जहाँ स्वभावसामथ्य@की ओर झुकी वहीं निवकारकी परम्पराका प्रवाह टूट गया और अध्यात्मपरिरणनि"की परम्परा शुरू हो गई, जो पूण@ होकर सादिदअनन्"काल रहेगी । 111।

परके शिलए "ो एक बार मृ"कव"् हो जाना चानिहए । परमें "ेरा कोई अमिधकार

ही नहीं है । अरे भाई ! "ू रागको "था रजकणको नहीं कर सक"ा ऐसा ज्ञा"ाद्रष्टा पदाथ@

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है । ऐसे ज्ञा"ाद्रष्टास्वभावकी दृमिष्ट कर । चारों ओरसे उपयोगको समेटकर एक आत्मामें ही जा । 112।

कम@का निवपाक वह कारण और रागादिद भावोंका होना वह काय@—ऐसा नहीं है,

परन्" ु अज्ञानभावसे आत्मा स्वयं शुभाशुभ रागका क"ा@ हुआ और शुभाशुभ राग काय@ हुआ । इसप्रकार जड़कम@का अभाव हुआ इसशिलए मोक्षदशारूप काय@ प्रकट हुआ—ऐसा नहीं है, परन्"ु ज्ञानभावसे मोक्षकी निनम@ल पया@यका क"ा@ आत्मा है और मोक्षकी निनम@ल पया@य प्रकट हुई वह आत्माका काय@ है । 113।

धु्रवका मूल्य अमिधक है । आनन्दकी पया@य "ो एक समयकी है और धु्रवमें "ो

आनन्दके �ेर भरे हैं । 114।

अहो ! इस मनुष्यपनेम ें ऐस े परमात्मस्वरूपका आदर करना वह जीवनका कोई धन्य क्षण है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है, ज्ञायक ही है, यह उसके ख्यालमें आ जाए, निकसी भी प्रसंगमें मैं ज्ञायक हूँ....ज्ञायक हूँ ऐसा भाशिस" हो, ज्ञायकका लक्ष्य रहे, "ो उस ओर �ल"ा ही रहे । 115।

सव@ज्ञ भगवान द्वारा कहा गया सत्य सुनना चाह"ा हो "ो जैसे परमात्मा पूण@

पनिवत्र है वैसा ही "ू भी है उसकी ‘हाँ’ कह; ‘ना’ नहीं कहना । ‘हाँ’मेंसे ‘हाँ’ आयेगी; पूण@का आदर करनेवाला पूण@ हो जाएगा । 116।

देवामिधदेव सव@ज्ञ "ीथUकर भगवानका प्रवचन निनदq\ हो"ा ह ै । सहज वाणी

खिखर"ी है, ‘उपदेश दँू’ ऐसी भी इच्छा नहीं हो"ी । मेघकी गज@ना जिजसप्रकार सहज हो"ी है उसीप्रकार ‘ॐ’ ध्वनिन भी सहज छूट"ी है । वह गणधरदेव द्वारा द्वादशांग सूत्ररूपमें रची जा"ी है । उसे जिजनागम अथा@"् जिजनप्रवचन कहा जा"ा है । 117।

अध्यात्मशास्त्रके भाव कोई चाहे जिजसके पाससे सुन ले अथवा अपने आप पढ़

ल े "ो स्वच्छन्दस े अपूव@ आत्मबोध नहीं हो"ा । गुरुगमरूपस े एकबार ज्ञानीके पास साक्षा"्–सीधा श्रवण करना चानिहए । ‘दीपसे दीप जल"ा है ।’ स"् झेलनेके शिलए अपना उपादान "ैयार हो वहाँ ज्ञानीके निनमिमत्तपनेका योग सहज हो"ा ही है । श्रीमद ्ने कहा है निक—

बूझी चह" जो प्यासको, है बूझनकी री";पावे ननिह गुरुगम निबना, यही अनादिद स्थिस्थ" । —118।

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अनेक जीवोंको अन्"रस े स" ् समझनेकी उत्क�ठा हो, "ब संसारमेंसे

उन्ननि"क्रममें अग्रसर कोई ज्ञानी "ीथUकररूपसे जन्म ले"े हैं । उनके निनमिमत्तसे जो योग्य जीव हों वे सत्यको समझ लें—ऐसा मेल सहज ही हो जा"ा ह ै , "ीथUकर निकसी दूसरेके शिलए अव"ार नहीं ले"े । 119।

शुद्ध"ा और अशुद्ध"ा दोनों होन े पर भी यदिद शुद्धभाव पर दृमिष्ट न कर े "ो

अशुद्ध"ाको जानेगा कौन ? उपादान और निनमिमत्त दोनों होने पर भी उपादानकी ओर झुके निबना निनमिमत्तका यथाथ@ ज्ञान कौन करेगा ? शुद्धस्वभाव और राग, अथवा निनश्चय और व्यवहार—दोनों होने पर भी, निनश्चय द्रव्यस्वभावकी ओर दृमिष्ट निकये निबना व्यवहार कहेगा कौन ? निनम@ल ज्ञायकस्वभावकी सन्मुख"ाके निबना स्व-परको जाननेका निववेक निवकशिस" नहीं होगा । अभेद स्वभावकी ओर �लना ही अनेकान्"का प्रयोजन है । 120।

अनेक लोग मान"े हैं निक आत्मा "ो बुजिद्धपूव@क पुरु\ाथ@ करे निकन्"ु कम@का नाश

हो अथवा न भी हो; परन्"ु ऐसा नहीं है । आत्मा पुरु\ाथ@ करे और कम@का नाश न हो ऐसा हो ही नहीं सक"ा; और आत्माने पुरु\ाथ@ निकया है इसशिलए पुरु\ाथ@से कम@का नाश हुआ है—ऐसा भी नहीं है । आत्माका सम्यग्दश@नका काल है उस समय दश@नमोहनीयके नाश आदिदका काल है, ज्ञानके निवकासका काल है उस समय ज्ञानावरणीके क्षयोपशमका काल है और रागादिदके अभावका काल है उस समय चारिरत्रमोहनीयके नाशका काल है; परन्"ु कम@के कारण वे सम्यग्दश@नादिद नहीं है और आत्माके पुरु\ाथ@के कारण कम@का नाश नहीं है—ऐसा समझना । 121।

कारणपरमात्मा ही वास्"वमें निनत्य आत्मा है । निनत्यका निनण@य कर"ी है अनिनत्य

पया@य, निकन्" ु उसका निव\य ह ै कारण परमात्मा; इसशिलए वही वास्"वम ें आत्मा ह ै । पया@यको अभू"ाथ@ कहकर, व्यवहार कहकर, अनात्मा कहा है । 122।

अरे जीवों ! शान्" हो जाओ, उपशमरसमें डूब जाओ—ऐसा उपदेश मानों

भगवानकी प्रनि"मा द े रही हो ! इसशिलए स्थापना भी परमपूज्य ह ै । "ीन लोकमें वी"रागमुद्रायुक्त शाश्व" जिजनप्रनि"माए ँहैं । जिजसप्रकार लोक अनादिद अकृनित्रम है, लोकमें सव@ज्ञ भी अनादिदस े हैं, उसीप्रकार लोकम ें सव@ज्ञकी वी"राग प्रनि"मा भी अनादिदसे अकृनित्रम शाश्व" है । जिजन्होंने ऐसी प्रनि"माकी स्थापनाका उत्थापन निकया है वे धम@को नहीं समझे हैं । धमv जीवको भी भगवानके जिजननिबम्बके प्रनि" भशिक्तका भाव आ"ा है । 123।

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ज्ञानस्वभाव स्व-परप्रकाशक ह ै । वह परको जान े सो कहीं आस्रव-बन्धका कारण नहीं है, "थानिप अज्ञानी ‘परका निवचार करेंगे "ो आस्रव-बन्ध होगा’ ऐसा मानकर परके निवचारसे दूर रहना चाह"ा है; उसकी वह मान्य"ा झूठी है । हाँ, चै"न्यके ध्यानमें एकाग्र हो गया हो "ो परद्रव्यका चिच#"वन छूट जाये; परन्"ु अज्ञानी "ो ‘परको जाननेवाले ज्ञानका उपयोग ही बन्धका कारण है’ ऐसा मान"ा ह ै । जिज"ना अक\ाय वी"रागभाव हुआ उ"ने संवर-निनज@रा हैं, और जिज"ने रागादिदभाव हैं उ"ने आस्रव-बन्ध हैं । यदिद परका ज्ञान बन्धका कारण हो "ो केवलीभगवान "ो समस्" पदाथ@ओंको जान" े हैं, "थानिप उनको बन्धन हिक#शिचत्मात्र नहीं हो"ा । उनको राग-दे्व\ नहीं है इसशिलए बन्धन नहीं है । उसीप्रकार सव@ जीवोंको ज्ञान बन्धका कारण नहीं है ।124।

"त्त्वज्ञान होनेसे आत्माकी दृमिष्ट हुई, ‘संयोगमें अनुकूल"ा-प्रनि"कूल"ा है’ ऐसी

दृमिष्ट छूट गई, "था आस्रवकी भावना छूट गई, उसको आत्मामें लीन"ा होनेसे इच्छाओंका जो निनरोध हो"ा है, वह "प है । 125।

आत्माको प्राप्" करनेके शिलए (गुरुगमसे) शास्त्रोंका अभ्यास करना, निवचार-

मनन करके "त्त्वका निनण@य करना और शरीरादिदसे "था रागसे भेदज्ञान करनेका अभ्यास करना । रागादिदसे णिभन्न"ाका अभ्यास कर"े-कर"े आत्माका अनुभव हो"ा है । 126।

प्रश्न :—आत्माकी मनिहमा निकस प्रकार आये ?उत्तर :—आत्मा ज्ञानस्वरूप वस्" ु है, अनन्"गुणोंका निप�ड ह ै । वह पूण@

ज्ञायक"त्त्व नित्रकाल अस्तिस्"रूप है; उसका स्वरूप "था सामथ्य@ अगाध एवं आश्चय@कारी है । आत्मवस्" ु कैस े अस्तिस्"त्ववाली "था कैस े सामथ्य@वाली ह ै उसका स्वरूप रुशिचपूव@क लक्षमें ले, समझे "ो उसका माहात्म्य आये, रागका "था अल्पज्ञ"ाका माहात्म्य छूट जाये । प्रनि"क्षण जो नयी-नयी हो"ी है ऐसी एक समयकी केवलज्ञानकी पया@य भी "ीनकाल-"ीनलोकको जाननेके सामथ्य@वाली ह ै "ो निफर उसे धारण करनेवाले त्रैकाशिलक द्रव्यका सामथ्य@ निक"ना ?—इस प्रकार आत्माके आश्चय@कारी स्वभावको यथाथ@ लक्षम ें ल े "ो आत्माकी मनिहमा आये । 127।

जिजसे ज्ञानधारामें ज्ञायकका ज्ञान हुआ है उसे रागादिद परज्ञेयोंका जो ज्ञान हो"ा

है वह जे्ञयके कारण हो ऐसी पराधीन"ा ज्ञानको नहीं है । शुभाशुभ भावोंसे णिभन्न होकर जिजसे चै"न्यकी दृमिष्ट हुई है उसे ज्ञानकी पया@यमें स्व-परका जो ज्ञान हुआ वह, परजे्ञय है इसशिलए पर-सम्बन्धी ज्ञान हुआ है—ऐसा नहीं है; ज्ञानके स्व-परप्रकाशकपनेके कारण

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ज्ञान हुआ है । इसशिलए रागको—जे्ञयको जाननेपर ज्ञेयकृ" ज्ञान है ऐसा नहीं है, परन्"ु ज्ञानकृ" ज्ञान है । 128।

स्व-प्रकाशक ज्ञानपंुज—ज्ञायक प्रभु—"ो ‘शुद्ध’ ही है, परन्" ु रागस े णिभन्न

होकर उपासना की जाये उसे वह ‘शुद्ध’ है । समस्" परद्रव्यसे णिभन्न होकर स्वमें एकाग्र"ा करनेसे जिजसको शुद्ध"ा प्रगट हो"ी है उसे वह ‘शुद्ध’ है । रागके निवकल्परूप नहीं हुआ है इसशिलए रागादिदस े णिभन्न होकर ज्ञायकका सेवन करनेपर जिजसे पया@यम ें शुद्ध"ाका अंश प्रगट हुआ उसे वह ‘शुद्ध’ है ऐसा प्र"ीनि"में आ"ा है; रागके पे्रमीको वह ‘शुद्ध’ है ऐसा प्र"ीनि"में नहीं आ"ा । 129।

अमिधक बोलनेस े क्या इष्ट ह ै ? इसशिलए चुप रहना ही अच्छा ह ै । जिज"ना

प्रयोजन हो उ"ने ही उत्तम वचन बोलना । शास्त्रकी ओरके अभ्यासमें भी जो अनेक निवकल्प हैं उनसे काय@शिसजिद्ध नहीं हो"ी । इसशिलए वचनकी बकवाद और निवकल्पोंका जाल छोड़कर, निवकल्पस े णिभन्न ऐसी ज्ञानचे"ना द्वारा शुद्ध परमात्माके अनुभवका अभ्यास करना ही इष्ट है, वही मोक्षका पंथ है, वही परमाथ@ ह ै । आत्माका जिज"ना अनुभव है उ"ना ही परमाथ@ है, अन्य कोई परमाथ@ नहीं ह ै अथा@" ् मोक्षका कारण नहीं ह ै । पं. बनारसीदासजीने कहा है न!—

शुद्धातम अनुभौ निhया, शुद्ध ज्ञान दृग दौर ।मुधिक्त-पंथ साधन यहै, वागजाल सब और ।।

शुद्धात्माके अनुभवरूप जो निक्रया है वही शुद्ध ज्ञान, दश@न और चारिरत्र है, वही मोक्षपंथ है, वही मोक्षका साधन ह ै । इसके शिसवा सब निवकल्पजाल ह ै । जिजस े ऐसे आत्माका अनुभव करना आया उसे सब आ गया । 130।

"त्त्वके आदरमें शिसद्धगनि" है और "त्त्वके अनादरमें निनगोदगनि" है । शिसद्धगनि"में

जा"े हुए बीचमें एक-दो भव हों उनकी निगन"ी नहीं है; और निनगोदमें जा"े हुए बीचमें अमुक भव हों उनकी निगन"ी नहीं है, क्योंनिक त्रसका काल थोडा़ है और निनगोदका काल अनन्" है । "त्त्वके अनादरका फल निनगोदगनि" और आदरका फल शिसद्धगनि" है । 132।

परलक्षके निबना शुभाशुभ राग नहीं हो सक"ा । जिज"न े शुभाशुभ राग ह ैं वे

अशुद्धभाव है । शुभाशुभभावोंको अपना स्वरूप मानना, करने योग्य मानना, वह निनश्चय मिमथ्यात्व—अगृही" मिमथ्यात्व ह ै । जिजसन े निवकारको क"@व्य माना उसन े अनिवकारी स्वभावको नही माना । अपने स्वभावको पूण@ अनिवकारीरूप मानना वह सच्ची दृमिष्ट है । उसके जोर निबना "ीन कालमें निकसीका निह" नहीं हो सक"ा । 133।

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आत्मा अशिचन्त्य सामथ्य@वान है । उसमें अनन्" गुणस्वभाव हैं । उसकी रुशिच हुए

निबना उपयोग परमेंसे हटकर स्वमें नहीं आ सक"ा । जो पापभावोंकी रुशिचमें पड़े हैं उनकी "ो बा" ही क्या ? परन्"ु पु�यकी रुशिचवाले बाह्यत्याग करें, "प करें, द्रव्यचिल#ग धारण करें "थानिप जब "क शुभकी रुशिच है "ब "क उपयोग परकी ओरसे पलटकर स्वोन्मुख नहीं हो सक"ा । इसशिलए प्रथम परकी रुशिच बदलनेसे उपयोग परकी ओरसे हटकर स्वम ें आ सक"ा है । माग@की यथाथ@ निवमिधका यह क्रम है । 134।

ज्ञायकस्वभावके साथ एक"ा करके जो ज्ञायकभावरूप परिरणमन हुआ वह

मोक्षका माग@ है । इसशिलए ज्ञानी कह"े हैं निक हे वत्स ! "ू अपने ज्ञायकस्वभावका निनण@य करके, अपनी परिरणनि"को उसी ओर मोड़ दे; अपनी परोन्मुख परिरणनि"को स्वोन्मुख कर; स्वभावकी मनिहमामें ही उसे एकाग्र कर । समयसारमें आ"ा है न—

इसमें सदा रनितवन्त बन, इसमें सदा संतु9 रे ।इससे निह बन तू तृप्त, उDम सौख्य हो जिजससे तुझे ।।

योगसारमें भी कहा है—ज्यों रमता मन निवषयमें, त्यों जो आतमलीन;शीघ्र लहै निनवा6र्णपद, धरै न देह नवीन । 135

अपने शिचदानन्दस्वभावके अणिभमुख होकर उसके अ"ीजिन्द्रय आनन्दका अनुभव

करना वही आत्माका सच्चा अणिभनंदन है । इसके शिसवा जग"के लोग मिमलकर प्रशंसा करें या अणिभनन्दन-पत्र दें उसमें आत्माका कोई निह" नहीं है । अरे प्रभु ! "ुझे अपने आत्माका सच्चा सन्मान करना ही कभी नहीं आया । अपन े चै"न्यस्वरूपकी महत्ता भूलकर "ू संसारम ें भटका । सव@ज्ञ-परमात्माके समान शशिक्त "ेर े स्वभावम ें निवद्यमान है, उसका बहुमान करके स्वभावसन्मुख हो, और स्वभावके आनन्दका वेदन करके "ू स्वयं अपने आत्माका अणिभनन्दन कर; उसीमें "ेरा निह" है । 136।

अन्"रमें शुद्ध चै"न्यवस्"ुकी प्र"ीनि"—सम्यग्दश@न, ज्ञान "था स्वरूप-स्थिस्थर"ा

—चारिरत्र हुए हैं; वहाँ निवशे\ स्वरूपस्थिस्थर"ा—शुद्धोपयोग न हो "ो उस काल आग्रह नहीं करना चानिहए निक—अरे ! शुभभाव आयेगा "ो मैं भ्रष्ट हो जाऊँगा । बीचमें शुभभाव आये वह अपवादमाग@ है । अपवाद आया इसशिलए शुजिद्धसे भ्रष्ट हो गया ऐसा ज्ञानी नहीं मान"ा । शुजिद्धमें निवशे\ स्थिस्थर"ा नहीं हो सक"ी इसशिलए अपवाद आये निबना नहीं रह"ा ऐसा भी वह जान"ा है । अपवाद आये, "थानिप उत्सग@में जानेकी—शुद्धोपयोगरूप होनेकी—भावना उस काल भी हो"ी है । अपवादमें ही रहना ऐसा उसे आग्रह नहीं हो"ा । 137।

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ज्ञानीको यथाथ@ द्रव्यदृमिष्ट प्रगट हुई है; द्रव्यके अवलम्बनस े वह अन्"रमें

स्वरूपस्थिस्थर"ा बढ़ा"ा जा"ा है; परन्"ु जब "क अपूण@ है, पुरु\ाथ@ मंद है, शुद्धस्वरूपमें पूण@"या स्थिस्थर नहीं हो सक"ा, "ब "क शुभ परिरणाममें युक्त हो"ा है, परन्"ु उसे वह आदरणीय नहीं मान"ा; स्वभावमें उसकी ‘नास्तिस्"’ है इसशिलए दृमिष्ट उसका निन\ेध कर"ी है । ज्ञानीको प्रनि"क्षण यह भावना हो"ी है निक इसी क्षण पूण@ वी"राग होना बन सके "ो यह शुभ परिरणाम भी नहीं चानिहए, निकन्"ु अपूण@"ाके कारण वे भाव आये निबना नहीं रह"े । 138।

शुभ परिरणाम भी धमvको आपणित्तरूप "था भाररूप लग"े हैं; उनसे भी वह

छूटना ही चाह"ा है, परन्"ु वे आये निबना नहीं रह"े । वे भाव आ"े हैं "थानिप वह स्वरूपमें स्थिस्थर"ा करनेका ही उद्यमी रह"ा है । कभी-कभी बुजिद्धपूव@कके सव@ निवकल्प छूट जा"े हैं और स्वरूपमें सहज स्थिस्थर हो जा"ा ह ै उस काल शिसद्ध भगवान जैसा अंश"ः अनुभव कर"ा है; परन्"ु वहाँ सदा स्थिस्थर नहीं रह सक"ा इसशिलए शुभ परिरणाममें युक्त हो"ा है । 139।

एक नयका सव@था पक्ष ग्रहण करे "ो वह मिमथ्यात्वके साथ मिमला हुआ राग है

और प्रयोजनके वश एक नयको प्रधान करके उसका ग्रहण करे "ो वह मिमथ्यात्वसे रनिह" मात्र अस्थिस्थर"ाका राग है । 140।

ज्ञानी "त्त्वज्ञान होनेके पश्चा" ् अपनी शशिक्त "था बाह्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव

देखकर प्रनि"मा या मुनिनपना ले"े हैं, निकसीकी देखादेखी प्रनि"मा धारण नहीं कर"े । वह सब दशा सहज हो"ी है । 141।

अहो ! मुनिनवर "ो आत्माके परम आनन्दमें झूल"े-झूल"े मोक्षकी साधना कर

रहे हैं । आत्माके अनुभवपूव@क दिदगम्बर चारिरत्रदशा द्वारा मोक्ष सध"ा है । दिदगम्बर साधु माने साक्षा"् मोक्षका माग@ । वे "ो छोटे शिसद्ध हैं, अन्"रके शिचदानन्दस्वरूपमें झूल"े-झूल"े बारम्बार शुद्धोपयोग द्वारा निनर्तिव#कल्प आनन्दका अनुभव कर"े हैं । पंचपरमे�ीकी पंशिक्तमें जिजनका स्थान है ऐसे मुनिनराजकी मनिहमाका क्या कहना ! ऐसे मुनिनराजके दश@न मिमलें वह भी महान आन्दकी बा" है । ऐसे मुनिनवरोंके "ो हम दासानुदास हैं । उनके चरणोंमें हम नमन कर"े हैं । धन्य वह मुनिनदशा ! हम भी उसकी भावना भा"े हैं । 142।

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शुद्ध शिचदानन्दस्वरूप निनज आत्माके समीप बसना उसे उपवास कह" े ह ैं । जहाँ आहारत्यागकी भी इच्छा नहीं है, पु�य-पापकी इच्छा नहीं है और आहारजल आदिद परपदाथ~के ओरकी वृणित्तका सहज त्याग है, उसे उपवास कह"े ह ैं । अज्ञानीको कोई खबर नहीं ह ै इसशिलए पु�य-पापकी वृणित्त कैस े रुक े ? नहीं रुक सक"ी । अक\ायस्वभावके भान निबना कभी उपवास नहीं हो सक"ा । आत्माके भान निबना आहारत्यागस्वरूप जो उपवास है उसे लंघन कहा है—

कषायनिवषयाहारत्यागो यत्र निवधीयते ।उपवासः स निवज्ञेयः शेषं लंघनकं निवदुः ।। 143

अरेरे ! शरीर "ो प्रनि"क्षण मृत्युके सन्मुख जा रहा है । अवसर "ो चला जा रहा

ह ै । अन्"रमें सन्मुख"ा निकये निबना कहीं शान्विन्" नहीं मिमलेगी । ज्ञानी "ो अन्"रमें निनज स्वभावका ग्रहण करके मोक्षकी चाल चल"े हैं; स्वयं अपनेम ें मोक्षमाग@को साध"े ह ैं ।144।

आत्मा निवकार स्वयं करे और दो\ डाले कम@के ऊपर, "ो वह प्रमादी होकर

मिमथ्यादृमिष्ट रह"ा है । पं. बनारसीदासजीने कहा है निक—‘दो द्रव्य मिमलकर एक परिरणाम नहीं कर"े और दो परिरणाम एक द्रव्यसे नहीं हो"े’ । इसशिलए कम@के कारण दो\ हो"ा है ऐसा नहीं मानना । 145।

संसार और पु�य-पाप आत्माके निबना नहीं हो"े; जड़कम@ अथवा शरीरादिदमें वे

भाव नहीं हैं, इसशिलए व े भाव आत्माम ें हो" े ह ैं ऐसा मानना । परन्" ु रागादिद भावोंका निनमिमत्त कम~को ही मानकर अपनेको रागादिदका अक"ा@ मान"ा है, वह स्वयं क"ा@ होने पर भी अपनेको अक"ा@ मानकर, निनरुद्यमी बनकर, प्रमादी रहना चाह"ा है इसीशिलए कम~को दो\ दे"ा है । परन्"ु वह उसका दुःखदायक भ्रम है । 146।

यह मनुष्य-अव"ार धारण करके यदिद भवके अन्"की भनक अन्"रमें जागृ"

नहीं की "ो जीवन निकस कामका ? जिजसने भवसे छूटनेका उपाय नहीं निकया उसके और कीड़ों-कौओंके जीवनम ें क्या फक@ ह ै ? सत्समागमस े अन्"रके उल्लासपूव@क शिचदानन्दस्वभावका श्रणव करके, उसकी प्र"ीनि" कर"े ही "ेरे आत्मामें भवान्"की भनक आने लगेगी । इसशिलए भाई ! सत्समागमसे भव-भ्रमणके अन्"का उपाय शीघ्र ही कर । 147।

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दिदगम्बर मुनिनराज मान े पंचपरमे�ीम ें सन्धिम्मशिल" भगवान । अहा ! श्री कुन्दकुन्दाचाय@ भगवानने कहा है न ! निक—अरिरहन्"भगवानसे लेकर हमारे गुरुपयU" सब निवज्ञानघनमें निनमग्न थे, राग और निनमिमत्तमें "ो नहीं थे निकन्"ु भेदमें भी नहीं थे; वे सब निवज्ञानघनमें निनमग्न थे । 148।

निकसीने निकसीको "ीन कालमें ठगा नहीं है; कपटके भाव करके यह जीव स्वयं

ही अपनेको ठग"ा है । कोई माने निक ‘मैंने अमुक व्यशिक्तको कैसे ठगा?’ निकन्"ु भाई ! उसमें वह नहीं, "ू ही स्वयं ठगा गया है । सामनेवालेका "ो पु�य इ"ना कम था निक "ुझ जैसा ठग—धोखेबाज उस े मिमला, परन्" ु कपटके, छलप्रपंचके भाव करके "ून े स्वयं अपनेको ही धोखा दिदया है—ठगा है, वैसे "ीन कालमें कोई निकसीको ठग नही सक"ा । 149 ।

निवकारी अवस्था आत्माकी पया@यमें हो"ी है यह बा" स्वभावदृमिष्टसे गौण है ।

स्वभावदृमिष्टसे "ो जिज"ने परोन्मुखवृणित्तवाले भाव हो"े हैं वे सब पौद्गशिलक हैं । पया@यदृमिष्टसे वह निवकारी पया@य आत्माकी है निकन्"ु स्वभावदृमिष्टसे वह आत्माका स्वभाव नहीं है इसशिलए पौद्गशिलक है । 150।

ऐसा उत्तम योग निफर कब मिमलेगा ? निनगोदसे निनकलकर त्रसपना प्राप्" करना

शिचन्"ामणिण "ुल्य दुल@भ है, "ो निफर मनुष्यपना प्राप्" करना, जैनधम@का मिमलना "ो महादुल@भ है । धन-सम्पणित्त एवं प्रनि"�ा प्राप्" होना वह दुल@भ नहीं है । ऐसा जो उत्तम योग मिमला है वह अमिधक काल "क नहीं रहेगा, इसशिलए निबजलीकी चमकमें मो"ी निपरो लेने जैसा है । ऐसा सुयोग निफर कब मिमलेगा ? इसशिलए "ू दुनिनयाके मान-सन्मान एवं धन-सम्पणित्तकी मनिहमा छोड़कर, दुनिनया क्या कहेगी उसका ल्क्ष छोड़कर, एक बार मिमथ्यात्वको छोड़नेका जी"ोड़ प्रयत्न कर । 151।

जिजसप्रकार लोक-व्यवहारमें ननिनहालके गाँवके निकसी निवशे\ व्यशिक्तको ‘मामा’

कह"े ह ैं परन्"ु वह सच्चा मामा नहीं है, कथनमात्र—‘कहनेका मामा’—है; उसीप्रकार जिजसे आत्माकी श्रद्धा, ज्ञान एव ं रमण"ारूप निनश्चय ‘धम@’ प्रकट हुआ हो उस जीवके दया-दानादिद शुभरागको ‘कहेनका मामा’की भाँनि" व्यवहारस े ‘धम@’ कहा जा"ा ह ै । इसप्रकार ‘धम@’के कथनके निनश्चय-व्यवहार उन दोनों पक्षको जानना उसका नाम दोनों नयोंका ‘ग्रहण करना’ कहा है । वहाँ व्यवहारको अंगीकार करनेकी बा" नहीं है । ‘घीका घडा’ कहनेसे घड़ा घीका नहीं ह ै निकन्" ु मिमट्टीका है; उसीप्रकार व्र"ादिदको धम@ कहनेसे व्र"ादिदके शुभपरिरणाम धम@ नहीं हैं निकन्"ु आस्रव हैं, कथनमात्र ‘धम@’ है ।—ऐसा जानना

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उसे ‘ग्रहण करना’ कहा है । जहाँ व्यवहारनयकी मुख्य"ा सनिह" व्याख्यान हो वहाँ ‘ऐसा नहीं ह ै निकन्" ु निनमिमत्तादिदकी अपेक्षास े उपचार निकया है’—ऐसा जानना । दोनों नयोंके व्याख्यानोंको समान सत्याथ@ जानकर भ्रमरूप नहीं प्रव"@ना । पं. टोडरलजीने मोक्षमाग@प्रकाशकमें कहा है न !—

‘‘प्रश्न :—यदिद ऐसा है "ो जिजनमाग@में दोनों नयोंको ग्रहण करना कहा है—वह निकस प्रकार ?

उत्तर :—जिजनमाग@म ें कहीं "ो निनश्चयनयकी मुख्य"ास े व्याख्यान है, उसे "ो ‘सत्याथ@ ऐसा ही है’ ऐसा जानना; "था कहीं व्यवहारनयकी मुख्य"ासे व्याख्यान है, उसे ‘ऐसा है नहीं, निनमिमत्तादिदकी अपेक्षासे उपचार निकया है’ ऐसा जानना । इसप्रकार जाननेका नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है । परन्"ु दोनों नयोंके व्याख्यानको समान सत्याथ@ जानकर ‘ऐसा भी है और ऐसा भी है’ ऐसे भ्रमरूप प्रव"@न द्वारा "ो दोनों नयोंको ग्रहण करना नहीं कहा है ।’’ 152।

प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य-गुण-पया@यसे है । जीव जीवके द्रव्य-गुण-पया@यसे है

और अजीव अजीवके द्रव्य-गुण-पया@यसे है । इसप्रकार सभी द्रव्य परस्पर असहाय हैं; प्रत्येक द्रव्य स्वसहायी ह ै "था परस े असहायी ह ै । प्रत्येक द्रव्य निकसी भी परद्रव्यकी सहाय"ा ले"ा भी नहीं है और कोई भी परद्रव्यको सहाय"ा दे"ा भी नहीं है । शास्त्रमें ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ कथन आ"ा है, परन्"ु वह कथन उपचारसे है । वह "ो उस-उस प्रकारके निनमिमत्त-नैमिमणित्तक सम्बन्धका ज्ञान करानेके शिलए है । उस उपचारका सच्चा ज्ञान वस्"ुस्वरूपकी मया@दा समझमें आये "भी हो"ा है, अन्यथा नहीं हो"ा । 153।

एक जीव निनगोदसे निनकलकर मोक्षमाग@में आया वह अपने चारिरत्रादिद गुणोंकी

उपादानशशिक्तस े ही आया ह ै "था उसीप्रकार अपन े भावकलंककी प्रचुर"ाके कारण निनगोदमें रहा है । दोनों अवस्थाओंमें अपना ही स्व"न्त्र उपादान है; उसमें निनमिमत्त—कम@ आदिद—अहिक#शिचत्कर हैं । 154।

निनमिमत्तकी प्रधान"ासे कथन "ो हो"ा है, परन्"ु काय@ कभी भी निनमिमत्तसे नहीं

हो"ा । यदिद निनमिमत्त ही उपादानका काय@ करने लगे "ो निनमिमत्त ही स्वयं उपादान बन जाये, अथा@" ् निनमिमत्त निनमिमत्तरूपस े नहीं रहेगा, और उपादानका स्थान निनमिमत्तन े ल े शिलया इसशिलए निनमिमत्तसे णिभन्न उपादान भी नहीं रहेगा । इसप्रकार निनमिमत्तसे उपादानका काय@ माननेपर उपादान और निनमिमत्त दोनों कारणोंका लोप हो जायेगा । 155।

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प्रथम स्वरूपसन्मुख होकर निनर्तिव#कल्प अनुभूनि" हो—आनन्दका वेदन हो, "भी यथाथ@ सम्यग्दश@न हुआ कहा जा"ा है । उसके निबना प्र"ीनि" यथाथ@ नहीं कही जा"ी । प्रथम "त्त्वनिवचार करके दृढ़ निनण@य करे, पश्चा" ् अनुभूनि" हो"ी ह ै । "त्त्वनिनण@यम ें ही जिजसकी भूल हो उसको "ो यथाथ@ अनुभूनि" कहाँसे होगी ? नहीं होगी । मात्र निवकल्पोंसे "त्त्वनिवचार कर"ा रह े वह जीव भी सम्यक्त्वको प्राप्" नहीं हो"ा । अन्"रमें चै"न्यस्वभावकी मनिहमा लाकर उसकी निनर्तिव#कल्प अनुभूनि" करना ही सम्यग्दश@न ह ै । 156।

"त्त्वनिवचारके अभ्यासस े जीव सम्यग्दश@न प्राप्" कर"ा ह ै । जिजस े "त्त्वका

निवचार नहीं है वह देव-शास्त्र-गुरु "था धम@की प्र"ीनि" कर"ा है, अनेक शास्त्रोंका अभ्यास कर"ा है, व्र"-"प आदिद कर"ा है, "थानिप सम्यक्त्वके सन्मुख नहीं है—सम्यक्त्वका अमिधकारी नहीं है; और निवचारवाला उसके निबना भी सम्यक्त्वका अमिधकारी हो"ा ह ै । सम्यग्दश@नके शिलए मूल "ो "त्त्वनिवचारका उद्यम ही है; इसशिलए "त्त्वनिवचारकी मुख्य"ा है । 157।

स्वभावके शिसवा अन्यत्र कहीं मिमठास रह गई होगी "ो मुझ े वह चै"न्यकी

मिमठासमें नहीं आने देगी । परकी मिमठास "ुझे चै"न्यकी मिमठासमें बाधक होगी । इसशिलए हे भाई ! समझकर परकी मिमठास छोड़ दे । 158।

आत्माको समझेके शिलए जिजसको अन्"रमें सच्ची लगन एवं उत्क�ठा जागृ" हो

उसे अन्"रमें समझका माग@ मिमले निबना नहीं रह"ा । वह अपनी लगनके बलसे अन्"रमें माग@ करके निनज शुद्धात्मस्वरूपको प्राप्" कर"ा ही है । 159।

व्र"-"प-जपसे आत्मप्रान्विप्" होगी यह मान्य"ा जिजसप्रकार शल्य है, उसीप्रकार

शास्त्राभ्याससे आत्मा प्राप्" होगा ऐसी जो मान्य"ा है वह भी शल्य है । आत्मवस्"ुकी ओर दृमिष्ट करनेसे ही आत्मप्रान्विप्" हो"ी है । 160।

जीव जिजस समय राग-दे्व\के भाव कर े उसी समय उस े उसके फलका—

आकुल"ाका—वेदन हो"ा है । इसशिलए क"ा@पना और भोक्तापना दोनों एक साथ ही हैं । लोग बाह्य दृमिष्टसे देख"े हैं निक इसने पाप निकये हैं "ो यह नरकमें कब जायेगा ? यह झूठ बोल"ा है "ो इसकी जीभ क्यों "ुरन्" नहीं कट जा"ी ? परन्"ु भाई ! जिजस समय वह हिह#सा "था झूठ आदिदके भाव कर"ा है उसी समय उसके भावमें आकुल"ाका वेदन हो"ा है; आकुल"ाका वेदन ह ै वह अवगुणका ही वेदन ह ै । अपने सुखादिद स्वभावका घा"

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निकया इसशिलए उसी समय उसके भावमें फल मिमल गया; उसी समय गुणकी शशिक्तका जो परिरणमन घट गया वही उसे निवपरी" फल मिमल गया; जो अन्"रमें फल मिमल"ा है उसे नहीं देख"ा है और बाह्य फल मिमल"ा है उसीको देख"ा है वह पराश्रयदृमिष्टवाला है । बाहरसे फल मिमलना वह व्यवहार है । बाह्य फल कभी "ो दीघ@ कालमें और कभी अल्पकालमें मिमल"ा है, परन्"ु अन्"रंग फल "ो "ुरन्" ही—उसी क्षण मिमल जा"ा है । 161।

आत्मा त्रैकाशिलक है "ो उसका धम@ भी नित्रकाल एकरूप व"@"ा ह ै । धम@का

स्वरूप "ीनोंकाल एक ही है । जैनधम@ वह वस्"ुस्वरूप है अथा@" ् आत्माकी साधनामय शुद्ध"ा वह जैनधम@ है । उसे कालकी मया@दामें कैद नहीं निकया जा सक"ा; वस्"ुस्वरूपका निनयम कालभेदसे नहीं बदला जा सक"ा । वस्"ुस्वरूपका निकसी काल निवपरी" नहीं हो"ा । जिजसप्रकार चे"नवस्"ु जड या जड़वस्"ु चे"न हो जाये ऐसा निकसी काल नहीं हो सक"ा, उसीप्रकार जो निवकारीभाव ह ै उससे धम@ हो जाये—ऐसा भी निकसी काल नहीं हो"ा । इसशिलए वस्"ुस्वभावस्वरूप जैनधम@को कालकी मया@दाम ें कैद नहीं निकया जा सक"ा । 162।

सम्यग्दृमिष्ट जो अव्र"ादिदभाव हैं वे कही कम@की जबरदस्"ीमें नहीं हुए हैं, निकन्"ु

आत्माने स्वयं अपने आप उन्हें निकया है । निवकार करनेमें "था निवकारको हटानेमें आत्माकी ही प्रभु"ा है, दोनोंमें आत्मा स्वयं स्व"न्त्ररूपसे क"ा@ है ।

देखो, ‘रागादिदरूप परिरणमिम" होनेम ें भी आत्मा स्वय ं स्व"न्त्र प्रभ ु है’ ऐसा कहा, उसका अथ@ ऐसा कहा, उसका अथ@ ऐसा नहीं है निक राग क्रमबद्धपया@यमें भले हो"ा रहै । अरे भाई ! क्या अकेले निवकारमें ही परिरणमिम" होनेकी आत्माकी प्रभु"ा कही है, या निवकार "था अनिवकार दोनोंम ें परिरणमिम" होनेकी ? निवकार "था अनिवकार दोनोंमें स्व"न्त्ररूपसे परिरणमिम" होनेकी मेरे आत्माकी प्रभु"ा है—ऐसा जो निनण@य करे वह ‘प्रभु’ होकर निनम@लरूपसे परिरणमिम" हो"ा है, निवकाररूप जो अल्प परिरणमन हो"ा है उसकी उसे रुशिच नहीं हो"ी । एकान्" आस्रव-बन्धरूप मशिलन भावसे परिरणमिम" हो उसने वास्"वमें आत्माकी प्रभु"ाको जाना ही नहीं । 163।

मोक्षमाग@में व्यवहारका अस्तिस्"त्व है निकन्"ु उसका आश्रय नहीं है । साधककी

पया@यमें राग हो"ा है परन्"ु साधकपना इसके आश्रयसे नहीं है । धमvको भूमिमकानुसार राग हो"ा है निकन्"ु राग स्वयं धम@ नहीं है । धमvको शुभ रागरूप व्यवहार हो"ा है निकन्"ु उसके आश्रयसे वे लाभ नहीं मान"े । जिजसके सच्चा व्यवहार है उसे व्यवहारकी रुशिच है उसके सच्चा व्यवहार नहीं हो"ा । जिजसे दुःखका यथाथ@ ज्ञान हो उसे अकेला दुःख नहीं हो"ा और जिजसके अकेला दुःख है उसे उसका यथाथ@ ज्ञान नहीं हो"ा । सच्चे पुरु\ाथvको अनन्" भवकी शंका नहीं हो"ी और अनन्" भवकी शंकावालेको सच्चा पुरु\ाथ@ नहीं हो"ा

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। सव@ज्ञको जो पनिहचान"ा है उसके अनन्"भव नहीं हो"े "था सव@ज्ञने उसके अनन्"भव देखे नहीं है । 164।

हे जीव ! "ू बाह्य निव\योंमें सुख मानकर वहीं आसक्त हो"ा है, निकन्"ु ‘आत्मा’

भी एक निव\य है उसे " ू क्यों भूल जा"ा ह ै ? जिजसे लक्षमें लेनेसे अ"ीजिन्द्रय आनन्दका वेदन हो ऐसे परमशान्" आनन्दस्वरूप स्व-निव\यको छोड़कर दुःखदायी ऐसे पर-निव\योंमें ही " ू कहा ँ राच रहा ह ै ? ह े भाई ! अब अपने स्व-निव\यकी ओर देख । ऐसे महान निव\यको भूल न जा । मंगल, उत्तम और सुखदायी ऐसे स्व-निव\यको छोड़कर अधु्रव, अशरण "था दुःखदायी ऐसे पर-निव\यको कौन आदरेगा ? इस स्व-निव\यमें एकाकार हो"े ही "ुझे ऐसा लगेगा निक ‘अहो, ऐसा मेरा आत्मा ।’ और निफर इस स्वनिव\यके अ"ीजिन्द्रय आनन्दके स्वादके पास जग"के समस्" निव\य "ुझे अत्यन्" "ुच्छ भाशिस" होंगे । 165।

क्रमबद्ध पया@यका निनण@य कर" े हुए दृमिष्ट द्रव्य पर जा"ी ह ै "ब क्रमबद्ध

पया@यका सच्चा निनण@य हो"ा है । पया@यके क्रमके सामने देखनेसे क्रमबद्धका सच्चा निनण@य नहीं हो सक"ा, ज्ञायककी ओर �ल"ा ह ै "ब ज्ञायकका सच्चा निनण@य हो"ा है, उस निनण@यम ें अनन्" पुरु\ाथ@ आ"ा ह ै । ज्ञानके साथ आनन्दका स्वाद आय े "ब उसे सम्यग्दश@न हुआ है । सव@ज्ञने देखा है वैसा होगा, पया@य क्रमबद्ध हो"ी है, उसके निनण@यका "ात्पय@ ज्ञानस्वभावपर दृमिष्ट करना है । आत्मा क"ा@ नहीं निकन्"ु ज्ञा"ा ही है । 166।

मेरा स्वरूप निनर्तिव#कारी है, वी"राग परमात्मा जैसे हैं वैसा ही मैं हँू—ऐसा निनज

शुद्ध स्वरूपका भान नहीं निकया इसशिलए परिरभ्रमण दूर नहीं हुआ । व्र"के परिरणामसे पु�य बन्ध"ा है, अव्र"के परिरणामसे पाप बन्ध"ा है और आत्माकी स्वभावपया@य प्रकट करे "ो मोक्षपया@य प्रगट हो"ी है । दया, सत्य आदिद भाव पाप टालनेके बराबर हैं, निकन्"ु उनसे धीरे-धीरे धम@ होगा—चारिरत्र प्रकट होगा ऐसा माने "ो वह मान्य"ा मिमथ्या है । आत्माको समझे निबना एक भी भव कम नहीं हो सक"ा । 167।

परालम्बी दृमिष्ट वह बन्धभाव ह ै और स्वाश्रयदृमिष्ट ही मुशिक्तका भाव ह ै ।

स्वसन्मुख दृमिष्ट रहनेमें ही मुशिक्त है और बनिहमु@ख दृमिष्ट होनेसे जो व्र"-दान-भशिक्तके भाव आये वे सब पराणिश्र" होनेसे बन्धभाव हैं । वे सब शुभ परिरणाम आयें वह अलग बा" है, निकन्"ु उन्हें रखने योग्य या लाभरूप मानना वह पराश्रयदृमिष्ट—मिमथ्यादृमिष्ट है । 168।

मोही मनुष्य जहाँ ऐसे मनोरथका सेवन कर"ा है निक ‘मैं कुटुम्ब "था समाजका

अगुआ बनूँ, धन, मकान "था बालबच्चोंमें खूब ब�ँू और भरापूरा परिरवार छोड़कर मरँू’,

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वहा ँ गृहस्थाश्रममें रहनेवाले धमा@त्मा आत्माकी प्र"ीनि" सनिह" पूण@"ाके लक्षसे इन "ीन प्रकारके मनोरथोंका सेवन कर"े ह ैं : (1) मैं सव@ सम्बन्धसे छूटँू, (2) स्त्री आदिद बाह्य-परिरग्रह "था निव\य-क\ायरूप अभ्यन्"र परिरग्रहका स्वसन्मुख"ाके पुरु\ाथ@ द्वारा त्याग करके निनग्रUन्थ मुनिन होऊँ, (3) मैं अपूव@ समामिधमरण प्राप्" करँू । 169।

एक-एक गुणका परिरणमन स्व"न्त्र सीधा नहीं हो"ा परन्"ु अनन्"गुणमय अभेद

द्रव्यका परिरणमन होने पर साथ ही गुणोंका परिरणमन हो"ा है । एक-एक गुण पर दृमिष्ट लगानेसे गुण शुद्ध परिरणमिम" नहीं हो"ा निकन्"ु द्रव्य पर दृमिष्ट लगानेसे अनन्"गुणोंका निनम@ल परिरणमन हो"ा ह ै । गुणभेदके ऊपरकी दृमिष्ट छोड़कर अनन्" गुणमय द्रव्य पर दृमिष्ट लगानेसे द्रव्य पया@यमें शुद्धरूपसे परिरणमिम" हो"ा है । 170।

जिजनवाणीम ें मोक्षमाग@का कथन दो प्रकारस े ह ै : अख�ड आत्मस्वभावके

अवलम्बनसे सम्यग्दश@न-ज्ञान-चारिरत्ररूप मोक्षमाग@ प्रकट हुआ वह सच्चा मोक्षमाग@ है और उस भूमिमकाम ें जो महाव्र"ादिदका राग—निवकल्प ह ै वह मोक्षमाग@ नहीं ह ै निकन्" ु उसे उपचारसे मोक्षमाग@ कहा है । आत्मामें वी"राग शुजिद्धरूप जो निनश्चय मोक्षमाग@ प्रकट हुआ वह सच्चा, अनुपचार, शुद्ध, उपादान एवं यथाथ@ मोक्षमाग@ है, और उस काल व"@नेवाले अट्ठाईस मूलगुण आदिदके शुभरागको—वह सहचर "था निनमिमत्त होनेसे—मोक्षमाग@ कहना वह उपचार है, व्यवहार है । पं. टोडरमलजीने कहा है न !—

मोक्षमाग@ "ो कहीं दो नहीं हैं, मोक्षमाग@का निनरूपण दो प्रकारसे है । जहाँ सचे्च मोक्षमाग@को ‘मोक्षमाग@’ निनरूनिप" निकया ह ै वह ’निनश्चयमोक्षमाग@’ है, और जहा ँ जो मोक्षमाग@ "ो ह ै नहीं, परन्" ु मोक्षमाग@का निनमिमत्त ह ै अथवा सहचारी ह ै उस े उपचारसे मोक्षमाग@ कहें वह ‘व्यवहारमोक्षमाग@’ है; क्योंनिक निनश्चय-व्यवहारका सव@त्र ऐसा ही लक्षण ह ै । सच्चा निनरूपण सो निनश्चय, उपचार निनरूपण सो व्यवहार । इसशिलए निनरूपणकी अपेक्षास े दो प्रकार मोक्षमाग@ जानना । परन्" ु एक निनश्चयमोक्षमाग@ ह ै "था एक व्यवहारमोक्षमाग@ है—इस प्रकार दो मोक्षमाग@ मानना मिमथ्या है । 171 ।

सम्यग्दृमिष्ट माने जिजसे आत्माके पूण@ स्वभावका अन्"रमें निवश्वासपूव@क आत्माका

सच्चा श्रद्धान—सम्यग्दश@न—हुआ हो । मैं ज्ञान-आन्दादिद अनं" शशिक्तयोंसे परिरपूण@ पदाथ@ हँू—ऐसा प्रथम निवश्वास आया "ब अन्"रम ें आत्माका अनुभव हुआ । पूण@ स्वभावको ग्रहण करनेसे अन्"रमें निवश्वास हो"ा है । अनादिदसे जीवका निवश्वास व"@मान पया@यमें हैं; परन्" ु वह पया@य जहा ँ ह ै वहीं पीछे गहराईमें, उसके "लमें अख�ड पूण@ वस्" ु है; वह अनन्" अनन्" अपरिरमिम" शशिक्तयोंका सागर है; उसका जिजसे अन्"रमें निवश्वास आये और जो अन्"र अनुभवमें उ"र जाये उसे सम्यग्दृमिष्ट कह"े हैं । 172।

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‘मैं शुद्ध हूँ—शुद्ध हूँ’ ऐसी धारणासे अथवा ऐसे निवकल्पसे पया@यमें आनन्दका झरना नहीं हो"ा । पया@यमें आनन्दका झरना न हो "ब "क ज्ञान सच्चा नहीं है । आत्माका परमाथ@ स्वभाव लक्षमें लेकर पया@य उसमें अभेद हो"े ही पया@यमें परम आनन्दके मो"ी झर"े हैं । ‘द्रव्यस्वभाव शुद्ध है’ ऐसा जहाँ दृमिष्टमें शिलया वहाँ पया@यमें भी शुद्ध"ा हो गई । 173।

त्रैकाशिलक स"् चै"न्यप्रभु—"ेरा धु्रव "त्त्व—उसकी दृमिष्ट "ूने कभी नहीं की ।

व"@मान रागादिदकी अथवा अल्प जानपना आदिदकी जो अवस्था है, दशा है उस क्षणिणक दशा पर "ेरी दृमिष्ट है । परको अपना माने वह "ो बड़ी भ्रमणा है ही; परन्"ु जानने-देखनेकी व"@मान दशा जो "ेरी की हुई है, "ेरी है, "ुझमें है, "ेरे द्रव्यका व"@मान अंश—पया@य है, उस पर दृमिष्ट—पया@यदृमिष्ट—वह भी मिमथ्यात्व है । वह पया@यदृमिष्ट अनादिदकी है । पया@यके ओरकी दृमिष्ट छोड़कर "ेरी दृमिष्ट त्रैकाशिलक द्रव्यस्वभाव पर कभी नहीं आयी । मिमथ्यात्व एवं रागादिदके दुःखस े छूटनेका—निवकल्प "ोड़नेका—अन्य कोई उपाय नहीं है; अन्"र त्रैकाशिलक धु्रव द्रव्य-स्वभावकी—शुद्ध ज्ञायक परमभावकी—दृमिष्ट करना वही एक उपाय है । 174।

जिजस प्रकार खीरके स्वादके सामने लाल जुआरकी रोटीका स्वाद नहीं आ"ा,

उसीप्रकार जिजसने आनन्दस्वरूप निनज ज्ञायक प्रभुका स्वाद शिलया है उसे जग"की निकसी वस्"ुम ें पे्रम नहीं आ"ा, रस नहीं आ"ा, एकाकारपना नहीं हो"ा । स्वस्वभावके शिसवा जिज"ने निवकल्प एवं बाह्य जे्ञय उन सबका रस उड़ गया है । 175।

निकसीको ऐसा लगे निक जंगलमें मुनिनराजको अकेले-अकेले कैसे अच्छा लग"ा

होगा ? अरे भाई! जंगलके बीच निनजानन्दमें झूल"े मुनिनराज "ो परम सुखी हैं; जग"के राग-दे्व\का शोरगुल वहा ँ नहीं है । निकसी परवस्"ुके साथ आत्माका मिमलन ही नहीं है, इसशिलए परके सम्बन्ध निबना आत्मा स्वयमेव अकेला आप अपनेमें परम सुखी है । परके सम्बन्धसे आत्माको सुख हो—ऐसा उसका स्वरूप नहीं है । सम्यग्दृमिष्ट जीव अपने ऐसे आत्माका अनुभव कर"े है और उसीको उपादेय मान"े हैं । 176।

‘ज्ञानस्वरूप आत्मा है’ ऐस े गुणगुणीके भेदका निवकल्प, आत्माका अनुभव

करनेमें बीचमें आयेगा अवश्य, परन्"ु उसका आश्रय सम्यग्दश@नमें नहीं है । सम्यग्दृमिष्ट उस निवकल्परूप व्यवहारकी शरण लेकर रुक"े नहीं हैं, परन्"ु उसे भी छोड़ने योग्य समझकर अन्"रमें शुद्धात्माका उस निवकल्पसे णिभन्न अनुभव कर"े हैं । ऐसा अनुभव ही वी"रागका माग@ है । मोक्षमहलके शिलए आत्मामें सम्यग्दश@नरूपी शिशलान्यास करनेकी यह बा" है । समयसारमें श्री कुन्दकुन्दाचाय@देवने जैनधम@का रहस्य ब"ला"े हुए कहा है न !—

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व्यवहारनय अभूताथ6 दर्शिशंत, शुद्धनय भूताथ6 है;भूताथ6के आणिश्रत जीव सुदृनि9 निनश्चय होय है ।

निनश्चय-व्यवहार सम्बन्धी सब निववाद सुलझ जायें और आत्माको सम्यग्दश@नकी प्रान्विप्" हो ऐसे भाव इस गाथामें भरे हैं । 177।

स्वस्वभाव सन्मुख ज्ञान सो सम्यग्ज्ञान है । अकेला परसन्मुखज्ञान वह अज्ञान

है; क्योंनिक स्वस्वभावकी समू्पण@"ाके भान निबना, एक समयकी पया@यकी अपूण@"ामें पूण@"ा मानी है । इसशिलए पूण@ स्वभावको लक्ष्यमें लेकर पूण@ साध्यको साधना । 178 ।

आत्माको यथाथ@ समझनेके शिलए प्रमाण, नय, निनक्षेपरूप शुभनिवकल्पका

व्यवहार बीचम ें आये निबना नहीं रह"ा, परन्" ु आत्माके एकत्वके अनुभवके समय वह निवकल्प छूट जा"ा ह ै इसशिलए वह अभू"ाथ@ है; आत्माको सहायक नहीं ह ै । वस्"ुका अभेदरूप निनण@य करनेमें "था उसमें एकाग्ररूपसे स्थिस्थर होनेमें बीचमें नव "त्त्व "था नय, प्रमाणादिदके रागमिमणिश्र" निवचार आये निबना नहीं रह"े; परन्"ु उनसे अभेदमें नहीं पहँुचा जा"ा । आँगन छो़डे ़"ब घरमें प्रवेश हो"ा है, उसीप्रकार व्यवहाररूप आँगनको छोड़े "ब स्वभावरूप घरमें प्रवेश हो"ा है । 179।

पाँच इजिन्द्रयों सम्बन्धी निकन्हीं भी निव\योंमें आत्माका सुख नहीं है, सुख "ो

आत्माम ें ही है—ऐसा जानकर सव@ निव\योंमेंस े सुखबुजिद्ध दूर हो और असंगी आत्मस्वरूपकी रुशिच हो, "भी वास्"निवक ब्रह्मचय@जीवन हो"ा है । ब्रह्मस्वरूप आत्मामें जिज"ने अंश परिरणमन—आन्धित्मक सुखका अनुभव—हो उ"ने अंशमें ब्रह्मचय@जीवन है । जिज"नी ब्रह्ममें चया@ उ"ना परनिव\योंका त्याग हो"ा है ।

जो जीव परनिव\योंस े "था परभावोंस े सुख मान"ा हो उस जीवको ब्रह्मचय@जीवन नहीं हो"ा, क्योंनिक उसको निव\योंके संगकी भावना निवद्यमान है ।

वास्"वमें आत्मस्वभावकी रुशिचके साथ ही ब्रह्मचया@दिद सव@ गुणोंके बीज पड़े हैं । इसशिलए सच्चा ब्रह्मजीवन जीनेके अणिभला\ी जीवोंका प्रथम क"@व्य यह ह ै निक—अ"ीजिन्द्रय आनन्दसे परिरपूण@ "था सव@ परनिव\योंसे रनिह" ऐसे अपने आत्मस्वभावकी रुशिच करें, उसका लक्ष करें, उसका अनुभव करके उसमें "न्मय होनेका प्रयत्न करें । 180।

हे मोक्षके अणिभला\ी ! मोक्षका माग@ "ो सम्यग्दश@न-ज्ञान-चारिरत्रस्वरूप है । वह सम्यग्दश@नादिद शुद्ध भावरूप मोक्षमाग@ अन्"मु@ख प्रयत्न द्वारा सध"ा ह ै ऐसा भगवानका उपदेश है । भगवानने स्वयं प्रयत्न द्वारा मोक्षमाग@ साधा है और उपदेशमें भी यही कहा है निक ‘मोक्षका माग@ प्रयत्नसाध्य है’ । इसशिलए "ू सम्यग्दश@नादिद शुद्ध भावोंको ही मोक्षका पंथ जानकर सव@ उद्यम द्वारा उसे अंगीकार कर । हे भाई ! सम्यग्दश@नादिद शुद्ध

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भावोंसे रनिह" ऐसे द्रव्यचिल#गसे "ुझे क्या साध्य है ? मोक्ष "ो सम्यग्दश@न आदिद शुद्ध भावोंसे ही साध्य है इसशिलए उसका प्रयत्न कर । 181।

"त्त्वनिवचारम ें च"ुर एव ं निनम@ल शिचत्तवाला जीव गुणोंम ें महान ऐस े सद्गरुुके

चरणकमलकी सेवाके प्रसादसे अं"रमें चै"न्य परम"त्त्वका अनुभव कर"ा है । रत्नत्रयादिद गुणोंसे महान ऐसे गुरु शिशष्यसे कह"े ह ैं निक—परभावको जान, परसे भला-बुरा मानना छोड़कर, देहमें निवद्यमान होनेपर भी देह "था शुभाशुभ रागसे णिभन्न निनज असंग चै"न्य परम"त्त्वको अन्"रमें देख । ‘यहीं मैं हूँ’—ऐसे भावभासन द्वारा चै"न्यका अनुभव हो"ा है । श्रीगुरुके ऐसे वचन दृढ़"ासे सुनकर निनम@ल शिचत्तवाला शिशष्य अन्"रमें "द्रूप परिरणमिम" हो जा"ा है । ऐसी सेवा—उपासना—के प्रसादसे पात्र जीव आत्मानुभूनि" प्राप्" कर"ा है ।182।

द्रव्यमें गहरे उ"र जा, द्रव्यके पा"ालमें जा । द्रव्य वह चै"न्य-वस्"ु है, गहरा

दहका गम्भीर गम्भीर "त्त्व है, ज्ञान-आनन्दादिद अनन्" अनन्" गुणोंके निप�डरूप अभेद एक पदाथ@ है; उसमें दृमिष्ट लगाकर भी"र घुस जा । ‘घुस जा’का अथ@ ऐसा नहीं है निक पया@य द्रव्य हो जा"ी है; परन्"ु पया@यकी जानि", द्रव्यका आश्रय करनेसे, द्रव्य जैसी निनम@ल हो जा"ी है; उसे पया@य द्रव्यमें गहरी उ"र गई—अभेद हो गई—ऐसा कहा जा"ा है । 183।

दुनिनयामें मेरा ज्ञान प्रशिसद्ध हो, दुनिनया मेरी प्रशंसा करे और मैं जो कह"ा हँू

उससे दुनिनया खुश हो—ऐसा जिजसे अन्"रमें अणिभमानका प्रयोजन हो उसका धारणारूप ज्ञान, भले ही सच्चा हो "ो भी, वास्"वमें अज्ञान है—मिमथ्याज्ञान है । अलंकारिरक भा\ामें वण@न कर े "ो अन्"रमें वस्" ु प्राप्" हो जाये ऐसा नहीं ह ै । भी"र स्वभावकी दृमिष्ट करे, उसका लक्ष करे, उसका आश्रय करे, उसके सन्मुख जाये, "ब अ"ीजिन्द्रय शान्विन्" एवं आनन्दकी प्रान्विप्" हो"ी है । 184।

जैस े शिसद्धभगवन्" निकसीके आलम्बन निबना स्वयमेव पूण@ अ"ीजिन्द्रय

ज्ञानानन्दरूपस े परिरणमिम" होनेवाल े दिदव्य सामथ्य@वान देव हैं, उसीप्रकार सभी आत्माओंका स्वभाव भी ऐसा ही है । अहा ! ऐसा निनरालम्बी ज्ञान एवं सुखस्वभावरूप मैं हँू!—ऐसा लक्ष्यमें ले" े ही जीवका उपयोग अ"ीजिन्द्रय होकर उसकी पया@यमें ज्ञान "था आनन्द खिखल जा" े हैं, पूव@म ें जिजसका कभी अनुभव नहीं हुआ था ऐसी चै"न्यशान्विन्" वेदनम ें आ"ी है;—इसप्रकार आनन्दका अगाध समुद्र उसकी प्र"ीनि"में, ज्ञानम ें "था अनुभूनि"में आ जा"ा है; अपना परम इष्ट ऐसा सुख उसे प्राप्" हो"ा है, और अनिनष्ट ऐसा दुःख दूर हो"ा है । 185।

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अन्"रम ें स्वसंवेदनज्ञान खिखला वहा ँ स्वयंको उसका वेदन हुआ, निफर कोई

दूसरा उसे जाने या न जाने—उसकी कुछ ज्ञानीको अपेक्षा नहीं है । जिजस प्रकार सुगंमिध" पुष्प खिखल"ा है "ौ उसकी सुगन्ध अन्य कोई ले या न ले उसकी अपेक्षा उस पुष्पको नहीं है, वह "ो स्वयं अपनेमें ही सुगन्धसे खिखला है, उसीप्रकार धमा@त्माको अपना आनन्दमय स्वसंवेदन हुआ है वह निकसी दूसरेको दिदखलानेके शिलए नहीं है; दूसरे जानें "ो अपनेको शान्विन्" हो—ऐसा कुछ धमvको नहीं है; वह "ो स्वय ं अन्"रम ें अकेला-अकेला अपने एकत्वमें आनन्दरूपसे परिरणमिम" हो ही रहा है । 186।

जड़ शरीरके अंगभू" इजिन्द्रयाँ सो कहीं आत्माके ज्ञानकी उत्पणित्तका साधन नहीं

हैं । अ"ीजिन्द्रय ज्ञानस्वभावको साधन बनाकर जो ज्ञान हो, वही आत्माको जाननेवाला है । ऐसे ज्ञानकी अनुभूनि"से सम्यग्दश@न होनेके पश्चा"् मुमुक्षुको आत्मा सदा उपयोगस्वरूप ही ज्ञा" हो"ा है ।187।

अनादिद-अनन्" ऐसा जो एक निनज शुद्ध चै"न्यस्वरूप उसका, स्वसन्मुख होकर

आराधन करना ही परमात्मा होनेका सच्चा उपाय है । 188।

अहा ! आठ व\@का वह छोटा-सा राजकुमार जब दीक्षा लेकर मुनिन हो "ब वैराग्यका वह अद्भ"ू दृश्य ! आनन्दमें लीन"ा ! मानों छोटे-से शिसद्धभगवान ऊपरसे उ"रे हों ! वाह रे वाह ! धन्य वह मुनिनदशा !

जब वे छोटे-से मुनिनराज दो-"ीन दिदनमें आहारके शिलए निनकलें "ब आनन्दमें झूल"े-झूल"े धीरे-धीरे चले आ रहे हों, योग्य निवमिधका मेल मिमलनेपर आहारग्रहणके शिलए छोटे-छोटे दो हाथोंकी अंजशिल जोड़कर खडे़ हों, अहा ! वह दृश्य कैसा होगा !

पीछे "ो वे आठ व\@के मुनिनराज आत्माके ध्यानमें लीन होकर केवलज्ञान प्रगट करके शिसद्ध हो जाय ें ।—ऐसी आत्माकी शशिक्त ह ै । व"@मान भी निवदेहके्षत्रम ें श्री सीमन्धरादिद भगवानके पास आठ-आठ व\@के राजकुमारोंकी दीक्षाके ऐसे प्रसंग बन"े हैं । 186।

शास्त्रमें दो नयोंकी बा" हो"ी है । एक नय "ो जैसा स्वरूप है वैसा ही कह"ा

है और दूसरा नय जैसा स्वरूप हो वैसा नहीं कह"ा, निकन्"ु निनमिमत्तादिदकी अपेक्षासे कथन कर"ा ह ै । आत्माका शरीर है, आत्माके कम@ है, कम@स े निवकार हो"ा है—यह कथन व्यवहारका है; इसशिलए इसे सत्य नहीं मान लेना । मोक्षमाग@प्रकाशकमें पं. टोडरमलजीने कहा है निक—

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व्यवहारनयका श्रद्धान छोड़कर निनश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य ह ै । व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको व उनके भावोंको व कारण-काया@दिदकको निकसीको निकसीमें मिमलाकर निनरूपण कर"ा हैं; सो ऐसे ही श्रद्धानसे मिमथ्यात्व है; इसशिलए उसका त्याग करना । "था निनश्चयनय उन्हींको यथाव"् निनरूपण कर"ा है, निकसीको निकसीमें नहीं मिमला"ा; सो ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व हो"ा हैं; इसशिलए उसका श्रद्धान करना । 190।

बहु" ही अल्पकालम ें जिजस े संसारपरिरभ्रमणस े मुक्त होना ह ै ऐस े अनि"-

आसन्नभव्य जीवको निनज परमा"माके शिसवा अन्य कुछ उपादेय नहीं है । जिजसमें कम@की कोई अपेक्षा नहीं है ऐसा जो अपना शुद्धपरमात्म"त्त्व उसका आश्रय करनेसे सम्यग्दश@न हो"ा है, उसीका आश्रय करनेसे अल्पकालमें मुशिक्त हो"ी है; इसशिलए मोक्षके अणिभला\ी ऐसे अनि"-निनकटभव्य जीवको अपने शुद्धात्म"त्त्वका ही आश्रय करना योग्य है, उससे णिभन्न कुछ आश्रय करनेयोग्य नहीं है । इसशिलए हे मोक्षाथv जीव ! अपने शुद्धात्म"त्त्वको ही " ू उपादेय कर;—वही उपादेय ह ै ऐसी श्रद्धा कर, उसीको उपादेयरूप जान, "था उसीको उपादेय करके उसम ें स्थिस्थर हो । ऐसा करनेस े अल्पकालम ें "ेरी मुशिक्त होगी । 191।

देव-शास्त्र-गुरुका अपनी रुशिचपूव@क समागम होनेके पश्चा"् वे जो निनराली वस्"ु

कहना चाह" े ह ैं उस े अपन े रुशिचपूव@कके पुरु\ाथ@स े समझ े "ब पराश्रयदृमिष्ट छूटकर स्वाश्रयदृमिष्ट हो"ी है और "ब अगृनिह" मिमथ्यात्व छूट"ा है । प्रथम "ो देव-शास्त्र-गुरुके प्रनि" भशिक्त-निवनयका भाव हो"ा है परन्"ु व्र"-"प प्रथम नहीं हो"े । सत्य समझे "ब देव-शास्त्र-गुरु निनमिमत्त कहे जा"े हैं, परन्"ु व्र"ादिद सत्य समझनेमें निनमिमत्तरूप भी नहीं हैं ।

प्रथम सत्की रुशिच हो"ी है, भशिक्त हो"ी है, बहुमान हो"ा है, पश्चा"् स्वरूपको समझ"ा है और निफर व्र" आ"े हैं; प्रथम मिमथ्यात्व जा"ा है, निफर व्र" आ"े हैं,—वह क्रम है; परन्"ु मिमथ्यात्व छूटनेसे पूव@ व्र"-समिमनि"का उपदेश वह "ो क्रमभंग उपदेश है । 192।

यथाथ@ "त्त्वदृमिष्ट होनेके पश्चा" ् भी ज्ञानी देव-शास्त्र-गुरुकी भशिक्त आदिदके

शुभभावमें युक्त हो"े हैं, परन्"ु उससे धम@ होगा ऐसा वे नहीं मान"े । सम्यग्दश@न होनेके पश्चा"् स्थिस्थर"ामें आगे बढ़ने पर व्र"ादिदके परिरणाम आ"े हैं, परन्"ु उनसे धम@ नहीं मान"े । सम्यग्दश@न-ज्ञान-चारिरत्रकी निनम@ल शुद्ध पया@य जिज"ने-जिज"ने अंशमें प्रगट हो उसीको धम@ मान"े हैं । दया-पूजा-भशिक्त आदिदके शुभ परिरणाम "ो निवकारी भाव हैं; उनसे पु�यबन्ध हो"ा है परन्"ु धम@ नहीं हो"ा । 193 ।

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ज्ञा"ापनेके कारण निनश्चयसे सम्यग्दृमिष्ट निवरागी उदयमें आये हुए कम@को मात्र जान ही ले"ा है । भोगोपभोगमें होने पर भी ज्ञानी रागकी "था शरीरादिदकी समस्" निक्रयाएँ पर हैं ऐसा जान"ा है, स्वयं ज्ञा"ारूपसे परिरणमिम" हो रहा है न ! 194।

देव-शास्त्र-गुरुकी भशिक्त, पूजा, प्रभावनादिदके शुभभाव जैसे ज्ञानीको हो"े हैं

वैसे अज्ञानीको हो"े ही नहीं । 195।

शुभभाव अपनेमें हो"ा है इसशिलए उसे ‘अभू"ाथ@’ नहीं कहा जा"ा—ऐसा नहीं ह ै । शुभभाव अपनी पया@यम ें होनेपर भी उसके आश्रयस े निह"की प्रान्विप्" नहीं हो"ी, इसशिलए उसे ‘अभू"ाथ@’ कहा जा"ा है । अपनी पया@यमें उसका अस्तिस्"त्व ही नहीं है—ऐसा कहीं ‘अभू"ाथ@’का "ात्पय@ नहीं है; निकन्"ु उसके आश्रयसे कल्याणकी प्रान्विप्" नहीं हो"ी, क्योंनिक स्वभावभू" नहीं है,—ऐसा ब"लाकर उसका आश्रय छुड़ानेके शिलए उसे ‘अभू"ाथ@’ कहा है । नित्रकाल एकरूप रहनेवाला द्रव्यस्वभाव भू"ाथ@ है, उसके आश्रयसे कल्याण हो"ा ह ै । उस भू"ाथ@स्वभावकी दृमिष्टस े भेदरूप या रागरूप समस्" व्यवहार अभू"ाथ@ ह ै । अभू"ाथ@ कहो या परिरहरन े योग्य कहो । उसका परिरहार करके सहज स्वभावको अंगीकार करनेसे घोर संसारका मूल—मिमथ्यात्व—शिछद जा"ा है, और जीव शाश्व" परम सुखका माग@ प्राप्" कर"ा है । 196।

सम्यग्दृमिष्ट मनुष्यको अशुभ राग आ"ा है, परन्"ु अशुभ रागके कालमें आयुका

बन्ध नहीं हो"ा; क्योंनिक सम्यग्दृमिष्ट मनुष्य मरकर वैमानिनक देवमें उत्पन्न हो"ा है, इसशिलए शुभ रागमें ही आयु बन्ध"ी है । 197।

प्रश्न :—जिजस प्रकार स्वद्रव्य आदरणीय ह ै उसीप्रकार उसकी भावनारूप

निनम@ल पया@य आदरणीय कही जा"ी है ?उत्तर :–हा ँ । राग हेय ह ै उसकी अपेक्षासे निनम@ल पया@यको आदरणीय कहा

जा"ा है; और द्रव्यकी अपेक्षासे पया@य वह व्यवहार है, वह आश्रययोगाय नहीं होनेसे हेय कही जा"ी है । क्षामियक पया@य भी द्रव्यकी अपेक्षासे हेय कही जा"ी है, निकन्"ु रागकी अपेक्षासे क्षामियक भावको आदरणीय कहा जा"ा है । 198।

जिजज्ञास ु निवचार"ा ह ै निक—अरेरे! पूव@कालम ें मैंन े अनन्"बार बडे़-बड़ े शास्त्र पढे़, सत्समागमसे सुन े और उन पर व्याख्यान निकये; परन्"ु शुद्ध शिचद्रूप आत्माको मैंने कभी नहीं जाना, इसशिलए मेरा भवपरिरभ्रमण दूर नहीं हुआ । मैंने आत्माको बाहर �ँू�ा परन्"ु अन्"मु@ख होकर कभी अपने आत्माकी खोज नहीं की । आत्मामें ही अपनी स्वभाव

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साधनाका साधन होनेकी शशिक्त है । इसके शिसवा बाहरी शास्त्रोंमें भी ऐसी शशिक्त नहीं है निक आत्मसाधनाके साधन बनें । 199।

आत्माम ें अक"ृ@त्वस्वभाव "ो अनादिद-अनं" है; वह सदैव निवकारसे

उपरमस्वरूप ही है; उस स्वरूपकी अपेक्षासे आत्मा निवकारका क"ा@ है ही नहीं । जिजसने ऐसे स्वभावको स्वीकार निकया उसको पया@यमें भी मिमथ्यात्वादिदका अक"ा@पना हो जा"ा है । मिमथ्यात्वभाव हो"ा है और उसका अक"ा@ है—ऐसा नहीं है, परन्"ु मिमथ्यात्वभाव उसको हो"ा ही नहीं और अस्थिस्थर"ाका जो अल्प राग रह"ा है उसका श्रद्धामें स्वीकार नहीं है, इसशिलए उसका भी अक"ा@ है ।200।

सम्यग्दृमिष्ट धमा@त्माकी दृमिष्ट अन्"रके ज्ञानानन्दस्वभाव पर है, क्षणिणक रागादिद

पर नहीं । उसकी दृमिष्टमें रागादिदका अभाव होनेसे उसे (दृमिष्ट अपेक्षासे) संसार कहाँ रहा ? राग रनिह" ज्ञानानन्दस्वभाव पर दृमिष्ट होनेस े वह मुक्त ही है, उसकी दृमिष्टम ें मुशिक्त हीहै; मुक्तस्वभावके ऊपरकी दृमिष्टमें बन्धनका अभाव है । स्वभावके ऊपरकी दृमिष्ट बन्धभावको अपनेम ें नहीं स्वीकार"ी, इसशिलए स्वभावदृमिष्टवं" सम्यक्त्वी मुक्त ही ह ै । ‘शुद्धस्वभावनिनय"ः स निह मुक्त एव’—शुद्ध स्वभावमें निनश्चल ऐसा ज्ञानी वास्"वमें मुक्त ही है । 201 ।

रागादिद निवकार हो"ा है वह अपनेमें हो"ा है या परम ें ? अपनेमें ही हो"ा है ।

चै"न्यकी पया@यमें निवकार कहीं परवस्"ु नहीं करा दे"ी । परवस्"ु निवकार होनेमें निनमिमत्त है अवश्य, परन्"ु वह कहीं निवकार नहीं करा दे"ी । अकेला कोई निबगड़"ा नहीं है, दो हों "ब निबगड़"े हैं । दो चूनिड़याँ इकट्ठी हों "ो खनक"ी हैं, उसीप्रकार आत्मा परवस्"ु पर दृमिष्ट डाल"ा है "ब भूल हो"ी है, अकेला हो "ो भूल नहीं हो"ी । जैसे कोई पुरु\ परस्त्री पर दृमिष्ट डाले "ो भूल हो"ी है, उसीप्रकार आत्मा परवस्"ु पर दृमिष्ट डाल"ा है "ब भूल हो"ी । परन्"ु स्वभाव पर दृमिष्ट डाले "ो भूल नहीं हो"ी । इसशिलए परवस्"ु आत्माको निवकार होनेमें निनमिमत्त है, परन्"ु परवस्"ु निवकार नहीं करा दे"ी । 202।

दश@नमोह मन्द निकये निबना वस्"ुस्वभाव ख्यालमें नहीं आ"ा और दश@नमोहका

अभाव निकये निबना आत्मा अनुभवमें नहीं आ सक"ा । 203।

बाहरकी निवपदा यह वास्"वमें निवपदा नहीं है और बाहरकी सम्पदा वह सम्पदा नहीं है । चै"न्यका निवस्मरण ही महान निवपदा है और चै"न्यका स्मरण ही वास्"वमें सच्ची सम्पदा है । 204।

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जहा ँ चारों ओर चिस#ह घूम रह े हों वहा ँ जैस े नींद नहीं आ"ी, हशिथयार लेकर

पुशिलस अपनेको मारनेके शिलए निफर रहा हो "ो वहाँ भी जैसे नींद नहीं आ"ी, उसीप्रकार जब "क "त्त्वनिनण@य न कर ले, "ब "क आत्माथvको सुखसे नींद नहीं आ"ी । 205।

अन्"रमें अ"ीजिन्द्रय आनन्दको चुककर बाह्य इजिन्द्रयनिव\योंमें मूर्च्छिच्छ#" बनिहरात्मा

निनरन्"र दुःखी हैं और ‘मेरा सुख मेरे आत्मामें ही हैं, बाह्य इजिन्द्रयनिव\योंमें मेरा सुख नहीं है’ ऐसी दृढ़ प्र"ीनि" करके अन्"मु@ख होकर जो आत्माके अ"ीजिन्द्रय सुखका स्वाद ले"ा है वह धमा@त्मा निनरन्"र सुखी है । निनज चै"न्यनिव\यको चुककर बाह्य निव\योंमें सुख-दुःखकी बुजिद्धसे अज्ञानी जीव दिदन-रा" जल रहे ह ैं । अरे जीवों ! परम आनन्दसे भरपूर अपने आत्माको सम्हालो और आत्माके शान्"रसमें मग्न होओ । 206।

कोई जीव नग्न दिदगम्बर मुनिन हो गया हो, वस्त्रका एक "ाना-बाना भी न हो,

परन्" ु परवस्" ु मुझे लाभदायी ह ै ऐसा अणिभप्राय है, "ब "क उसके अणिभप्रायमेंस े "ीन कालकी एक भी वस्"ु छूटी नहीं है । परके साथ एकत्वबुजिद्ध खड़ी है, परवस्"ु मुझे लाभ कर"ी ह ै ऐसा अणिभप्राय बना हुआ है, "ब "क "ीन काल "ीन लोकके अनन्" पदाथ@ उसके भावमेंसे नहीं छूटे हैं । 207 ।

अरे जीव ! एक क्षण निवचार "ो कर, निक संयोग बढ़नेसे "ेरे आत्मामें क्या बढ़ा

? अरे ! संयोगोंके बढ़नेसे आत्माकी वृजिद्ध मान"ा वह "ो मनुष्यदेहको हार जाने जैसा है । भाई ! "ेरे ज्ञानस्वरूप आत्माके साथ ये संयोग एकमेक नहीं हैं; इसशिलए उनसे णिभन्न"ाकी प्र"ीनि" कर । 208 ।

जिजसे मोक्ष निप्रय हो उसे मोक्षका कारण निप्रय हो"ा है, और बन्धका कारण उसे

निप्रय नहीं हो"ा । मोक्षका कारण "ो आत्मस्वभावमें अन्"मु@ख झुकाव करना ही है, "था बनिहमु@ख झुकाव "ो बन्धका ही कारण है; इसशिलए जिजस े मोक्ष निप्रय ह ै ऐस े मोक्षाथv जीवको अन्"मु@ख झुकावकी ही रुशिच हो"ी है, बनिहमु@ख ऐसे व्यवहारभावोंकी रुशिच उसे नहीं हो"ी ।

प्रथम अन्"मु@ख झुकावकी बराबर रुशिच जमना चानिहए; निफर भले भूमिमकानुसार व्यवहार भी हो, निकन्"ु धमvको—मोक्षाथvको वह आदरणीय नहीं है, परं"ु वह जे्ञयरूप "था हेयरूप ह ै । आदर "था रुशिच "ो अन्"मु@ख झुकावकी ही होनेसे, ज्यों-ज्यों वह अन्"मु@ख हो"ा जा"ा ह ै त्यों-त्यों बनिहमु@ख भाव छूट" े जा" े ह ैं । इस प्रकार निनश्चय-

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स्वभावम ें अन्"मु@ख होनेपर बनिहमु@ख ऐस े व्यवहारभावोंका निन\ेध हो जा"ा ह ै ।—यही मोक्षकी रीनि" है । 209।

पहले निनण@य करो निक इस जग"में सव@ज्ञ"ाको प्राप्" कोई आत्मा है या नहीं ? यदिद सव@ज्ञ ह ै "ो उनको वह सव@ज्ञ"ारूपी काय@ निकस खानमेंस े निनकला ह ै ? चै"न्यशशिक्तकी खानम ें सव@ज्ञ"ारूपी काय@का कारण होनेकी शशिक्त पड़ी ह ै । ऐसी चै"न्यशशिक्तके सन्मुख होकर सव@ज्ञ"ाका स्वीकार करने पर उसमें अपूव@ पुरु\ाथ@ आ"ा है । ‘सव@ज्ञ"ाका स्वीकार करनेसे पुरु\ाथ@ उड़ जा"ा है’ यह मान्य"ा "ो एक बहु" बड़ी भूल ह ै । केवलज्ञान और उसके कारणकी प्र"ीनि" करनेस े जिजसको स्वसन्मुख"ाका अपूव@ पुरु\ाथ@ प्रकट हो"ा ह ै वह जीव निनःशंक हो जा"ा ह ै निक अपन े आत्माके आधारसे सव@ज्ञकी प्र"ीनि" करके मैंने मोक्षमाग@का पुरु\ाथ@ प्रारम्भ निकया है, और सव@ज्ञके ज्ञानमें भी इसीप्रकार आया है;—मैं अल्पकालमें मोक्ष प्राप्" करनेवाला हूँ और भगवानके ज्ञानमें भी ऐसा ही आया है । 210।

जिजसप्रकार घोर निनद्रामें सो"े हुएको आसपासकी दुनिनयाका भान नहीं रह"ा,

उसीप्रकार चै"न्यकी अत्यन्" शान्विन्"म ें स्थिस्थर हुए मुनिनवरोंको जग"के बाह्य निव\योंमें निकस्थि±च" भी आसशिक्त नहीं हो"ी; भी"र स्वरूपकी लीन"ामेंसे बाहर निनकलना जरा भी अच्छा नहीं लग"ा; आसपास जंगलके बाघ और चिस#ह दहाड़ रहे हों "थानिप उनसे जरा भी नहीं डर"े या स्वरूपकी स्थिस्थर"ासे निकस्थि±च"् भी चलायमान नहीं हो"े । अहा ! धन्य वह अद्भ"ु दशा ! 211।

अहा! देखो, यह परम सत्यमाग@ । व"@मानम ें भगवान सीमन्धर परमात्मा

पूव@निवदेहक्षेत्र ें निबराज रह े हैं, वहा ँ जाकर श्री कुन्दकुन्दाचाय@देवन े भगवानके पास दिदव्यध्वनिन सुन आये, और निफर उन्होंने इन शास्त्रोंमें परम सत्यमाग@की स्पष्ट"ा की है । अहा, कैसा सत्य माग@ ! कैसा स्पष्ट माग@ ! कैसा प्रशिसद्ध माग@ ! लेनिकन व"@मानमें लोग शास्त्रोंके नामसे भी माग@में बड़ी गडबडी़ पैदा कर रहे हैं । क्या निकया जाये ? ऐसा ही काल है ! परन्"ु सत्य माग@ "ो जो है सो ही रहेगा । शुद्धोपयोगरूप साक्षा"् मोक्षमाग@ "ीनों काल जयवन्" है, वही अणिभनन्दनीय है । 212।

कम@रूपसे आत्मा ही परिरणम"ा है, क"ा@रूपसे भी आत्मा स्वयं ही परिरणम"ा

है, साधनरूपसे भी स्वयं ही परिरणम"ा है । क"ा@, कम@, करण आदिद छह कारक णिभन्न-णिभन्न नहीं ह ैं निकन्" ु अभेद ह ैं । आत्मा स्वय ं अकेला ही क"ा@-कम@-करण-सम्प्रदान-अपादान-अमिधकरणरूप हो"ा है; छह कारक "था ऐसी अनन्" शशिक्तयोंरूप आत्मा स्वयं

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ही परिरणम"ा है । इस प्रकार एकसाथ अनन्" शशिक्तयाँ ज्ञानमूर्ति"# आत्मामें उछल रही हैं, इसशिलए वह भगवान अनेकान्"मूर्ति"# है । 213।

अहा ! मुनिनदशा कैसी हो"ी ह ै उसका निवचार "ो करो ! छठवे-सा"वें

गुणस्थानमें झूलनेवाले वे मुनिनस्वरूपमें गुप्" हो गये हो"े हैं । प्रचूर स्वसंवेदन ही मुनिनका भावचिल#ग है, और शरीरकी नग्न"ा—वस्त्रपात्र रनिह" निनग्रUथ दशा—वह उनका द्रव्यचिल#ग है । उनको अपवाद—व्र"ादिदका शुभराग आ"ा है, निकन्" ु वस्त्रग्रहणका अथवा अधःकम@ "था उदे्दशिशक आहार लेनेका भाव नहीं हो"ा । अहा ! श्री ऋ\भदेव भगवानको मुनिनदशामें प्रथम छ मनिहनेके उपवास थे, निफर आहारका निवकल्प उठ"ा था, परन्"ु मुनिनकी निवमिधपूव@क आहार नहीं मिमलनेस े निवकल्प "ोड़कर भी"र आनन्दमें रह" े थ े । आनन्दमें रहना ही आत्माका क"@व्य है । 214।

अहो ! सम्यग्दश@न महारत्न ह ै । शुद्ध आत्माकी निनर्तिव#कल्प प्र"ीनि" ही सव@

रत्नोंमें महारत्न है । लौनिकक रत्न "ो जड़ हैं, निकन्"ु देहसे णिभन्न शुद्धचै"न्यका भान करके जो स्वानुभवयुक्त दृढ़ श्रद्धा प्रकट हो"ी है वही सम्यग्दश@न महारत्न है । 215।

धमा@त्माको अपना रत्नत्रयस्वरूप आत्मा ही परमनिप्रय है, संसार सम्बन्धी दूसरा

कुछ निप्रय नहीं ह ै । जिजस प्रकार गाय को अपन े बछडे़के प्रनि" और बालकको अपनी मा"ाके प्रनि" कैसा पे्रम हो"ा है, उसीप्रकार धमा@त्माको अपन े रत्नत्रयस्वभावरूप मोक्षमाग@के प्रनि" अभेदबुजिद्धस े परम वात्सल्य हो"ा ह ै । अपनेको रत्नत्रयधम@म ें परम वात्सल्य होनेसे अन्य रत्नत्रयधम@धारी जीवोंके प्रनि" भी उनको वात्सल्य उमड़े निबना नहीं रह"ा । 216।

स्वग@में रत्नोंके �ेर मिमलें उसमें जीवका कुछ कल्याण नहीं है । सम्यग्दश@नरत्न

अपूव@ कल्याणकारी है, सव@ कल्याणका मूल है । उसके निबना जो भी कुछ करे वह "ो सब ‘राख पर लीपन’के समान व्यथ@ है । सम्यग्दृमिष्ट जीव लक्ष्मी-पुत्रादिदके शिलए शी"ला मा"ा आदिद निकन्हीं देवी-देवोंकी मान्य"ा नहीं कर"ा । लोकमें जो मन्त्र-"न्त्र-औ\धादिद हैं वे "ो पु�य हो "ो फल दे"े हैं । परन्"ु यह सम्यग्दश@न सव@ रत्नोंमें ऐसा अनुपम श्रे� रत्न है निक जिजसकी मनिहमा देव भी कर"े हैं । 217।

मात्र निवकल्पसे "त्त्वनिवचार कर"ा रहे "ो वह जीव सम्यक्त्व प्राप्" नहीं पा"ा ।

अन्"रमें चै"न्यस्वभावकी मनिहमा करके उसकी निनर्तिव#कल्प अनुभूनि" करना ही सम्यग्दश@न है । 218 ।

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आत्माका स्वभाव त्रैकाशिलक परमपारिरणामिमक भावरूप है; उस स्वभावको

पकड़नेसे ही मुशिक्त हो"ा है । वह स्वभाव कैसे पकड़में आ"ा है? रागादिद औदमियक भावों द्वारा वह स्वभाव पकड़में नहीं आ"ा; औदमियक भाव "ो बनिहमु@ख हैं और पारिरणामिमक स्वभाव "ो अन्"मु@ख है । बनिहमु@ख भाव द्वारा अन्"मु@ख भाव पकड़में नहीं आ"ा । "था जो अन्"मु@खी औपशमिमक, क्षायोपशमिमक, क्षामियकभाव हैं उनके द्वारा वह पारिरणामिमक भाव यद्यनिप पकड़में आ"ा है, "थानिप उन औपशमिमकादिद भावोंके लक्ष्यसे वह पकड़में नहीं आ"ा । अन्"मु@ख होकर उस परम स्वभावको पकड़नेसे औपशमिमकादिद निनम@लभाव प्रकट हो"े हैं । वे भाव स्वयं काय@रूप हैं, और परमपारिरणामिमक स्वभाव कारणरूप परमात्मा है । 219।

रागादिदस े णिभन्न शिचदानन्दस्वभावका भान "था अनुभव हुआ वहा ँ धमvको

उसकी निनःसंदेह खबर पड़"ी है निक अहो ! आत्माके निकसी अपूव@ आनन्दका मुझे वेदन हुआ, सम्यग्दश@न हुआ, आत्मामेंसे मिमथ्यात्वका नाश हो गया । ‘म ैं सम्यग्दृमिष्ट हँूगा या मिमथ्यादृमिष्ट ?’—ऐसा जिजसे सन्देह है वह निनयमसे मिमथ्यादृमिष्ट है । 220 ।

आत्मा व्यवहारस े निबगड़ा कहो "ो सुधारा जा सक"ा है, परन्" ु परमाथ@से

निबगड़ा कहोगे "ो सुधारा नहीं जा सक"ा । वास्"वमें "ो आत्मा निबगड़ा नहीं है परन्"ु मात्र व"@मान पया@यम ें निवकार हुआ ह ै इसशिलए सुधारा जा सक"ा है, निवकारको हटाया जा सक"ा है । निवकारी परिरणाम सब कमा@धीन हो"े हैं उन्हें अपना माने, अपना स्वभाव माने, मैं उनका उत्पादक—क"ा@ हूँ ऐसा माने वह अज्ञानी है; परन्"ु मैं अवगुणका क"ा@ नहीं हँू, वह मेरा कम@ नहीं है उसका मैं उत्पादक नहीं हँू, वह मेरा नहीं है, वह मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा माने वह सम्यग्ज्ञानी है । 221।

जो कोई आत्मा जड़-कम@की अवस्थाको "था शरीरादिदकी अवस्थाको कर"ा

नहीं है, उस े अपना क"@व्य नहीं मान"ा, "न्मयबुजिद्धस े परिरणम"ा नहीं ह ै परन्" ु मात्र जान"ा ह ै अथा@" ् "टस्थ रह"ा हुआ—साक्षीरूपस े जान"ा है, वह आत्मा ज्ञानी ह ै । 222।

निवकार जीवकी ही पया@यम ें हो"ा ह ै उस अपेक्षासे "ो उसे जीवका जानना;

परन्"ु जीवका स्वभाव निवकारमय नहीं है, जीवका स्वभाव "ो निवकार रनिह" है । इस प्रकार स्वभावदृमिष्टसे निवकार जीवका नहीं है, परन्"ु पुद्गलके लक्ष्यसे हो"ा है इसशिलए वह पुद्गलका ह ै ऐसा जानना । इस प्रकार दोनों पक्ष जानकर शुद्धस्वभावम ें �लनेस े पया@यमेंस े भी

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निवकार हट जा"ा है और इसप्रकार जीव निवकारका साक्षा"् अक"ा@ हो जा"ा है । इसशिलए परमाथ@"ः जीव निवकारका क"ा@ नहीं है । 223।

चाहे जैसे संयोगमें, क्षेत्रमें या कालमें जो जीव स्वयं निनश्चय-स्वभावका आश्रय

करके परिरणम"ा है वही जीव मोक्षमाग@ "था मोक्षको प्राप्" हो"ा है; और जो जीव शुद्ध स्वभावका आश्रय नहीं कर"ा "था पराणिश्र" ऐसे व्यवहारका आश्रय कर"ा है वह जीव निकसी संयोगमें, क्षेत्रम ें या कालम ें सम्यग्दशा@दिद प्राप्" नहीं कर"ा । "ात्पय@ यह ह ै निक शुद्धनय त्यागने योग्य नही है, क्योंनिक उसके अत्यागसे बन्ध नहीं हो"ा और उसके त्यागसे बन्ध ही हो"ा है । 224।

स्फदिटकमें लाल "था काली झलक पड़"ी ह ै उस समय भी उसका जो मूल

निनम@ल स्वभाव है, उसका अभाव नहीं हुआ है; यदिद निनम@ल"ाकी शशिक्त न हो "ो लाल-काले पुष्प दूर हो जाने पर जो निनम@लपना प्रकट हो"ा है वह कहाँसे आया ? उसीप्रकार आत्मामें पु�य-पापके भाव हो"े हैं उस समय भी आत्माके मूल शुद्ध स्वभावका अभाव नहीं हुआ है । यदिद भी"र शुद्ध"ारूप होनेकी शशिक्त न हो "ो, पु�य-पापके परिरणामोंके समय शशिक्तरूप शुद्ध"ाका नाश हो गया हो "ो, पया@यमें शुद्ध"ा आयेगी कहाँसे? द्रव्यमें शशिक्तरूपसे शुद्ध"ा भरी है "ो पया@यमें शुद्ध"ा प्राप्" हो"ी है; प्राप्"मेंसे प्रान्विप्" हो"ी है; जिजसमें हो उसमेंसे प्रगट"ी है, जिजसमें न हो उसमेंसे क्या प्रगटेगी ? 226।

पर लक्ष्यस े होनेवाल े रागादिद भाव "ो परवश होनेका कारण हैं; उनस े "ो

कम@बन्धन हो"ा है और शरीर मिमल"ा है; उनसे कहीं अशरीरी नहीं हुआ जा"ा । स्ववश ऐसा जो शुद्धरत्नत्रयभाव है वही कम@बन्धन "ोड़कर अशरीरी शिसद्ध होनेका उपाय ह ै । जिजसे मोक्ष प्राप्" करना हो, शिसद्ध होना हो, उसे "ो यही अवश्य करनेयोग्य काय@ है, अथा@"् अन्"मु@ख होकर आत्माके आश्रयसे सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान "था एकाग्र"ा करने योग्य है; उसके द्वारा निनयमसे मुशिक्त हो"ी है । 227।

बाह्य निक्रयाका�डमें लोगोंको रुशिच हो गई है, और अन्"रकी ज्ञायकवस्"ु छूट

गई है । वस्"ु क्या ह ै ? उसका स्वरूप कैसा ह ै ? इत्यादिद प्रकारसे उसका मंथम होना चानिहए । वस्"ुस्वरूपको समझे निबना जीवोंको सीधा धम@ करना ह ै ! प्रनि"मा धारण कर ले"े हैं, हो सका "ो साधु बन जा"े हैं; बस, हो गया धम@ ! निकन्"ु भाई ! सम्यग्दश@नके निबना प्रनि"मा या साधुपना कैसा ? आत्माथvका श्रवण-पठन-मनन सब मुख्य"ः आत्माके शिलये है, सम्यग्दश@न प्राप्" करनेके शिलये है ।228।

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यह देह "ो कच्ची मिमट्टीके घडे़ जैसा है । जिजसप्रकार कच्ची मिमट्टीके घडे़को चाहे जिज"ना धोया जाये "थानिप उसमेंसे कीचड़ ही उखड़"ा है, उसीप्रकार स्नानादिद द्वारा देहका चाहे जिज"ना लालन-पालन निकया जाये "थानिप वह "ो अशुशिचका ही घर है । ऐसे देहको पनिवत्र एक ही प्रकारस े माना गया ह ै । निकस प्रकारस े ? "ो कह" े ह ैं :—जिजस देहमें सम्यग्दश@न-ज्ञान-चारिरत्ररूप रत्नत्रयधम@की आराधना की जाय े उस देहको रत्नत्रयके प्रभावसे पनिवत्र माना जा"ा है; यद्यनिप निनश्चयसे "ो रत्नत्रयकी ही पनिवत्र"ा है, परन्"ु उसके निनमिमत्तसे देहको भी व्यवहारसे पनिवत्र कहा जा"ा है । 229।

जिजसे रागका रस है—वह राग भले ही भगवानकी भशिक्तका हो अथवा यात्राका

हो—वह भगवान आत्माके अ"ीजिन्द्रय आनन्दरससे रिरक्त है, रनिह" है और मिमथ्यादृमिष्ट है; "था जो च"ुथ@गुणस्थानमें सम्यक्त्वी है, निक जिजसने निनज रस—आत्माके आनन्दका रस—चखा है, वह निनजरससे ही रागसे निवरक्त है । असंख्य प्रकारसे शुभ राग हो, परन्"ु धमvको रागका रस नहीं हो"ा । शुद्ध चै"न्यके अमृ"मय स्वादके आग े धमvको रागका रस निव\"ुल्य भाशिस" हो"ा है । 230।

परकी ओर उपयोगके समय भी, धमvको सम्यग्दश@न-ज्ञानपूव@क जिज"ना

वी"रागभाव हुआ है उ"ना धम@ "ो स"" व"@"ा ही है; ऐसा नहीं है निक जब स्वमें उपयोग हो "भी धम@ हो और जब परमें उपयोग हो "ब धम@ हो ही नहीं । 231।

शिशष्य गुरुको कह"ा है निक अहो प्रभु ! आपने मुझ पर परम उपकार निकया है,

मुझ पामरको आपने निनहाल कर दिदया है, आपने मुझे "ार दिदया है आदिद । अपने गुणकी पया@य निवकशिस" करनेके शिलए व्यवहारमें गुरुके प्रनि" निवनय एवं नम्र"ा कर"ा है, गुरुके गुणोंका बहुमान कर"ा है; और निनश्चयसे अपने पूण@ स्वभावके प्रनि" निवनय, नम्र"ा "था बहुमान कर"ा है । निनश्चयमें अपनेको पूण@ स्वभावका बहुमान है इसशिलए व्यवहारमें देव-शास्त्र-गुरुका बहुमान आये निबना नहीं रह"ा । देव-गुरु गुणोंमें निवश\े ह ैं इसशिलए भी"र समझकर निनमिमत्त पर आरोप देकर बोल"ा है निक ‘आपने मुझे "ार दिदया’ वह अलग बा" है, परन्"ु यदिद वैसा मान बैठे "ो वह मिमथ्या है । 232 ।

शुद्ध परिरणाम वह आत्माका धम@ है । उसमें सम्यग्दश@न-ज्ञान-चारिरत्र "ीनों आ

जा"े हैं, परन्"ु व्र"ादिदका राग उसमें नहीं आ"ा । यह शुद्ध रत्नत्रयरूप जो वी"रागभाव है वही सव@ शास्त्रोंका "ात्पय@ है, वही जिजनशासन है, वह सव@ज्ञ जिजननाथकी आज्ञा है और वही वी"रागी सन्"ोंका आदेश है । इसशिलए उसे ही श्रेयरूप जानकर आराधना करो । 233।

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हे जीव ! एक बार ह\@ "ो ला निक ‘अहो, मेरा आत्मा ऐसा !’ कैसा ?—निक

शिसद्धभगवान जैसा । शिसद्धभगवान जैसी ज्ञान-आनन्दकी परिरपूण@ शशिक्त मेरे आत्मामें भरी पड़ी है, मेरे आत्माकी शशिक्त नष्ट नहीं हो गई है । ‘अरेर े ! मैं दब गया, निवकारी हो गया, अब मेरा क्या होगा ?’—इस प्रकार डर म", ह"ाश न हो । एकबार स्वभावका ह\@ ला, स्वरूपका उत्साह प्रगट कर, उसकी मनिहमा लाकर अपने पुरु\ाथ@को उछाल, "ो "ुझे अपने अपूव@ आह्लादका अनुभव होगा, और "ू शिसद्धपदको प्राप्" करेगा । 234।

जिजसने निनज शुद्धात्मद्रव्यका स्वीकार करके परिरणनि" उस ओर मोड़ दी है ऐसे

धमा@त्माका अब प्रनि"क्षण मुशिक्तकी ओर ही प्रयाण हो रहा है, वह मुशिक्तपुरीका पशिथक हुआ है । ‘मुझे अनन्" संसार होगा ?’ ऐसी शंका अब उसे उठ"ी ही नहीं; स्वभावके बलसे उसे ऐसी निनःशंक"ा है निक ‘अब अल्पकालमें ही मेरी मुक्तदशा खिखल जायेगी’ । 235।

जिजसे जिजसकी रुशिच हो वह बारम्बार उसकी भावना भा"ा है, और भावनाके

अनुसार भवन हो"ा है । जैसी भावना वैसा भवन । शुद्धात्मस्वभावकी बारम्बार भावना करनेसे वैसा भवन—परिरणमन हो जा"ा है । इसशिलए जहाँ "क आत्माकी यथाथ@ श्रद्धा, ज्ञान और अनुभव न हो "ब "क सत्समागमसे बारम्बार प्रीनि"पूव@क उसका श्रवण मनन "था भावना कर"े ही रहना । उस भावनासे ही भवका नाश हो"ा है । 236।

अर े ! एक गाँवसे दूसरे गाँव जाना हो "ब लोग रास्"ेमें खानेके शिलये कलेवा

साथ ले जा"े हैं; "ो निफर यह भव छोड़कर परलोकमें जानेके शिलए आत्माकी पनिहचानका कुछ कलेवा शिलया ? आत्मा कहीं इस भव जिज"ना नहीं है; यह भव पूण@ करके पीछे भी आत्मा "ो अनन्"काल अनिवनाशी रहनेवाला है; "ो उस अनन्"काल "क उसे सुख मिमले उसके शिलए कुछ उपाय "ो कर । ऐसा मनुष्यभाव और सत्संगका ऐसा अवसर मिमलना बहु" दुल@भ है । आत्माकी परवाह निकये निबना ऐसा अवसर चूक जायेगा "ो भवभ्रमणके दुःखसे "ेरा छूटकारा कब होगा ? अरे, "ू "ो चै"न्यराजा ! "ू स्वयं आनन्दका नाथ ! भाई, "ुझे ऐसे दुःख शोभा नहीं दे"े । जैसे अज्ञानवश राजा अपनेको भूलकर धूरेमें लोटे, उसीप्रकार "ू अपने चै"न्यस्वरूपको भूलकर रागके धूरेमें लोट रहा है, परन्"ु वह "ेरा पद नहीं है; "ेरा पद "ो चै"न्यसे शोणिभ" है, चै"न्यरत्नजनिड़" "ेरा पद है, उसमें राग नहीं है । ऐसे स्वरूपको जानने पर "ुझे महा आनन्द होगा । 237।

योगीन्द्रदेव कह"े हैं निक अरे जीव ! अब "ुझे कब "क संसारमें भटकना है ?

अभी "ू थका नहीं ? अब "ो आत्मामें आकर आन्धित्मक आनन्दका भोग कर ! अहाहा !

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जैसे पानीकी नहर बह"ी हो वैसे ही यह धम@की नहर बह रही है । पीना आ"ा हो "ो पी । भाई ! अचे्छ कालमें "ो कलका लकड़हारा हो वह आज केवलज्ञान प्राप्" कर"ा था, ऐसा वह काल था । जिजस प्रकार पु�यशालीको पग-पग पर निनधान निनकल ें उसीप्रकार आत्मनिपपासुको पया@य-पया@यमें आत्मामेंसे आनन्दके निनधान मिमल"े हैं । 238।

आत्माकी बा" पूव@कालम ें अनन्" बार सुनी होन े पर भी, चै"न्यवस्" ु जैसी

महान है वैसी लक्षमें नहीं ली, उसका पे्रम नहीं निकया, इसशिलए श्रवणका फल नहीं आया । इसशिलए उसने आत्माकी बा" सुनी ही नहीं । यथाथ@में सुनना "ो उसे कह"े हैं निक जैसा चै"न्यवस्"ु है वैसी अनुभवमें आ जाये । 239।

धमा@त्माओंके प्रनि" दान "था बहुमानका भाव आये उसमें अपनी धम@भावनाका

घोटन हो"ा ह ै । जिजसे स्वय ं धम@का पे्रम ह ै उसे अन्य धमा@त्माके प्रनि" प्रमोद, पे्रम एवं बहुमान आ"ा है । धम@ धमvजीवके आधारसे है, इसशिलए जिजसे धमvजीवोंके प्रनि" पे्रम नहीं है उसे धम@का ही पे्रम नहीं ह ै । भव्य जीवोंको सहधमv सज्जनोंके साथ अवश्य प्रीनि" करना चानिहए । 240।

नरकादिदके दुःखोंका वण@न कहीं जीवोंको भयभी" करनेके शिलए झूठा—

कस्थिल्प" वण@न नहीं है । परन्"ु "ीव्र पापके फलको भोगनेके स्थान जग"में निवद्यमान हैं । जिजस प्रकार धम@का फल मोक्ष है, पु�यका फल स्वग@ है, उसीप्रकार पापका फल जो नरक वह स्थान भी है । अज्ञानपूव@क "ीव्र हिह#सादिद पाप करनेवाले जीव ही वहाँ जा"े हैं, और वहाँ उत्पन्न हो"े ही महादुःख पा"े हैं । उनकी वेदनाका शिचत्कार वहाँ कौन सुन े ? पहले पाप कर"े हुए पीछे मुड़कर देखा हो, या धम@की परवाह की हो, "ो शरण मिमले न ? इसशिलए हे जीव ! "ू ऐसे पाप करनेसे चे" जाना । इस भवके बाद भी जीवको अन्यत्र कही जाना है—यह लक्ष्यमें रखना । आत्माका वी"राग-निवज्ञान ही एक ऐसी वस्"ु है निक जो "ुझे यहाँ "था परभवमें भी सुख प्रदान करे । 241।

जो वी"राग देव और निनग्रUथ गुरुओंको नहीं मान"ा, उनकी सच्ची पनिहचान

"था उपासना नहीं कर"ा, उसे "ो सूयqदय होने पर भी अन्धकार है । "था जो वी"राग गुरुओं द्वारा प्रणिण" सत्शास्त्रोंका अध्ययन नहीं कर"ा, वह आँखे होने पर भी अन्ध है । निवकथा पढ़"ा रहे और शास्त्रस्वाध्याय न करे उसकी आँखें निकस कामकी ? ज्ञानी गुरुके पास रहकर जो शास्त्रश्रवण नहीं कर"ा और हृदयमें उनके भावको नहीं अवधार"ा, वह मनुष्य वास्"वमें कान एवं मनसे रनिह" है ऐसा कहा ह ै । जिजस घरमें देव-शास्त्र-गुरुकी उपासना नहीं हो"ी वह सचमुच घर ही नहीं है, कारागृह है । 242।

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अहो ! ऐसे चमत्कारी स्वभावकी बा" स्वभावके लक्ष्यसे सुने "ो मिमथ्यात्वके

छक्के छूट जायें । 243।

अपने आत्मस्वरूपकी भ्रान्विन्" ही सबसे महान पाप है और वही जन्म-मरणके हे"ुभू" भयंकर भावरोग ह ै । उस मिमथ्याभ्रान्विन्"का कैस े छेदन हो ? श्रीगुरुन े जैसा आत्मस्वभाव कहा ह ै वैसा समझना "था उसका निवचार एव ं ध्यान करना ही भावरोग टालनेका उपाय ह ै । प्रथम शुभाशुभ निवभाव रनिह" चै"न्यस्वरूप आत्मस्वभावका भान करना वही आत्मभ्रान्विन्"से छूटनेका उपाय है । 244।

ज्ञानीको दुःख जाननेम ें आ"ा ह ै और उसका वेदन भी ह ै । जिजस प्रकार

आनन्दका वेदन है, उसीप्रकार जिज"ना दुःख है उ"ना दुःखका भी वेदन है । 245 ।

चै"न्यस्वरूप भगवान आत्मा ज्ञायकस्वरूपसे समू्पण@ निनरोगी ह ै । व"@मानमें होनेवाले पु�य-पापादिद क्षणिणक निवकार जिज"नी ही मैं हूँ ऐसा जो जीव मान"ा है उसका निवकार-रोग दूर नहीं हो"ा । व"@मान क्षणिणक दशा ही मशिलन है, भी"र गहराईमें अथा@"् शशिक्तरूपसे व"@मानमें त्रैकाशिलक पूरा निनम@ल हूँ—ऐसे पूण@ निनरोग स्वभाव पर जिजसकी दृमिष्ट है उसके क्षणिणक रागरूपी रोगका नाश हो जा"ा है । 246।

सम्यक् मनि"ज्ञान, सम्यक् श्रु"ज्ञान, अवमिधज्ञान आदिद सव@ अवस्थाए ँहो"ी

अवश्य हैं, परन्"ु उन मनि"-श्र"ुादिद अवस्थाआÂ पर दृमिष्ट लगानेसे वे मनि"-श्र"ु या केवलादिद कोई अवस्थाए ँप्रकट नहीं हो"ीं, परन्" ु परिरपूण@ ऐश्वय@वान जो पूण@ वस्" ु धु्रव निनश्चय निवद्यमान है उसकी दृमिष्टके बलसे सम्यक् मनि"-श्र"ु और (लीन"ामें वृजिद्ध होने पर) पूण@ केवलज्ञान-दशा प्रकट हो"ी है । 247।

संयमके भेदोंमें संयमको �ँू�नेसे संयमदशा प्रगट नहीं हो"ी, निकन्"ु ‘मैं आत्मा

"ो अभेदरूपसे वी"रागस्वरूप हँू, अनन्" गुणोंका अभेद निप�ड हूँ’ ऐसी अभेद दृमिष्टके बलसे (स्थिस्थर"ा बढ़ने पर) संयमादिद वी"राग"ा प्रकट हो"ी है । ‘असंयमका त्याग करँू "ो संयम प्रकट हो’ ऐस े निवकल्पसे संयम प्रकट नहीं हो"ा, निकन्" ु मेरा स्वभाव ही निनत्य समस्वरूप ह ै वी"रागस्वरूप है—इस प्रकार उस पर दृमिष्ट लगानेस े (स्थिस्थर"ा होन े पर) संयम प्रकट हो"ा ह ै । गुण-गुणीका भेद भी वस्"ुदृमिष्टका निव\य नहीं ह ै । वास्"वमें "ो अनन्" गुणोंके अभेद निप�डरूप जो निनज वस्"ु वही दृमिष्टका निव\य है । 248।

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चन्द्र "ो स्वयं सोलह कलाओंसे पूण@ है, उसे निनत्य-राहु �ँककर रह"ा है; राहु ज्यों-ज्यों हट"ा जाए त्यों-त्यों चन्द्रकी एक-एक कला निवकशिस" हो"ी रह"ी है । चन्द्रमें दूज, "ीज, चौथ आदिद कलाके भेद अपनेसे नहीं निकन्"ु राहुके निनमिमत्तकी अपेक्षासे हैं । इसीप्रकार ज्ञानस्वरूप आत्मा चन्द्रके समान अख�ड परिरपूण@ है, उसमें पाँचवें, छट्ठवें, सा"वें गुणस्थानके भेदकी जो कलाए ँहैं व े अख�ड आत्माकी अपेक्षासे नहीं हैं, निकन्"ु निनमिमत्त ऐसा जो कम@रूप राहु उसकी अपेक्षास े ह ैं । पुरु\ाथ@ द्वारा वह हट"ा जा"ा है इसशिलए संयमकी कलाके भेद पड़"े हैं, परन्"ु अभेद आत्माकी अपेक्षासे वे भेद नहीं पड़"े । उन कलाके भेदों पर दृमिष्ट न रखकर समू्पण@ द्रव्य पर दृमिष्ट रखना वही कलाओंके निवकारका कारण है । 249।

नीनि" वह वस्त्रोंके समान है और धम@ वह गहनोंके समान है । जिजस प्रकार निबना

वस्त्रोंके गहन े शोभा नहीं दे"े, उसीप्रकार निबना नीनि"के धम@ शोभायमान नहीं हो"ा । 250।

देव-शास्त्र-गुरु ऐसा कह"े हैं निक भाई ! "ेरी मनिहमा "ुझे आये उसमें हमारी

मनिहमा आ जा"ी है । "ुझे अपनी मनिहमा नहीं आ"ी "ो हमारी मनिहमा भी वास्"वमें "ुझे नहीं आयी है, हमें "ूने पनिहचाना नहीं है । 251।

"पकी व्याख्या ‘रोटी नहीं खाना’ वह नहीं, निकन्"ु आत्मा ज्ञानानन्दमय एक

स्व"न्त्र पदाथ@ है ऐसा निनण@य होनेके पश्चा"् अन्"रमें एकाग्र"ा होने पर जो उज्ज्वल"ाके परिरणाम हो" े ह ैं उस े भगवान "प कह" े ह ैं और उस काल जो निवकल्प हो" े ह ैं उसे व्यवहार"प कहा जा"ा है । आत्माकी लीन"ामें निवशे\ उग्र"ा हो"ी है वह धम@ध्यान एवं शुक्लध्यानरूप "प है । 252 ।

जिजस ज्ञानके साथ आनन्द न आये वह ज्ञान ही नहीं है, निकन्" ु अज्ञान ह ै ।

253।

निकसीके आशीवा@दसे निकसीका भला नहीं हो"ा, निकसीके श्रापसे निकसीका बुरा नहीं हो"ा । सबके पु�य-पापानुसार हो"ा ह ै । कुछ लोग ऐसा मान"े ह ैं निक भक्तामर-स्"ोत्रका पाठ करनेसे नंगे भूखे नहीं रहेंगे; लेनिकन इसका अथ@ क्या हुआ ?—निक रोटी, पानी या कपडोंकी पराधीन"ासे कभी छूटकारा ही नहीं होगा । अरे भाई ! ऐसा उलटा माँगा ? इसकी अपेक्षा ऐसा भाव कर निक ह े प्रभ ु ! आपके गुणोंका मुझ े बहुमान है,

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आपके गुण मुझे अचे्छ लग"े हैं अथा@"् आत्माके गुणोंकी मुझे रुशिच है, इसशिलए आपकी भशिक्त कर"ा हूँ, स्"ुनि" कर"ा हूँ । 254।

भर" चक्रव"v, रामचंद्रजी, पांडव आदिद धमा@त्मा संसारम ें थे, परन्" ु उन्हें

निनराले निनज आत्म"त्त्वका भान था । दूसरेको सुखी-दुःखी करना, मारना—जिजलाना वह आत्माके हाथमें नहीं है ऐसा वे बराबर समझ"े हैं "थानिप अस्थिस्थर"ा है इसशिलए युद्धके प्रसंगमें जुड़ जाने आदिदके पापभाव "था दूसरोंको सुखी करने, जिजलाने एवं भशिक्त आदिदके पु�यभाव आ"े ह ैं । परन्" ु व े समझ"े ह ैं निक य े भाव पुरु\ाथ@की निनब@ल"ास े हो" े ह ैं । स्वरूपमें लीन"ाका पुरु\ाथ@ करके, अवशिशष्ट रागको टालकर मोक्षपया@य प्रकट करेंगे—ऐसी भावनाका बल उनके निनरन्"र हो"ा है । 255।

प्रत्येक द्रव्य स्व"न्त्र है, कोई निकसीका कुछ कर नहीं सक"ा, स्व"न्त्र"ाकी यह

बा" समझनेमें मँहगी लग"ी है, परन्"ु जिज"ना काल संसारमें गया उ"ना काल मुशिक्त प्रकट करनेमें नहीं चानिहए, इसशिलए सत्य वह सुलभ है । यदिद सत्य मँहगा हो "ो मुशिक्त निकसकी ? इसशिलए जिजसे आत्मनिह" करना हो उसे सत्य निनकट ही है । 256।

‘आत्मा ही आनन्दका धाम है, उसम ें अन्"मु@ख होनेस े ही सुख है’—ऐसी

वाणीकी झंकार जहाँ कानोंमें पड़े वहाँ आत्माथv जीवका आत्मा भी"रसे झनझना उठ"ा ह ै निक वाह ! यह भवरनिह" वी"रागी पुरु\की वाणी ! आत्माके परम शान्"रसको ब"लानेवाली यह वाणी वास्"वमें अद्भ"ु है, अश्र"ुपूव@ है । वी"रागी सन्"ोंकी वाणी परम अमृ" है, भवरोगकी नाशक अमोघ औ\मिध है । 257।

जिजस निनज शुद्ध ज्ञायकवस्"ुम ें मिमथ्यात्व या रागादिदनिवभाव ह ै ही नहीं उसमें

रुशिचके परिरणाम "न्मय होनेसे मिमथ्यात्व दूर हो"ा है; अन्य निकसी उपायसे मिमथ्यात्व दूर नहीं हो"ा । गुणभेदका निवकल्प भी क्या शुद्धवस्"ुमें ह ै ?—नहीं है; "ो उस शुद्धवस्"ुकी प्र"ीनि" गुणभेदके निवकल्पकी अपेक्षा नहीं रख"ी । शुद्धवस्"ुम ें निवकल्प नहीं हैं, और निवकल्पम ें शुद्धवस्" ु नहीं ह ै । दोनोंकी णिभन्न"ा जाननेस े परिरणनि" निवकल्पोंस े हटकर स्वभावमें आयी वहाँ सम्यक्त्व हुआ और मिमथ्यात्व टल गया ।—यह, मिमथ्यात्व टालनेकी रीनि" है । उसके शिलए, भी"र शिचदानन्दस्वभावकी अनन्" मनिहमा भाशिस" होकर उसका अनन्" रस आना चानिहए, ऐसा करनेसे परिरणाम उसमें "न्मय हो"े हैं । 258।

हे भाई ! अनन्" गुणोंके वैभवका जिजसमें निनवास है ऐसी चै"न्यवस्"ु "ू स्वयं है

। अरे चै"न्य राजा ! अपने अशिचन्त्य वैभवको "ूने कभी जाना–देखा—अनुभव नहीं निकया

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है, अपने स्वगृहमें "ूने निनवास नहीं निकया है । स्वगृहको भूलकर रागादिद निवभावको अपना घर मानकर उसमें "ू निनवास कर रहा है । परन्"ु श्रीगुरु "ुझे निनजगृहमें प्रवेश करा"े हैं निक ह े जीव ! " ू अपन े आत्माको चै"न्यस्वरूप जानकर उसकी सेवा कर ! उसस े "ेरा कल्याण होगा । अहा ! स्वगृहमें आनेकी उमंग निकसे न होगी ? 256 ।

ज्ञानगुणको प्रधान करके आत्माको ‘ज्ञायक’ कहा जा"ा ह ै । ज्ञानगुण स्वयं

सनिवकल्प है, अथा@"् वह अपनेको "था परको जाननेवाला है; और ज्ञानके शिसवा अन्य निकसी गुणम ें स्व-परको जाननेका सामथ्य@ नहीं है, जिजसस े ज्ञानके शिसवा सभी गुण निनर्तिव#कल्प हैं । 260।

"त्त्व समझनेमें, उसके निवचारम ें जो शुभभाव सहज ही आ"ा ह ै वैस े उच्च

शुभभाव निक्रयाका�डमें नहीं है । अरे! एक घ�टे "क ध्यान रखकर "त्त्वका श्रवण करे "ो भी शुभभावकी टकसाल पड े ़ और शुभभावकी सामामियक हो जाये; "ो निफर यदिद चै"न्यकी जागृनि" लाकर निनण@य करे "ो उसकी "ो बा" ही क्या ? "त्त्वज्ञानका निवरोध न करे और ज्ञानी क्या कहना चाह"े हैं उसे सुने "ो उसमें, शुभ रागका जो पु�य बन्ध"ा है उसकी अपेक्षा, परमाथ@के लक्ष सनिह" सुननेवालेको उत्कृष्ट पु�यके शुभभाव हो जा"े हैं; परन्"ु उस पु�यका मूल्य क्या ? पु�यसे मात्र श्रवण करना मिमल"ा है परन्"ु उसमें अपनेको एकाकार करके सत्यका निनण@य न करे "ो सब व्यथ@ है । 261।

आत्मामें कम@की ‘नास्तिस्"’ है । दोनों स्व"न्त्र वस्"ुए ँहैं । जो अपनेमें नहीं है वह

अपनेको हानिन नहीं पहुँचा सक"ा । स्वय ं स्वलक्ष्यस े निवकार नहीं कर सक"ा, परन्"ु निवकारमें निनमिमत्तरूप अन्य वस्"ुकी उपस्थिस्थनि" हो"ी है । निकसीकी अवस्था निकसीके कारण नहीं हो"ी । जहा ँ जीवको निवकारी भाव करनेकी व"@मान योग्य"ा हो वहा ँ निनमिमत्तरूप होनेवाला कम@ उपस्थिस्थ" ही हो"ा है । 262 ।

वी"रागवाणीरूप समुद्रके मंथनसे जिजसने शुद्ध शिचद्रूप-रत्न प्राप्" निकया है ऐसा

मुमुक्षु चै"न्यप्रान्विप्"के परम उल्लाससे कह"ा है निक अहो ! मुझे सवqत्कृष्ट चै"न्यरत्न प्राप्" हुआ, अब मुझे चै"न्यसे अन्य दूसरा कोई काय@ नहीं है, दूसरा कोई वाच्य नहीं है, दूसरा कोई ध्येय नहीं है, दूसरा कुछ श्रवणयोग्य हीं है, अन्य कुछ प्राप्" करनेयोग्य नहीं है, अन्य कोई श्रेय नहीं है, अन्य कोई आदेय नहीं है । 263।

मोह, राग, दे्व\ादिदकी जो निवकारी अवस्था आत्माकी पया@यमें उत्पन्न हो"ी है

वह जड़की ही अवस्था है, क्योंनिक जड़की ओरके झुकाववाला भाव ह ै इसशिलए उसे

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जड़का कहा ह ै । वह भाव आत्माका स्वभाव नहीं ह ै और उसकी उत्पणित्त मूळभू" आत्मामेंसे नहीं हो"ी इसशिलए उसे जड कहा है । 264 ।

हम दूसरोंका कुछ भी कर सक"े हैं ऐसा माननेवाले चौरासीके अव"ारमें रुलेंगे

। आत्मा "ो मात्र ज्ञा"ा-द्रष्टा है; उसीका काय@ मैं कर सक"ा हूँ ऐसा नहीं माना और मैं परवस्"ुका कर सक"ा हू ँ ऐसा जिजसन े माना उसको अपन े चै"न्यकी जागृनि" दब गई इसशिलए उस अपेक्षासे वह जड़ है । इससे कहीं ऐसा नहीं समझना निक चै"न्य मिमटकर जड़द्रव्य हो जा"ा है । यदिद आत्मा जड़ हो जा"ा हो "ो ‘"ू समझ, आत्माको पनिहचान’ ऐसा सम्बोधन भी नहीं निकया जा सक"ा । यह "ो कई बार कह"े ह ैं निक आबालवृद्ध, राजासे रंक—सब आत्मा प्रभु हैं, सव@ आत्मा परिरपूण@ भगवान हैं, सव@ आत्मा व"@मानमें अनन्"गुणोंसो भर े हैं; परन्"ु उसका भान न करे, पनिहचाने नहीं और जड़के क"@व्यको अपना क"@व्य माने, जड़के स्वरूपको अपना स्वरूप माने, उसकी दृमिष्टमें उसे जड़ ही भाशिस" हो"ा है इसशिलए उसे जड़ कहा है । 265।

ज्ञान आत्माका स्वभाव है । ज्ञानमें कालभेद नहीं है, ज्ञानका भार (बोझ) नहीं

है और ज्ञानमें निवकार नहीं है ।पचास व\@ पहलेकी बा" याद करना हो "ो उसे याद करनेके शिलए ज्ञानमें क्रम

नहीं करना पड़"ा । जैसे कापड़के पचास थान नीचे-ऊपर जमाये गये हों और उनमेंसे नीचेका थान निनकालना हो "ो ऊपरके थान हटानेके बाद ही नीचेका थान निनकलेगा, वैसे ज्ञानमें पाचस व\@ पहेलेकी बा" याद करनेके शिलए बीचके उनचास व\@की बा"को याद नहीं करना पड़"ा । जिजस प्रकार कलकी बा" याद आये उसीप्रकार पचास व\@ पहेलेकी बा" भी एकदम याद आ जा"ी है । इसशिलए ज्ञानमें कालभेद नहीं हो"ा; कालको खा जाये ऐसा अरूपी ज्ञानमूर्ति"# आत्मा है ।

ज्ञान अरूपी है इसशिलए वह चाहे जिज"ना बढ़ जाए "थानिप उसका भार मालूम नहीं हो"ा । अनेक पुस्"कें प�ी़ इसशिलए ज्ञानमें भार नहीं बढ़ जा"ा । इस प्रकार ज्ञानका भार नहीं है इसशिलए वह अरूपी है ।

ज्ञान शुद्ध अनिवकारी है; ज्ञानम ें निवकार नहीं ह ै । जवानीम ें काम-क्रोधादिद निवकारी भावोंसे भरी हुई, काले कोयले जैसी जिजन्दगी निब"ायी हो, लेनिकन निफर जब उसे ज्ञानम ें याद कर े "ब ज्ञानके साथ वह निवकार नहीं हो आ"ा; इसशिलए ज्ञान स्वय ं शुद्ध अनिवकारी है । यदिद निवकारी हो "ो पूव@के निवकारका ज्ञान करनेसे वह निवकार भी साथमें हो आना चानिहए, परन्"ु ऐसा नहीं हो"ा । आत्मा स्वयं शुद्ध-अवस्थामें रहकर निवकारका ज्ञान कर सक"ा ह ै । अवस्थाम ें परके अवलम्बनस े क्षणिणक निवकार हो"ा ह ै उस े अनिवकारी

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स्वभावके भान द्वारा सव@था नष्ट निकया जा सक"ा ह ै । जो नष्ट हो सके वह आत्माका स्वभाव नहीं हो सक"ा; इसशिलए निवकार आत्माका स्वभाव नहीं है । 266।

वी"रागी पया@य ही निनश्चय मोक्षमाग@—सच्चा धम@—है । देखकर चलना, मृदु

वचन बोलना, वह वास्"वमें समिमनि" नहीं है । शास्त्रमें कथन आ"ा है निक मुनिनको चार हाथ भूमिम देखकर चलना आदिद । "ो वैसा उपदेश क्यों निकया ? उसका समाधान यह है निक व्यवहारके निबना परमाथ@को समझाया नहीं जा सक"ा । ‘स्वस्तिस्"’ शब्दका अथ@ म्लेच्छ नहीं समझ सक"ा, परन्" ु ‘स्वस्तिस्"’ शब्दका अथ@ उसकी भा\ाम ें कह ें निक ‘"ेरा अनिवनाशी कल्याण होओ’ "ो वह जीव समझ सक"ा है । आत्मामें दश@न, ज्ञान, चारिरत्र ऐसे भेद करके समझा"े हैं परन्"ु वे भेद कथनमात्र हैं; आत्मामें वास्"वमें ऐसे भेद नहीं हैं, आत्मा "ो अभेद ह ै । "था व्यवहार अंगीकार करानेके शिलए व्यवहारका कथन नहीं कर" े । व्यवहारके निबना परमाथ@का उपदेश अशक्य है इसशिलए व्यवहारका उपदेश है । समयसारमें श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचाय@देवने कहा है निक—

जह र्णनिव सक्कमर्णज्जो अर्णज्जभासं निवर्णा दु गाहेदंु ।तह ववहारेर्ण निवर्णा परमCुवदेसर्णमसक्कं ।।

जिजस प्रकार अनाय@को—म्लेच्छको म्लेच्छभा\ाके निबना अथ@ ग्रहण कराना शक्य नहीं है, उसीप्रकार व्यवहारके निबना परमाथ@का उपदेश अशक्य ह ै । इसशिलए व्यवहारका उपदेश ह ै । निनश्चयको अंगीकार करानेके शिलए व्यवहार द्वारा उपदेश दिदया जा"ा है, परन्"ु व्यवहार है सो अंगीकार करनेयोग्य नहीं है । 267 ।

आत्मा केवल ज्ञायक है; उस स्वभावका नहीं रुचना, नहीं सुहाना, उसका नाम

क्रोध ह ै । ‘अख�ड चै"न्यस्वभाव वह म ैं नहीं हँू’ इस प्रकार स्वभावकी अरुशिच—स्वभावका नहीं सुहाना—वह अनन्"ानुबन्धी क्रोध ह ै । वस्" ु अख�ड है, सब भंग-भेद अजीवके सम्बन्धसे दिदखायी दे"े हैं । दृमिष्टमें उस अख�ड स्वभावका पो\ण न होना वह क्रोध है; परपदाथ@के प्रनि" अहंबुजिद्ध वह अनन्"ानुबन्धी मान है; वस्"ुका स्वभाव जैसा है वैसा न मानकर, वक्र"ा करके दूसरी "रह मानना उसका नाम अनन्"ानुबन्धी माया है; स्वभावकी भावनास े च्यु" होकर निवकारकी इच्छा करना वह अनन्"ानुबन्धी लोभ ह ै । 268 ।

भर" चक्रव"v और बाहुबली दोनों भाईयोंमें युद्ध हुआ । साधारण लोगोंको "ो

ऐसा लगे निक दोनों सम्यग्ज्ञानी, दोनों सगे भाई, "था उसी भवमें दोनों मोक्ष जानेवाले है "ो निफर यह क्या ? परन्"ु युद्ध कर"े समय भी भान है निक मैं इस सबसे णिभन्न हूँ । वे युद्धके ज्ञा"ा ह ैं । जो क्रोध हो"ा ह ै उस क्रोधका भी ज्ञा"ा ह ैं । अपन े शुद्ध पनिवत्र

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आनन्दघनस्वभावका भान व"@"ा है, परन्" ु अस्थिस्थर"ा होनेस े युद्धम ें खड़ े ह ैं । भर" चक्रव"v जी" नहीं सके इसशिलए अन्"में बाहुबलीजी पर चक्र छोड़" े ह ैं । उसी समय बाहुबलीजीको वैराग्य जागृ" हो"ा है निक मिधक्कार है इस राज्यको ! अरे ! इस जीवनमें राज्यके शिलए यह क्या ? ज्ञानी पु�यसे भी सन्"ुष्ट नहीं है और पु�यके फलसे भी सन्"ुष्ट नहीं हैं । बाहुबलीजी कह"े हैं निक मैं शिचदानन्द आत्मा, परसे णिभन्न हूँ, उसे यह नहीं होना चानिहए, यह शोभा नहीं दे"ा ! मिधक्कार ह ै इस राज्यको ! इस प्रकार वैराग्य आनेसे मुनिनपना अंगीकार निकया । निबल्ली जिजस मुँहस े अपन े बचे्चको पकड़"ी ह ै उसी मुँहसे चूहेको पकड़"ी है, निकन्"ु ‘पकड़ पकड़में फेर है’, उसीप्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी निक्रया एक जैसी दिदखाई देने पर भी भावोंमें बड़ा अन्"र हो"ा है । 269।

स्त्री, पुत्र, पैसे आदिदमें रचे-पचे रहना वह "ो निव\ैला स्वाद है, सप@की बड़ी

बाँबी है; परन्"ु शुभभावमें आना वह भी संसार है । परम पुरु\ाथv महाज्ञानी अन्"रमें ऐसे निवलीन हुए निक निफर बाहर नहीं आये । 270।

ज्ञानीको भी उग्र रोग आ"े हैं, इजिन्द्रया ँ शिशशिथल हो जा"ी हैं, बाह्यमें इजिन्द्रयाँ

काम नहीं कर"ीं, बाह्यमें बेहोशी जैसा लग"ा है, परन्"ु अन्"रमें बेहोश नहीं हैं । 271।

मुनिनको कम@ प्रक्रम नहीं हो"ा—मुनिन निकसी काय@का भार शिसरपर नहीं ले"े । ‘पाठशालाका ध्यान रखना पडेग़ा; चन्दा इकट्ठा करनेके शिलए "ुम्हें जाना पडेग़ा; "ीथ@के शिलए पैसा लाना होगा ।’—ऐसे निकन्हीं भी कामोंकी जिजम्मेवारी मुनिन अपने शिसर नहीं ले"े । निकसी प्रकारका बोझ मुनिन शिसरपर नहीं रख"े । 272।

संयोगका लक्ष्य छोड़ दे और निनर्तिव#कल्प एकरूप वस्"ु है उसका आश्रय ले ।

‘व"@मानमें नित्रकाली ज्ञायक वह मैं हूँ’ ऐसा आश्रय कर । गुण-गुणीके भेदका भी लक्ष्य छोड़कर एकरूप गुणीकी दृमिष्ट कर । "ुझे सम"ा होगी, आनन्द होगा, दुःखका नाश होगा । एक चै"न्यवस्"ु धु्रव है, उसमें दृमिष्ट लगानेसे "ुझे मुशिक्तका माग@ प्रकट होगा । अभेद वस्"ु निक जिजसमें गुण-गुणीके भेदका भी अभाव है वहाँ जा, "ुझे धम@ होगा, रागसे "था दुःखसे छूटनेका माग@ "ुझे हाथ लगेगा । 273।

पं. भागचन्दजी कृ" ‘सत्ता स्वरूप’म ें अहU"का स्वरूप जानकर गृही"

मिमथ्यात्व टालनेका स्वरूप बड़ी अच्छी "रह समझाया ह ै । परमाथ@"त्त्वके निवरोधी ऐसे कुदेव "था कुशास्त्रको अच्छा मानना वह गृही" मिमथ्यात्व है । मैं परका क"ा@ हूँ, (कम@से) बामिध" हूँ, परसे णिभन्न—स्व"ंत्र नहीं हँू, शुभरागसे मुझे गुण हो"ा है—ऐसी जो निवपरी"

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मान्य"ा अनादिदस े ह ै वह अगृही" मिमथ्यात्व अथवा निनश्चयमिमथ्यात्व ह ै । उस निनश्चयमिमथ्यात्वको हटानेसे पूव@, जो गृही" मिमथ्यात्व अथवा व्यवहारमिमथ्यात्व है उसे हटाना चानिहए । 274।

स्वानुभूनि" होने पर जीवको कैसा साक्षात्कार हो"ा ह ै ? स्वानुभूनि" होने पर,

अनाकुल-आह्लादमय, एक, समस्" ही निवश्व पर "ैर"ा निवज्ञानघन परम पदाथ@—परमात्मा अनुभवमें आ"ा ह ै । ऐस े अनुभव निबना आत्मा सम्यक् रूपसे दृमिष्टगोचर नहीं हो"ा—श्रद्धामें नहीं आ"ा, इसशिलए स्वानुभूनि"के निबना सम्यग्दश@नका—धम@का प्रारम्भ ही नहीं हो"ा ।

ऐसी स्वानुभूनि" प्राप्" करनेके शिलए जीवको क्या करना ? स्वानुभूनि"की प्रान्विप्"के शिलए ज्ञानस्वभावी आत्माका चाह े जिजसप्रकार भी दृढ़ निनण@य करना । ज्ञानस्वभावी आत्माका निनण@य दृढ़ करनेम ें सहायभू" "त्त्वज्ञानका—द्रव्योंका स्वयंशिसद्ध सत्पना और स्व"न्त्र"ा, द्रव्य-गुण-पया@य, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, नव "त्त्वका सच्चा स्वरूप, जीव और शरीरकी निबलकुल णिभन्न-णिभन्न निक्रयाए,ँ पु�य और धम@के लक्षणभेद, निनश्चय-व्यवहार इत्यादिद अनेक निव\योंके सच्च े बोधका—अभ्यास करना चानिहए । "ीथUकर भगवन्"ों द्वारा कह े गए ऐस े अनेक प्रयोजनभू" सत्योंके अभ्यासके साथ-साथ सव@ "त्त्वज्ञानका शिसरमौर—मुकुटमणिण जो शुद्धद्रव्यसामान्य अथा@" ् परमपारिरणामिमकभाव अथा@"् ज्ञायकस्वभावी शुद्धात्मद्रव्यसामान्य—जो स्वानुभूनि"का आधार है, सम्यग्दश@नका आश्रय है, मोक्षमाग@का आलम्बन है, सव@ शुद्धभावोंका नाथ है—उसकी दिदव्य मनिहमा हृदयमें सवा@मिधकरूपसे अंनिक" करनेयोग्य ह ै । उस निनजशुद्धात्मद्रव्यसामान्यका आश्रय करनेसे ही अ"ीजिन्द्रय आनन्दमय स्वानुभूनि" प्राप्" हो"ी है । 275 ।

मैं आत्मा शुद्ध हँू, अशुद्ध हँू, बद्ध हँू, मुक्त हँू, निनत्य हूँ, अनिनत्य हूँ, एक हँू,

अनेक हूँ इत्यादिद प्रकारों द्वारा जिजसने प्रथम श्रु"ज्ञान द्वारा ज्ञानस्वभावी निनज आत्माका निनण@य निकया है ऐसे जीवको, "त्त्वनिवचारके रागकी जो वृणित्त उठ"ी है वह भी दुःखदायक है, आकुल"ारूप है । ऐसे अनेक प्रकारके श्रु"ज्ञानके भावको मया@दामें ला"ा हुआ, मैं ऐसा हूँ और वैसा हूँ—ऐसे निवचारको पुरु\ाथ@ द्वारा रोक"ा हुआ, परकी ओर झुकनेवाले उपयोगको स्वकी ओर खींच"ा हुआ, नयपक्षके आलम्बनसे होनेवाला जो रागका निवकल्प उस े आत्माके स्वभावरसके भान द्वारा टाल"ा हुआ, श्र"ुज्ञानको भी जो आत्मसन्मुख कर"ा है वह, उस काल अत्यन्" निवकल्परनिह" होकर "त्काल निनजरससे प्रकट होनेवाले, आदिद-मध्य-अन्" रनिह" आत्माके परमानन्दस्वरूप अमृ"रसका वेदन कर"ा है । 276।

जीव परद्रव्यकी निक्रया "ो नहीं कर"ा, परन्" ु निवचारकालम ें भी स्वभाव-

अपेक्षास े निनर्तिव#कार रह"ा है, अपूण@दशाके समय भी परिरपूण@ रह"ा है, सदाशुद्ध है,

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कृ"कृत्य भगवान ह ै । जिजसप्रकार रंनिग" दशाके समय स्फदिटकमणिणके निवद्यमान निनम@ल स्वभावका भान हो सक"ा है, उसीप्रकार निवकारी, अपूण@दशाके समय भी जीवके निवद्यमान निनर्तिव#कारी, परिरपूण@ स्वभावका भान हो सक"ा है । ऐसे शुद्धस्वभावके अनुभव निबना मोक्षमाग@का प्रारम्भ भी नहीं हो"ा, मुनिनपना भी नरकादिद दुःखोंके डरसे अथवा अन्य निकसी हे"ुसे पल"ा है । ‘मैं कृ"कृत्य हँू, परिरपूण@ हूँ, सहजानन्द हूँ, मुझे कुछ नहीं चानिहये’ ऐसी परम उपेक्षारूप, सहज उदासीन"ारूप, स्वाभानिवक "टस्थ"ारूप मुनिनपना द्रव्यस्वभावके अनुभव निबना कदानिप नहीं आ"ा । ऐस े शुद्धद्रव्यस्वभावके—ज्ञायकस्वभावके निनण@यके पुरु\ाथ@के प्रनि", उसकी लगनके प्रनि" उन्मुख होनेका प्रयास आत्मार्थिथ#योंको—भवभ्रमणसे अकुलाये मुमुकु्षओंको—करने योग्य है । 277।

जिजस े आत्माकी यथाथ@ रुशिच जागृ" हो उस े चौबीसों घ�टे उसीका शिचन्"न,

मंथन और खटका रहा कर"ा हैं, नींदमें भी वही रटन चल"ा रह"ा है । अरे ! नरकमें पड़ा हुआ नारकी बी\ण वेदनामें पडा ़ हो उस समय भी, पूव@कालमें सत्का श्रवण निकया हो उसका स्मरण करके, फटसे अन्"रमें उ"र जा"ा है; उसे प्रनि"कूल"ा बाधक नहीं हो"ी । स्वग@का जीव स्वग@की अनुकूल"ामें रहा हो "थानिप उसका लक्ष्य छोड़कर अन्"रमें उ"र जा"ा है । यहाँ हिक#शिच"् प्रनि"कूल"ा हो "ो ‘अरेरे ! मुझे ऐसा है और वैसा है’—ऐसा कर-करके अनन्"काल गँवा दिदया । अब उसका लक्ष्य छोड़कर अन्"रमें उ"र जा न ! भाई ! इसके शिसवा अन्य कोई सुखका माग@ नहीं है । 278।

आत्मशिचन्"नमें कही गुणभेदकी या रागकी मुख्य"ा नहीं है, निवकल्पका जोर

नहीं है, निकन्" ु ज्ञानम ें परम ज्ञायकस्वभावकी निकसी अशिचन्त्य मनिहमाका जोर है, और उसीके बलसे निनर्तिव#कल्प होकर मुमुक्षु जीव आत्माको साक्षा"् अनुभवमें ले ले"ा है; वहाँ कोई निवकल्प नहीं रह" े । इस प्रकार भेद-निवकल्प बीचम ें आ" े ह ैं "थानिप स्वभावकी मनिहमाके बलसे मुमुक्षु जीव उसे लाँघकर स्वानुभूनि"में पहुँच जा"ा है । 279।

लेंडीपीपलका दाना आकारमें छोटा और स्वादमें अल्प चरपराहटनाला होने पर

भी उसमें चौंसठ पहरी चरपराहटकी—पूण@ चरपराहटकी शशिक्त सदा परिरपूण@ ह ै . इस दृष्टां"से आत्मा भी आकारमें शरीरप्रमाण एवं भावमें अल्प होन े पर भी उसमें परिरपूण@ सव@ज्ञस्वभाव, आनन्दस्वभाव भरा है । लेंडीपीपलको चौंसठ पहर "क घोंटनेसे उसकी पया@यमें जिजस प्रकार पूण@ चरपराहट प्रगट हो"ी है, उसीप्रकार रुशिचको अन्"मु@ख मोड़कर स्वरूपका मंथन कर"े-कर"े आत्माकी पया@यमें पूण@ स्वरूप प्रकट हो जा"ा है । 280

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प्रत्येक द्रव्य स्व"न्त्र ह ै । म ैं भी एक स्व"न्त्र पदाथ@ हूँ, कम@ मुझ े रोक नहीं सक"े ।

प्रश्न :—महाराज ! दो जीवोंको 148 कम@प्रकृनि"यों सम्बन्धी सव@ भेद-प्रभेदोंके प्रकृनि"-प्रदेश-स्थिस्थनि"-अनुभाग सभी बराबर एक समान हो "ो वे जीव उत्तरव"v क्षणमें समान भाव करेंगे या णिभन्न-णिभन्न प्रकारके ?

उत्तर :—णिभन्न-णिभन्न प्रकारके ।प्रश्न :—दोनों जीवोंकी शशिक्त "ो पूण@ है और आवरण बराबर एक समान है, "ो

निफर भाव णिभन्न-णिभन्न प्रकारके कैसे कर सकें गे ?उत्तर :—‘अकारण पारिरणामिमक द्रव्य है’; अथा@"् जीव जिजसका कोई कारण

नहीं ह ै ऐस े भावस े स्व"न्त्ररूपस े परिरणमनेवाला द्रव्य है, इसशिलए उस े अपन े भाव स्वाधीनरूपसे करनेमें सचमुच कौन रोक सक"ा ह ै ? वह स्व"न्त्ररूपसे अपना सब कर सक"ा है । 281।

जिजस प्रकार चनेम ें मिमठासकी शशिक्त भरी है, कचासके कारण वह कसैला

लग"ा है औऱ बोनेसे उग"ा है, निकन्"ु सेकनेसे उसका मीठा स्वाद प्रकट हो"ा है और वह बोनेपर उग"ा नहीं है; उसीप्रकार आत्मामें मिमठास अथा@"् अ"ीजिन्द्रय आनन्दशशिक्त परिरपूण@ निवद्यमान है, उस शशिक्तको भूलकर ‘शरीर सो मैं, रागादिद सो मैं’ ऐसी अज्ञानरूपी कचासके कारण उसे अपने आनन्दका अनुभव नही है निकन्"ु आकुल"ाका अनुभव है और पुनः पुनः वह अव"ार धारण कर"ा है, परन्" ु अपन े स्वरूप सन्मुख होकर उसमें एकाग्र"ारूप अखिग्न द्वारा सेकनेसे स्वभावके अ"ीजिन्द्रय आनन्दका स्वाद आ"ा है और निफर उसे अव"ार नहीं हो"ा । 282।

मुनिनराजको चल"े-निफर"े, खा"े-पी"े चै"न्यनिप�ड पृथक् हो जा"ा ह ै और वे

अ"ीजिन्द्रय आनन्दामृ"रसा वेदन कर"े हैं । नींदमें भी उन्हें क्षणभर झोंका आ"ा है और क्षणभर जाग"े हैं; क्षणभऱ जाग"े हैं "ब उनके अप्रमत्तध्यान हो जा"ा है, सहजरूपसे स्वरूपमें लीन हो जा"े ह ैं ।—इसप्रकार मुनिनराज बारम्बार प्रमत्त-अप्रमत्तदशामें झूल"े रह"े हैं । ऐसी मुनिनराजकी निनद्रा है; वे सामान्य मनुष्यकी भाँनि" घ�टों "क निनद्रामें घोर"े नहीं रह"े । मुनिनराज अं"मु@हू"@स े अमिधककाल "क—छठवें गुणस्थानमें रह"े ही नहीं । मुनिनराजको निपछली रानित्रमें क्षणभर झोंका आ"ा है, इसके शिसवा उनको अमिधक निनद्रा ही नहीं आ"ी—ऐसी उनकी सहज अं"रदशा है । 283।

प्रा"ःकाल जिजसे राजचिस#हासन पर देखा हो वही सायंकाल स्मशानमें राख हो"ा

दिदखायी दे"ा ह ै । ऐस े प्रसंग "ो संसारम ें अनेक बन" े हैं, "थानिप मोहनिवमूढ़ जीवोंको

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वैराग्य नहीं आ"ा । भाई ! संसारको अनिनत्य जानकर "ू आत्मोन्मुख हो । एक बार अपने आत्माकी ओर देख । बाह्य भाव अनं"काल करने पर भी शान्विन्" नहीं मिमली, इसशिलए अब "ो अं"मु@ख हो । यह संसार या संसारके संयोग स्वप्नमें भी इच्छनीय नहीं है । अन्"रका एक शिचदानन्द "त्त्व ही भावना करने योग्य है । 284 ।

स्वभावके माग@स े सत्य आ"ा ह ै और अज्ञानके माग@स े असत्य आ"ा ह ै ।

अज्ञानी कहीं भी जाये या कहीं भी खड़ा हो, परन्"ु ‘म ैं जान"ा हूँ’, ‘मैं समझ"ा हूँ’, ’इसकी अपेक्षा मैं अमिधक हूँ’, ‘इसकी अपेक्षा मुझे अमिधक जानकारी है’ आदिद भाव उसे आये निबना नहीं रह"े । अज्ञानीमें साक्षीरूप रहनेकी शशिक्त नहीं है ।

ज्ञानीको निकसी भी भावें, निकसी भी प्रसंगमें साक्षीरूप रहनेकी शशिक्त है; सव@ भावोंके बीच स्वयं साक्षीरूप रह सक"ा है । अज्ञानीको जहाँ भी हो वहाँ ‘मैं’ और ‘मेरा निकया हो"ा है’ ऐसा भाव आये निबना नहीं रह"ा । ज्ञानी हर स्थानसे हट गया ह ै और अज्ञानी हर स्थान पर शिचपका है । 285।

आत्माका प्रयोजन सुख है । प्रत्येक जीव सुख चाह"ा है और सुखके शिलये ही

झूर"ा है । हे जीव ! "ेरे आत्मामें सुख नामकी शशिक्त होनेसे आत्मा ही स्वयं सुखरूप हो"ा ह ै । आत्माका सम्यग्दश@न, सम्यग्ज्ञान "था सम्यक्चारिरत्र—यह "ीनों सुखरूप ह ैं । आत्माका धम@ सुखरूप है, दुःखरूप नहीं है । हे जीव ! "ुझे अपनी सुखशशिक्तमेंसे ही सुख प्राप्" होगा, अन्यत्र कहींसे "ुझे सुखकी प्रान्विप्" नहीं होगी; क्योंनिक "ू जहाँ ह ै वहीं "ेरा सुख है । "ेरी सुखशशिक्त ऐसी है निक जहाँ दुःख कभी प्रवेश ही नहीं कर सक"ा; इसशिलए आत्माम ें डूबकी लगाकर अपनी सुखशशिक्तको उछाल—उछाल !! अथा@" ् पया@यमें परिरणमिम" कर, जिजससे "ुझे अपने सुखका प्रगट अनुभव होगा । 286।

आज श्री महावीर भगवानके निनवा@णकल्याणकका मंगल दिदन ह ै । महावीर

परमात्मा भी इन सब आत्माओं जैसे ही आत्मा थे; उन्हें सत्समागमसे आत्माका भान हुआ और क्रमशः साधनाके उन्ननि"क्रमम ें चढ़"े-चढ़" े "ीथUकर हुए । जिजस प्रकार चौंसठपहरी पीपलको पीस"े-पीस" े वह चरपरी-चरपरी हो"ी जा"ी है, उसीप्रकार आत्माम ें जो परमानन्द शशिक्तरूपसे भरा ह ै वह (स्वसन्मुख"ाके अं"मु@ख) प्रयास द्वारा बाहर आ"ा है । महावीर भगवानने, अपने आत्मामें जो पूण@ परमानन्द भरा था उसे स्वयं अनुक्रमसे प्रयास करके प्रकट कर शिलया, मन, वाणी और शरीरसे णिभन्न पूण@ ज्ञानानन्दमय जो निनज"त्त्व उसे पूण@रूपसे साध शिलया ।

जिजनको पूण@ परमानन्द प्रकट हो गया है ऐसे परमात्मा पुनः अव"ार नहीं ले"े, परन्"ु जग"के जीवोंमेंसे कोई जीव उन्ननि"क्रममे चढ़"े-चढ़"े जगद्गरुु ‘"ीथUकर’ हो"ा है ।

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जग"के जीवोंमें धम@ प्राप्" करनेकी योग्य"ा निवकशिस" हो"ी है "ब ऐसा उत्कृष्ट निनमिमत्त भी "ैयार हो"ा है ।

जिजस भावस े "ीथUकर नामकम@ बँध"ा ह ै वह शुभभाव भी आत्माको (वी"राग"ाका) लाभ नहीं कर"ा । वह शुभराग टूटेगा "ब भनिवष्यम ें वी"राग"ा "था केवलज्ञान होगा । महावीर भगवानका जीव पूव@ "ीसरे भवमें नग्न दिदगम्बर भावचिल#गी मुनिन था . वहाँ मुनिनरूपसे स्वरूपरमण"ामें रम"े थे "ब, उसमेंसे बाहर आनेपर, ऐसा निवकल्प उठा निक—अहा ! ऐसा चै"न्यस्वभाव ! उसे सब जीव कैसे प्राप्" कर ें ? सव@ जीव ऐसा स्वभाव प्राप्" करो ! वास्"वमें इसका अथ@ यह है निक—अहा ! ऐसा मेरा चै"न्यस्वभाव कब पूण@ प्रकट हो ? मैं पूण@ कब होऊँ ? अं"रमें ऐसी भावनाका जोर है, और बाह्यसे ऐसा निवकल्प आ"ा है निक ‘अहा ! ऐसा स्वभाव सव@ जीव कैसे प्राप्" करें ?’ ऐसे उत्कृष्ट शुभभावसे उनके "ीथUकर नामकम@ बँध गया ।

महावीर भगवानको केवलज्ञान हुआ निकन्"ु वाणी छ्यासठ दिदनके बाद खिखरी । केवलज्ञान "ीन काल, "ीन लोक, स्व-पर समस्" द्रव्य "था उनके अनन्" भावोंको युगपद ्एक समयमें हस्"ामलकव"् अत्यन्" स्पष्टरूपसे जान"ा है । भगवानने दिदव्यध्वनिनमें कहा है निक—आत्मामें अख�ड आनन्दस्वभाव भरा है; जिजसमें ज्ञानादिद अनन्" स्वभाव भरें हैं ऐसे चै"न्यमूर्ति"# निनज आत्माकी श्रद्धा करे, उसमें लीन"ा करे, "ो उसमेंसे केलवज्ञानका पूण@ प्रकाश अवश्य प्रकट हो"ा है ।

महावीर भगवानके जो यह गी" गाये जा रहे हैं वे उन जैसे अपने स्वरूपको प्रकट करनेके शिलये ह ैं । वैस े स्वरूपको समझे "ो व"@मानम ें भी एकाव"ारीपना प्रकट निकया जा सक"ा है । उस स्वरूपको जो प्रकट करेगा उसकी अवश्य मुशिक्त होगी । 287।

"ीथUकर भगवन्"ों द्वारा प्रकाशिश" दिदगम्बर जैन धम@ ही सत्य है ऐसा गुरुदेवने युशिक्त-न्यायसे सव@ प्रकार स्पष्टरूपसे समझाया है । माग@की खूब छानबीन की ह ै । द्रव्यकी स्व"न्त्र"ा, द्रव्य-गुण-पया@य, उपादान-निनमिमत्त, निनश्चय-व्यवहार, आत्माका शुद्ध स्वरूप, सम्यग्दश@न, स्वानुभूनि", मोक्षमाग@ इत्यादिद सब कुछ उनके परम प्र"ापसे इस काल सत्यरूपसे बाहर आया है । गुरुदेवकी शु्र"की धारा कोई और ही है । उन्होंने हमें "रनेका माग@ ब"लाया ह ै । प्रवचनम ें निक"ना मथ-मथकर निनकाल" े ह ैं ! उनके प्र"ापसे सारे भार"में बहु" जीव मोक्षमाग@को समझनेका प्रयत्न कर रहे हैं । पंचमकालम ें ऐसा सुयोग प्राप्" हुआ वह अपना परम सद्भाग्य ह ै ।

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जीवनम ें सब उपकार गुरुदेवका ही ह ै । गुरुदेव गुणोंस े भरपूर हैं, मनिहमावन्" हैं । उनके चरणकमलकी सेवा हृदयमें बसी रहे ।

—बनिहनश्री चम्पाबनिहन

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परमोपकारी पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीके निव\यमें

भशिक्तगी"(हरिरगी")

संसारसागर "ारवा जिजनवाणी छे नौका भली,ज्ञानी सुकानी मळ्या निवना ए नाव पण "ारे नहीं;आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,मुज पु�यराशिश फळ्यो अहो! गुरु कहान "ंु नानिवक मळ्यो.

(अनुषु्टप)अहो ! भक्त शिचदात्माना, सीमन्धर-वीर-कुन्दना !बाह्यान्"र निवभवो "ारा, "ारे नाव मुमुक्षुनां.

(शिशखरिरणी)सदा दृमिष्ट "ारी निवमल निनज चै"न्य नीरखे,अने ज्ञन्विप्"मांही दरव-गुण-पया@य निवलसे;निनजालम्बीभावे परिरणनि" स्वरूपे जई भळे,निनमिमत्तो वहेवारो शिचद्घन निव\े कांई न मळे.

(शादु@निवक्रीनिड़")हैयु ‘स" स", ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,जे वजे्र सुमुमुक्षु सत्त्व झळके, परद्रव्य ना"ो "ूटे;—रागदे्व\ रुचे न, जंप न वळे भावेजिन्द्रमां—अंशमां,टंकोत्कीण@ अकंप ज्ञान मनिहमा हृदये रहे सव@दा.

(वसन्"नि"लका)निनत्ये सुधाझरण चन्द्र ! "ने नमंु हुं,करुणा अकारण समुद्र ! "ने नमंु हुं;हे ज्ञानपो\क सुमेध ! "ने नमंु हुं,आ दासना जीवनशिशल्पी! "ने नमंु हुं.

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(स्रग्धरा)ऊंडी ऊंडी ऊंडेथी सुखनिनमिध स"ना वायु निनत्ये वहन्"ी,वाणी शिचन्मूर्ति"#! "ारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;भावो ऊंडा निवचारी, अणिभनव मनिहमा शिचत्तमां लावी लावी,खोयेलुं रत्न पामुं—मनरथ मननो पूरजो शशिक्तशाळी!

2. तुज पादपंकज ज्यां थयां....."ुज पादपंकज ज्यां थयां "े देशने पण धन्य छे;ए गाम-पुरने धन्य छे, ए मा" कुळ ज वन्द्य छे. 1"ारां कयाU दश@न अरे! "े लोक पण कृ"पु�य छे;"ुज पादथी स्पशा@ई एवी धूलीने पण धन्य छे. 2"ारी मनि", "ारी गनि", चारिरत्र लोका"ी" छे;आदश@ साधक "ुं थयो, वैराग्य वचना"ी" छे. 3वैराग्यमूर्ति"#, शान्"मुद्रा, ज्ञाननो अव"ार "ंु;ओ देवना देवेन्द्र वहाला ! गुण "ारा शुं कथुं ? 4अनुभव महीं आनन्दनो सापेक्ष दृमिष्ट "ुं धरे;दुनिनया निबचारी बावरी "ुज दिदल देखे क्यां अरे ? 5"ारा हृदयना "ारमां रणकार प्रभुना नामना;ए नाम ‘सोहं’नामनंु, भा\ा परा ज्यां काम ना. 6अध्यात्मनी वा"ा@ करे, अध्यात्मनी दृमिष्ट धरे;निनजदेह-अणुअणुमां अहो ! अध्यात्मरस भावे भरे. 7अध्यात्ममां "न्मय बनी अध्यात्मने फेलाव"ो;काया अने वाणी-हृदय अध्यात्ममां रेलाव"ो. 8ज्यां ज्यां "मारी दृमिष्ट त्यां त्यां आनन्दना ऊभरा वहे;छाया छवाये शान्विन्"नी, "ंु शान्"मू"¥ ज्यां रहे. 9पावन-मधुर-अद्भ"ु अहो! "ुज वदनथी अमृ" झयाU;श्रवणो मळ्यां सद्भाग्यथी, निन"ेय अहो! शिचद्रसभयाU. 10

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गुरुकहान "ारणहारथी आत्माथv भवसागर "या@,भव भव रहो अम आत्मने सांनिनध्य आवा सं"ना. 11

3. अध्यात्मरसना राजवी कहानगुरुशासन "णा शिशरोमणिण स्"वना करंु ‘गुरु कहान’नी;"ुज दिदव्य मूर्ति"# झळहळे, अध्यात्मरसना राजवी. 1अध्यात्म-कल्पवृक्षनां फळनो रसीलो "ंु थयो;"ंु शुद्धरससाधक बन्यो, अन्"र "णी सृमिष्ट लह्यो. 2"ंु लोकसंज्ञा जी"ीने, अलमस्" थई जगमां फयq;परमात्मनंु ध्यान ज धरी, "ुज आत्मने स्वच्छ ज कयq. 3प्रनि"बन्ध टाळी लोकनो, आनन्दनी मोजे रह्यो;"ें शुद्ध चे"नधम@नो अनुभव हृदयमांही लह्यो. 4अन्"र "णा आनन्दमां सुर"ा लगावी पे्रमथी;शुभ द्रव्यभावे "प "प्येथी शुजिद्ध करी शुभ नेमथी. 5निनन्दा करी ना कोईनी, निनन्दा करी सहु "ें सही;शुद्धात्मरस-भोगी भ्रमर, शुभदृमिष्ट "ारामां रही. 6औदाय@ने "ें आदरी जगमां जणाव्युं बोलथी;आचारमां मूकी घणुं जोयुं अनुभव-"ोलथी. 7"ारा हृदयनी गूढ़"ा त्यां मूढ़ जननी मूढ़"ा;जे आत्मयोगी होय "े जाणे खरे "व शुद्ध"ा. 8पहोंच्यो अने पहोंचाड"ो "ुं लोकने शुद्ध भावमां;अध्यात्मरशिसया जे थया, बेठा खरे शुद्ध नावमां. 9दुनिनया थकी डर"ो नथी, आशा नथी, मम"ा जरी;ज्यां हुं वसंु त्यां "ंु नहीं—ऐ भावना निवलसे खरी. 10स्याद्वाद पारावार छे, आनन्द अपरम्पार छे;साचा हृदयनो सन्" छे, परवा नथी, जयकार छे. 11आशा नथी कीर्ति"# "णी, अपकीर्ति"#ने गण"ो नथी;लोको मने ए शुं कहे त्यां लक्षने दे"ो नथी. 12

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व्यवहारना भेदो घणा त्यां क्लेशने कर"ो नथी;लागी लगनवा आत्मनी, बीजुं कशुं जो"ो नथी. 13"े भावसंयम-बोटमां बेसी प्रयाण ज आदयुU;भवपथ-उदमिध "रवा निव\े "ें लक्ष अन्"रमां धयुU. 14जे जे भयुU "ुज शिचत्तमां, "े बाह्यमां देखाय छे;अध्यात्मरशिसया जनोथी "ुज हदय परखाय छे. 15एकान्"थी अध्यात्ममां जे शुष्क थईने चाल"ो,चाबुक "ेने मारीने व्यवहारमांथी वाळ"ो. 16गम्भीर "ारी वाणीमां भावाथ@ बहु ऊंडा छ"ां,जे हृदय "ारंु जाण"ा "े भाव "ारो खेंच"ा. 17"ुज वदन-कमळेथी वहे उपदेशनां अमृ" अहो !अध्यात्म-अमृ"-पानथी वारी ज"ा कोटी जनो. 18उपकार "ारा शुं कथुं? गुणगान "ारां शुं करंु ?वन्दन करंु, स्"वना करंु, "ुज चरणसेवाने चहुं. 19

4. कहानगुरुने वन्दनकहानगुरु! "ुज पुनिन" चरण वन्दन करंु.उन्न" निगरिरशृंगोंना वसनारा "मे,(सीमन्धर-गणधरना सत्संगी "मे,)आव्या रंकघरे शो पु�यप्रभाव जो;अप@ण"ा पूरी कव अमने आवडे,क्यारे लईशुं उर-करुणानो लाभ जो....कहानगुरु0सत्यामृ" वरसाव्यां आ काळे "मे,आशय अनि"शय ऊंडा ने गम्भीर जो;नन्दनवन सम शी"ळ छांय प्रसार"ा,ज्ञानप्रभाकर प्रगटी ज्यो" अपार जो....कहानगुरु0अणमूला सु"नु ओ ! शासनदेवीना,आत्माथvनी एक अनुपम आंख जो,सं" सलुणा! कल्पवृक्ष! शिचन्"ामणिण!पंचम काळे दुल@भ "व दिददार जो....कहानगुरु0

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5. गुरुदेवनो उपकार(मन्दाक्रान्"ा)

ज्यां जोउं त्यां नजर पड"ा राग ने दे्व\ हा ! हा!ज्यां जोउं त्यां श्रवण पड"ी पु�य ने पापगाथा;जिजज्ञासुने शरणस्थळ क्यां? "त्त्वनी वा" क्यां छे?पूछे कोने पथ पशिथक ज्यां आंधळा सव@ पासे ?

(शादू@लनिवक्रीनिड")एवा ए कणिळकाळमां जग"नां कंई पु�य बाकी ह"ां,जिजज्ञासु हृदयो ह"ां "लस"ां सद्वस्"ुने भेटवा;एवा कंईक प्रभावथी, गगनथी ओ कहान ! "ंु ऊ"रे,अंधारे डूब"ा अख�ड स"ने "ंु प्राणवन्"ु करे.जेनो जन्म थ"ां सहु जग"नां पाख�ड पाछां पडे,जेनो जन्म थ"ां मुमुक्षुहृदयो उल्लासथी निवकसे;जेना ज्ञानकटाक्षथी उदय ने चै"न्य जुदां पडे,इन्द्रो ए जिजनसु"ना जनमने आनन्दथी ऊजवे.

(अनुषु्टप)डूबेलुं सत्य अन्धारे, आव"ंु "री आखरे;फरी ए वीरवाक्योमां प्राण ने चे"ना वहे.

धम6ध्वज \रके छे मोरे मजिन्दरिरये(राग : कुमकुम केसर वरसे छे मारे आंगणिणये)धम@ध्वज फरके छे मोरे मजिन्दरिरये;स्वाध्यायमजिन्दर स्थपायां अम आंगणिणये.मेरा मनडा मांही गुरुदेव रमे;जगना "ारणहाराने मारंु दिदल नमे.शासन "णा सम्राट अमारे आंगणे आव्या,अद्भ"ु योगीराज अमारां धाम दीपाव्या;

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मीठो महेरामण आंगणिणये कहान महाराज,पु�योदयनां मीठां फळ फणिळया आज. मेरा0 1अमृ"भयाU ज्यां उर छे, नयने निवजयना नूर छे,ज्ञानामृ"े भरपूर छे, ब्रह्मचारी ए भडवीर छे;युशिक्त-न्यायमां शूरा छो योगीराज,निनश्चय-व्यवहारना साचा छो जाणनहार. मेरा0 2देहे म�ेला देव छो, चरिर"े सुवण@निवशुद्ध छो,धम¥ धुरंधर सं" छो, शौय¥ चिस#हण-पीध-दूध छो;मुशिक्त वरवाने चाल्या छो योगीराज,जिजनवर-धम@ना साचा आराधनहार. मेरा0 3सूत्रो ब"ाव्यां शास्त्रमां, उकेलवां मुश्केल छे,अक्षर "णो संग्रह घणो, पण ज्ञान पेले पार छे;अन्"ग@"ना भावोने ओळखनार,सम्यक् श्रु"ना साचा सेवनहार;कुन्दकुन्द-नन्दनने वन्दन बारम्बार.(गुरुवर-चरणोमां वन्दन वार हजार.) मेरा0 4

7. निवदेहवासी कहानगुरुनिवदेहवासी कहानगुरु भर"े पधाया@ रै,सुवण@पुरीमां निनत्ये चै"न्यरस वरस्या रे;उजमबाना नन्द अहो ! आंगणे पधाया@ रे;अम अन्"रिरयामां ह\@ ऊभराया रे.आवो पधारो मारा सद्गरुुदेवा;शी शी करंु "ुज चरणोनी सेवा.निवधनिवध रत्नोना थाळ भरावंु रे,निवधनिवध भशिक्तथी गुरुने वधावंु रे...निवदेह 0 1दिदव्य अचरजकारी गुरु अहो ! जाग्या;प्रभावशाळई सन्" अजोड़ पधाया@.वाणीनी बंसरीथी ब्रह्मांड डोले रे,गुरु-गुणगी"ो गगनमांही गाजे रे....निवदेह 0 2

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श्र"ुाव"ारी अहो ! गुरुजी अमारा;अगणिण" जीवोनां अन्"र उजाळ्या.सत्य धरमना आंबा रूडा रोप्या रे,सानि"शय गुणधारी गुरु गुणवन्"ा रे....निवदेह 0 3कामधेनु कल्पवृक्ष अहो! फणिळया;भानिव "णा भगवन्" मुझ मणिळया.अनुपम धम@धोरी गुरु भगवन्"ा रे,निनशदिदन होजो "ुझ चरणोनी सेवा रे....निवदेह 0 4

8. आजे भरभूमिममा.ं...(राग : मारा मजिन्दरिरयामां नित्रशलानन्द)

आजे भर"भूमिममां सोना-सूरज ऊनिगयो रे;मारा अन्"रिरये आनन्द अहो! ऊभराय,शासन-उद्धारक गुरु जन्मदिदवस छे आजनो रे;गुरुवर-गुणमनिहमाने गगने देवो गाय,निवधनिवध रत्नोथी वधावंु हुं गुरुराजने रे. आजे0 1

(साखी)उमराळामां जनमिमया ऊजमबा कूख-नन्द;कहान "ारंु नाम छे, जग-उपकारी सन्".मा"-निप"ा-कुळ-जा" सुधन्य अहो! गुरुराजनां रे;जेने आंगण जन्म्या परमप्र"ापी कहान,जेने पारणिणयेथी लगनी निनज कल्याणनी रे. आजे0 2

(साखी)‘शिशवरमणी रमनार "ंु, "ंु ही देवनो देव’;जाग्या आत्मशशिक्तना भणकारा स्वयमेव.परमप्र"ापी गुरुए अपूव@ सत्ने शोमिधयुं रे,भगवत्कुन्द ऋ\ीश्वर चरण-उपासक सन्",अद्भ"ु धम@धुरन्धर धोरी भर"े जानिगया रे. आजे0 3

(साखी)

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वैरागी धीरवीर ने अन्"रमांही उदास;त्याग ग्रह्यो निनव¥दथी, "जी "नडानी आश.वन्दु सत्य-गवे\क गुणवन्"ा गुरुराजने रे;जेने अन्"र उलस्यां आत्म "णां निनधान,अनुपम ज्ञान "णा अव"ार पधायाU आंगणे रे. आजे0 4

(साखी)ज्ञानभानु प्रकाशिशयो, झळक्यो भर" मोझार;सागर अनुभवज्ञाननो रेलाव्यो गुरुराज.मनिहमा "ुज गुणनो हुं शुं कहुं मुखथी सानिहबा रे;दुः\मकाळे वरस्यो अमृ"नो वरसाद,जयजयकार जग"मां कहानगुरुनो गाज"ो रे. आजे0 5

(साखी)अध्यात्मना राजवी, "ारण"रण जहाज;शिशवमारगने साधीने कीधां आ"मकाज."ारा जन्मे "ो हलाव्युं आखा निहन्दने रे;पंचमकाळे "ारो अजोड छे अव"ार,सारा भर"े मनिहमा अख�ड "ुज व्यापी रह्यो रे. आजे0 6

(साखी)सददृमिष्ट स्वानुभूनि", परिरणनि" मंगलकार;सत्यपंथ प्रकाश"ा, वाणी अमीरसधार.गुरुवर-वदनकमळथी चै"न्यरस वरसी रह्या रे;"ेमां छाई रह्यां छे मुशिक्त केरा माग@,एवी दिदव्य निवभूनि" गुरुजी अहो! अम आंगणे रे. आजे0 7

(साखी)शासननायक वीर"ा नन्दन रूडा कहान;ऊछळ्या सागर श्रु"ना, गुरु-आ"म मोझार.पूव¥ सीमंधरजिजन-भक्त सुमंगल राजवी रे;भर"े ज्ञानी अलौनिकक गुणधारी भडवीर,शासन-सं"शिशरोमणिण स्वण@पुरे निबराज"ा रे. आजे0 8

(साखी)

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सेवा पदपंकज "णी निनत्य चहुं गुरुराज !"ारी शी"ळ छांयमां करीए आ"मकाज."ारा जन्मे गगने देवदंुदुणिभ वानिगयां रे;"ारा गुणगणनो मनिहमा छे अपरंपार,गुरुजी रत्नचिच#"ामणिण शिशवसुखना दा"ार छो रे;"ारां पुनिन" चरणथी अवनी आजे शोभ"ी रे. आजे0 9

9. भारतखंडमां संत अहो जाग्या रे(राग : निवदेहवासी कहानगुरु भर"े पधाया@ रे)भार"खंडमं सं" अहो जाग्या रे,पंचमकाळे पधाया@ "ारणहारे रे,अनुभूनि"-युगस्रष्टा सव@ण¥ पधाया@ रे,आवो रे सौ भक्तो गुरुगुण गाओ रे,उजमबाना नंदनने भावे वधावो रे....भार"खंडमां0 1आवो पधारो गुरुजी अम आंगणिणये;आवो निबराजो गुरुजी अम मंदिदरिरये.माणेक-मो"ीना साशिथया पुरावुं रे,निवधनिवध रत्नोथी गुरुने वधावंु रे.....भार"खंडमां0 2यात्रा करीने मारा गुरुजी पधाया@;स्वण@पुरीना सं" स्वण¥ निबराज्या (पधाया@).स्वण@पुरी नगरीमां फूलडां पथरावो रे,(अं"रमां आनंदना दीवडा प्रगटावो रे,)घर-घरमां रूडा दीवडा प्रगटावो रे.....भार"खंडमां0 3भार"भूमिममां गुरुजी पधाया@;नगर-नगरमां गुरुजी पधाया@."ारणहारी वाणीथी हिह#द आखुं डोले रे,गुरुजीनो मनिहमा भार"मां गाजे रे.(भव्य जीवोनो आ"म जागे रे.)....भार"खंडमां0 4सम्मेदशिशखरनी यात्रा करीने;शाश्व" धामनी वंदना करीने.

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भार"मां धम@ध्वज लहराव्या रे,पहले पगले "ुज आनंद वरस्या रे.....भार"खंडमां0 5सीमंधरसभाना राजपुत्र निवदेहे;स"धम@-प्रव"@क सं" भर"े.परम-प्र"ापवं"ा गुरुजी पधाया@ रे,(भवभवना प्र"ापशाळी गुरुजी पधाया@ रे,)चै"न्यधम@ना आंबा अहो! रोप्या रे,नगर-नगरमां फाल रूडा फाल्या रे.....भार"खंडमां0 6नगरे नगरे जिजनमंदिदर स्थपायां;गुरुजी-प्र"ापे कल्याणक उजवायां,अनुपम वाणीनां अमृ" वरस्यां रे,भव्य जीवोनां अं"र उजाळ्या रे,(सत्य धरमना पंथ प्रकाश्या रे.) .....भार"खंडमां0 7नभमंडळमांथी पुष्पोनी व\ा@;आकाशे गंधवq गुरुगुण गा"ा.अनुपम (अगणिण") गुणवं"ा गुरुजी अमारा रे,सानि"शय श्र"ुधारी, "ारणहारा रे,चै"न्य-चिच#"ामणिण चिच#नि""-दा"ारा रे.....भार"खंडमां0 8सूरो मधुरा गुरुवाणीना गाजे;सुवण@पुरे निनत्य शिचद-्रस वरसे.ज्ञायकदेवनो पंथ प्रकाशे रे,शास्त्रोना ऊंडा रहस्यो उकेले रे.....भार"खंडमां0 9मंगलमूरनि" गुरुजी पधाया@;अम आंगणिणये गुरुजी निबराज्या.महाभाग्ये मणिळया भव"रनारा रे,अहोभाग्ये मणिळया आनंददा"ा रे,पंचमकाळे पधाया@ गुरुदेवा रे.निनत्ये होजो गुरुचरणोनी सेवा रे.....भार"खंडमां0 10

10. स्वर्ण6भानु भरते ऊग्यो रे

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(राग : सीमंधरमुखथी फुलडां खरे)उमराळा धाममां रत्नोनी व\ा@,जन्म्या "ारणहार रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;उजमबा-मा"ना नंदन आनंदकंद,शी"ळ पूनमनो चंद रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 1.मो"ीचंदभाईना लाडीला सु" अहो!धन्य मा"ा-कुळ-ग्राम रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे.दु\म काळे अहो! कहान पधाया@,साधकने आव्या सुकाळ रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 2.निवदेहमां जिजन-समवसरणनाश्रो"ा सुभक्त युवराज रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे.भर"े श्रीकंुदकंुदमाग@ प्रभावकअध्यात्मसं" शिशर"ाज रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 3वरस्या कृपामृ" सीमंधरमुखथी,युवराज कीधा निनहाल रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे,नित्रकाल-मंगल-द्रव्य गुरुजी,मंगळमूर्ति"# महान रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 4आत्मा सुमंगळ दृगज्ञान मंगळ,गुणगण मंगळमाळ रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;स्वाध्याय मंगळ, ध्यान अनि" मंगळ,लगनी मंगळ दिदनरा" रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 5स्वानुभवमुदिद्र" वाणी सुमंगळ,मंगळ मधुर रणकार रे,

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स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;ब्रह्म अनि" मंगळ, वैराग्य मंगळ,मंगळ मंगळ सवाUग रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 6ज्ञायक-आलंबन मंत्र भणावी,खोल्या मंगळमय द्वार रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;आत्मसाक्षात्कार-ज्योनि" जगावी,उजाळ्यो जिजनवरमाग@ रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 7परमागमसारभू" स्वानुभूनि"नोयुग सज्यq उजमाळ रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;द्रव्यस्व"ंत्र"ा, ज्ञायकनिवशुद्ध"ानिवशे्व गाजवनहार रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 8सारा भार"मां अमृ" वरस्यां,फाल्या अध्या"म-फाल रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;श्र"ुलस्ति£-महासागर ऊछळ्यो,वाणी वरसे अमीधार रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 9नगर नगर भव्य जिजनालयो नेनिबम्बोत्सव उजवाय रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;कहानचरणथी सुवण@पुरनोउज्ज्वळ बन्यो इनि"हास रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 10‘भगवान छो’ चिस#हनादोंथी गाज"ंु,सुवण@पुर "ीथ@धाम रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;रत्नचिच#"ामणिण गुरुवर मणिळया,

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शिसद्धयां मनवांशिछ" काज रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 11अनन्" मनिहमावन्" गुरुराजनेरत्ने वधावंु भरी थाळ रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे;पावन ए सन्"ना पादारहिव#दमां,होजो निनरन्"र वास रे,स्वण@भानु भर"े ऊग्यो रे. 12.

11. कहानगुरु-स्तुनित(राग : धम@ध्वज फरके छे)कहानगुरु निबराजो मनमजिन्दरिरये;आवो आवो पधारो अम आंगणिणय;ेकल्पवृक्ष फळ्यां अम आंगणिणये.शी शी करंु "ुज पूजना, शी शी करंु "ुज वन्दना;गुरुजी पधाया@ आंगणे, अम हृदय उलशिस" थई रह्यां.पंचमकाळे पधाया@ गुरु "ारणहार;स्वण¥ निबराज्या सत्य प्रकाशनहार.....कहानगुरु0 1.दिदव्य "ारंु द्रव्य छे ने दिदव्य "ारंु ज्ञान छे;दिदव्य "ारी वाणी छे ने अम जीवन-आधार छे.चै"न्यदेव प्रकाश्या गुरु-अं"रमां;अमृ"धारा वरसी सारा भार"मां.....कहानगुरु0 2.सूय@-चन्द्रो गगनमां गुणगान "ुज कर"ा अहो!मनिहमाभया@ गुरुदेव छो, शासन "णा शणगार छो.निनत्ये शुद्धात्ममदेव-आराधनहार;ज्ञायकदेवना साचा स्थापनहार.....कहानगुरु0 3.श्र"ु "णा अव"ार छो, भार" "णा भगवन्" छो;अध्यात्ममूर्ति"# देव छो, ने जग"-"ारणहार छो.सूक्ष्म "त्त्वना भावो जाणनहार;मुशिक्तपंथना साचा प्रकाशनहार.....कहानगुरु0 4.

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भरी रत्नना थाळो वधावुं भावथी गुरुराजने;भगवन्" भावीना पधाया@, सेवक "ारणहार छे.कृपानाथने अन्"रनी अरदास;गुरुचरणोंमां निनत्ये होजो निनवास.....कहानगुरु0 5.

12 धन्य- धन्य दिदन आज हैधन्य-धन्य दिदन आज है, मंगलमय सुप्रभा" है,उजमबाके राजदुलारेका मंगल अव"ार ह; धन्य-धन्य 0उमरालाके द्वार पर बाज रही शहनाइयां,‘मो"ी’ राजा ‘उजमबा’ घर मंगल गी" बधाइयां;सुर-नर-नारी सब मिमल मंगल जन्मोत्सवको मना रहे,बालसुलभ लीलासे देखो सब शिचत्तमें हरिरयाशिलयां;पूण@चन्द्र सम मुखडा "ेरा जग-आक\@णहार है,सूय@प्रभासे भी अमिधका यह अनुपम "व देदार है । धन्य-धन्य 0दिदव्य निवभूनि" कहानगुरुजी चिस#हकेसरी हैं जागे,धम@चक्रीकी अमर प"ाका देशोंदेशमें फहराये;ओ पुराण पुरु\ोत्तम "ू सवाUग सुमंगलकार है,"ुझ दश@नसे भार"वासी भाग्यशाली है कहलाये;"ीथ@ समा पावन मन है, खिखला हुआ नन्दनवन है,कल्याणी शिचन्मूर्ति"# पर यह न्योछावर सब जगजन हैं । धन्य-धन्य 0चै"न्यप्रभुका अजब-गजबका रंग गुरुमें छाया है,और उसे ही भक्तोंके अन्"स्"लमें फैलाया है;स्वानुभूनि"युगस्रष्टा "ेरी धवलकीर्ति"# दशदिदशव्यापी,साधकका निवश्राम गुरु मंगल "ीरथ कहलाया है;वाणी अमृ"-घोली है, सारी दुनिनया डोली है,वी"रागके गुप्" हृदयकी अन्"ग्र@न्धिन्थ खोली है । धन्य-धन्य 0जनम-जनमका अन्" करे "ू ऐसा मनिहमावन्" है,करुणामय वात्सल्यमूर्ति"# गुरु अद्भ"ु शशिक्तवन्" है;कल्पवृक्ष सम वांशिछ"दा"ा, भार"-भाग्यनिवधा"ा है,"ुझ मंगल छायामें जगमें जिजनशासन जयवन्" है;

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ज्ञान और वैराग्य-भशिक्तका संगम मंगलकार है,कहान-गुरुवर शाश्व" चमको, वन्दन वारंवार है । धन्य-धन्य 0 4गुणमूर्ति"# सीमंधरनन्दन स्वण@पुरी-शणगार हैं,जीवनशिशल्पी नाथ अहो आत्माथvके आधार हैं;दु\मकालमें मुशिक्तदू", भनिवभक्तोंको वरदान है,"ेरी स्वर्णिण#म गुणगणगाथा भवदमिध"ारणहार है;शाश्व" शरण "ुम्हारा हो, चाहे जग" निकनारा हो,भवभवमें "ुझ दास रहें, बस "ू आदश@ हमारा हौ,धन्य-धन्य दिदन आज है, मंगलमय सुप्रभा" है,उजमबाके राजदुलारेका मंगल अव"ार है । 5।

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